शरीर एक बदलता हुआ प्रवाह है और मन भी। उन्हें जो किनारे समझ लेते है, वे डूब जाते है।
मनुष्य जितना समझता है, उससे कहीं अधिक जानता है।
इसमें क्या ग़लत है कि अगर दुनिया में कोई आदमी ऐसा हो जिसे आपको समझने की कोशिश करना अच्छा लगता है?
सहमति या असहमति की बात केवल तब उठती है, जब आप चीज़ों को समझते हैं। अन्यथा यह एक अंधी असहमति होती है, जो किसी भी सवाल को लेकर एक सुसंस्कृत तरीक़ा नहीं हो सकता।
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स्त्री को कौन समझ सकता है।
मेरी डाक में आने वाले खतों में कुछ खत तो गालियों से ही भरे होते हैं। उन गालियों का तो मेरे ऊपर कोई असर नहीं होता, क्योंकि मैं इन गालियों को ही स्तुति समझता हूँ, परंतु वे लोग गालियाँ इसलिए नहीं देते कि मैं उनको स्तुति समझता हूँ बल्कि इसलिए कि मैं जैसा उनकी निगाह में होना चाहिए वैसा नहीं हूँ। एक वक़्त वह था जब वे मेरी स्तुति भी करते था। इसलिए गालियाँ देना या स्तुति करना तो दुनिया का एक खेल हूँ।
एक व्यक्ति जो दूसरों के विचार या राय को नहीं समझ सकता है, तो इसका मतलब यह हुआ कि उसका दिमाग़ और संस्कृति सीमित है।
क्रूर और नीच मनुष्य यदि कभी आकर नम्रता प्रकट करे तो उसे बहुत डर की बात समझना चाहिए।
प्राचीन ग्रंथों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि शब्द और यथार्थ के तात्कालिक संबंध को ऐतिहासिक दृष्टि से समझा जाए।
सच, कर्म और चरित्र को क्रांति के बाद की चीज़ नहीं समझना चाहिए। इन्हें तो क्रांति के साथ-साथ चलना चाहिए।
तत्त्वज्ञ पुरुष को चाहिए कि वह अपमान को अमृत के समान समझकर उससे संतुष्ट हो और विद्वान मनुष्य सम्मान को विष के तुल्य समझकर उससे सदा डरता रहे।
लेखक को समझना, अपने पालतू कुत्ते को समझने के मुक़ाबले ज़्यादा महत्त्वपूर्ण सामाजिक कार्य है।
आतंक के आलावा सामूहिक निर्णय का बल और उसके आगे झुकने की विवशता भी बच्चों के समझ के बाहर की चीज़ है।
जीवन एक ऐसी अनूठी पुस्तक है, जो अंत तक मनुष्य का साथ देती है, परंतु इसके कठिन पृष्ठों को समझने के लिए बुद्धि की आवश्यकता है।
पति को जो वास्तव में धर्म समझकर, परलोक की वस्तु समझकर ग्रहण कर सकी है, उसके पैरों की बेड़ी चाहे तोड़ दी और चाहे बंधी रहने दी, उसके सतीत्व की परीक्षा अपने-आप हो ही गई, समझ लो।
भास, कालिदास आदि के पालन करने वाले भास्कर कोश-गृहों को समझने में कठिन वेद रूपी पर्वत से निकलकर बहनेवाली निर्मल नदियों, उन्नत उपनिषद देवताओं के मंदिरों, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष वाले पौधों के खेतों, यशस्वी आर्यों के जयस्तम्भ श्रेष्ठ पुराणो! तुम्हें मेरा प्रणाम!
स्वभाव, रुचि, अभ्यास, संगति, संप्रदाय और विवेक बुद्धि के न्यूनाधिक विकास के अनुसार सबको सब चीज़ें एक सी हृदयंगम नहीं होतीं।
जिस गाँव में गुण-अवगुण को सुनने व समझने वाला कोई नहीं है और जहाँ अराजकता फैली हुई है, हे राजिया! वहाँ रहना कठिन है।
संगति और सामंजस्य ऐसी चीज़ नहीं हैं जो सतत कायम रह सके।
कई बार समय समझदारी पैदा करता है।
जब कोई व्यक्ति जानता है और दूसरों को समझा नहीं सकता, तो वह क्या करता है?
जब किसी के बारे में लिखो तो यह समझकर लिखो कि वह तुम्हारे सामने ही बैठा है और तुमसे जवाब तलब कर सकता है।
तृणतुल्य भी उपकार क्यों न हो, उसके फल को समझने वाले उसे ताड़ के समान मानेंगे।
संबंधों में टकराव नहीं हो तो इससे वह सबसे मज़बूत और गहरा रिश्ता नहीं बन जाता, बल्कि सबसे गहरा रिश्ता वो है, जिसमें टकराव होने के बाद आपसी समझ और मज़बूत होती है।
जिसे हम नहीं समझ सकते वह ग़लत ही है, यह मानने की जल्दबाज़ी करना भूल है। कितनी ही बातें पहले समझ में नहीं आती थीं, वे आज दीपक की तरह दिखाई देती हैं।
नेत्र बोल सकते हैं और नेत्र समझ सकते हैं।
स्वामी पसंद-नापसंद की चीज़ नहीं है। उसे बिना कुछ विचारे मान लेना होता है।
किसी कवि की कृति को अच्छी तरह समझने के लिए यदि उस कवि के प्रति श्रद्धा नहीं, तो कम-से-कम सहानुभूति तो अवश्य ही होनी चाहिए। बिना श्रद्धा के कवि के अंतस्तल या आत्मा तक पहुँचकर, उससे अवगत होने और उसके गुण-दोष जानने में मनुष्य समर्थ नहीं हो सकता।