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समाज पर उद्धरण

अच्छा काम है लघु उद्योग चलाना। सामाजिक अपराध-बोध से आदमी बचा रहता है। लघु शब्द बड़ा करामाती है। बड़े उद्योग चलाओगे तो शोषक कहलाओगे, लघु उद्योग चलाओगे तो देश सेवक।

मृदुला गर्ग

अगर समाज में रहने वाले हर पति को अपनी पत्नी से प्यार होगा और हर पत्नी को पति से, तो समाज की भला कौन परवाह करेगा? बच्चों की परवरिश बन्द हो जाएगी। व्यापार-व्यवसाय ठप्प हो जाएँगे। राजनीति का भट्टा बैठ जाएगा। बड़े-बूढ़े मर-खप जाएंगे। सभी स्त्री-पुरुष एक-दूसरे में डूबे रहेंगे और देश रसातल को चला जाएगा। प्यार होने पर और कुछ नहीं सूझता, है न? हमारा समाज कितना सूझ-बूझ वाला है, अपनी सुरक्षा का कितना बढ़िया उपाय ढूंढ निकाला है। तयशुदा ब्याह (अरेंज्ड मैरिज)। है न?

मृदुला गर्ग

लोगों की मदद करने से बढ़कर ख़तरनाक काम कोई नहीं है। भलाई योजनाबद्ध तरीके से की जाए तो भले के बजाय बुरा होने की पूरी गुंजाइश रहती है।

मृदुला गर्ग

आदमी सभ्य जो हो गया, समाज से विद्रोह करता है तो स्वयं अपने को अपराधी मान, सजा सुना देता है।

मृदुला गर्ग

शब्दों की शक्तियों का जितना ही अधिक बोध होगा अर्थबोध उतना ही सुगम्य होगा। इसके लिए पुरातन साहित्य का अनुशीलन तो करना ही चाहिए, समाज का व्यापक अनुभव भी प्राप्त करना चाहिए।

त्रिलोचन

समाज की गति के संचालन का कार्य जो शक्ति करती है, वह मुख्यतः प्रतिबंधक नियमों पर बल देती है।

त्रिलोचन

रचनाकारों अपने समाज में धँसने की ज़रूरत है।

ज्ञानरंजन

कविता में सामाजिक अनुभूति काव्य-पक्ष के अंतर्गत ही महत्त्वपूर्ण हो सकती है।

शमशेर बहादुर सिंह

वर्तमान समाज अनेक आदर्शों का रंगमंच बन गया है।

त्रिलोचन

पुरस्कार के पीछे समाज होना चाहिए।

ज्ञानरंजन

यह समाज, विभिन्न लोगों द्वारा निर्मित वृत्तों का एक ऐसा तंत्र है जो निरंतर उलझता ही जाता है।

श्री नरेश मेहता

व्यंग्य और ईर्ष्या का पात्र समझा जाना इस समाज में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में मान्य हो जाने की निशानी है।

मनोहर श्याम जोशी

सामूहिकता की गिरावट समाज को विचित्र रूप से सामूहिकताओं के प्रतिस्थापन और हर प्रकार के फ़ासीवाद के निर्माण के लिए अधिक संवेदनशील बनाता है।

एल्फ्रीडे येलिनेक

हमारी दुनिया में जिसके दलाल हों, उसकी आवाज़ कोई नहीं सुनता।

राही मासूम रज़ा

जिस समाज में नितांत अव्याव्हारिक कोई नहीं रह जाता, वह समाज रसातल को चला जाता है।

विजय देव नारायण साही

समाजिक उत्तरदायित्व आदर्श-भेद से अर्थ-भेद का व्यंजक पाया जाता है।

त्रिलोचन

यदि कोई सामाजिक बंधन तुम्हारे ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में बाधक है, तो आत्मशक्ति के सामने अपने आप ही टूट जाएगा।

स्वामी विवेकानन्द

जिस झूठे सामाजिक प्रलेप से हम लोग सत्य के चेहरे को ढँके रहते हैं, उस लेप के पुँछ जाने का भय हमें सताता है, इसलिए हम उसे जी-जान से ढँके ही रखना चाहते हैं।

शंख घोष

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