
एक अच्छा चित्र एक अच्छे कर्म के समान है।

मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों के प्रति अद्रोह, अनुग्रह और दान—यह सज्जनों का सनातन धर्म है।

मनुष्य दूसरे के जिस कर्म की निंदा करे उसको स्वयं भी न करे। जो दूसरे की निंदा करता है किंतु स्वयं उसी निद्य कर्म में लगा रहता है, वह उपहास का पात्र होता है।

प्रथम हृदय है, और फिर बुद्धि। प्रथम सिद्धांत और फिर प्रमाण। प्रथम स्फुरणा और फिर उसके अनुकूल तर्क। प्रथम कर्म और फिर बुद्धि। इसीलिए बुद्धि कर्मानुसारिणी कही गई है। मनुष्य जो भी करता है, या करना चाहता है उसका समर्थन करने के लिए प्रमाण भी ढूँढ़ निकालता है।

जो वस्तु भविष्य में मिलने वाली है, उसे यही माने कि 'वह मेरी नहीं है' तथा जो मिलकर नष्ट हो चुकी हो, उसके विषय में भी यही भाव रखे कि 'वह मेरी नहीं थी'। जो ऐसा मानते हैं कि 'प्रारब्ध ही सबसे प्रबल है', वे ही विद्वान् हैं और उन्हें सत्पुरुषों का आश्रय कहा गया है।

यह कहना कि जब सब करेंगे तब हम करेंगे, न करने का बहाना है। हमें ठीक लगता है, इसलिए हम करें, जब दूसरों को ठीक लगेगा, तब वे करेंगे —यही करने का मार्ग है।

राजन्! न तो कोई कर्म करने से नष्ट हुई वस्तु मिल सकती है, न चिंता से ही। कोई ऐसा दाता भी नहीं है जो मनुष्य को उसकी विनष्ट वस्तु दे दे। विधाता के विधानानुसार मनुष्य बारी-बारी से समय पर सब कुछ पा लेता है।

इस सृष्टि का सत्य तर्क नहीं कर्म है, सत्य और धर्म दोनों ही का बहाव कर्म की उपत्यका के भीतर ही मिल सकता है।

पाप कर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चात्ताप करने वाला मनुष्य उस पाप से छूट जाता है तथा फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूँगा, ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी मुक्त हो जाता है।

जो कार्य करने से न तो धर्म होता हो और न कीर्ति बढ़ती हो और न अक्षय, यश ही प्राप्त होता हो, उल्टे शरीर को कष्ट होता हो, उस कर्म का अनुष्ठान कौन करेगा?

मानव की वाणी की अपेक्षा उसका कर्म अधिक अच्छा नेतृत्व कर सकता है।

कोई भी कर्म जब इस भावना से किया जाता है कि वह परमेश्वर का है तो मामूली होने पर भी पवित्र बन जाता है।

यदि तू चाहता है कि तुझको भगवान के भेद प्राप्त हो जाएँ तो ऐसे कार्य कर कि जिनसे किसी को कष्ट न पहुँचे। मृत्यु का भय मत कर और रोटियों की चिंता त्याग दे क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ समय पर स्वयं ही आ उपस्थित होती हैं।

जिसका उद्देश्य कार्य को समुचित रीति से करना है, उसको सर्वोत्तम उपादानों का प्रयोग करना चाहिए।

भूख-प्यास से इस देह को तड़पाना नहीं। ज्यों ही बुझने लगे, त्योंही इसे सँभालना। तेरे व्रत-उपवास और साज-सिंगार पर धिक्कार। उपकार कर यही तेरा परम कर्तव्य-कर्म है।
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हमारा काम तभी अंतरात्मा से प्रेरित हो सकता है जब अपने-आप में वह स्वच्छ हो, उसका हेतु स्वच्छ हो और उसका परिणाम भी स्वच्छ हो।

जब ज्ञान से आलोकित तथा कर्म के द्वारा नियंत्रित और भीमशक्ति प्राप्त प्रबल स्वभाव परमात्मा के प्रति प्रेम एवं आराधना-भाव में उन्नत होता है, तब वही भक्ति टिक पाती है तथा आत्मा को परमात्मा से सतत संबद्ध बनाए रखती है।

हे संजय! ज्ञान का विधान भी कर्म को साथ लेकर ही है, अतः ज्ञान में भी कर्म विद्यमान है। जो कर्म के स्थान पर कर्मों के त्याग को श्रेष्ठ मानता है, वह दुर्बल है, उसका कथन व्यर्थ ही है।

जो विद्याएँ कर्म का संपादन करती हैं, उन्हीं का फल दृष्टिगोचर होता है, दूसरी विद्याओं का नहीं। विद्या तथा कर्म में भी कर्म का ही फल यहाँ प्रत्यक्ष दिखाई देता है। प्यास से पीड़ित मनुष्य जल पीकर ही शांत होता है।

महाराज! यह कर्म यदि अभिमानपूर्वक किया जाए तो सफल नहीं होता। त्यागपूर्वक किया हुआ कर्म महान फलदायक होता है।

सबको अपने किए का फल भोगना पड़ता है—व्यक्ति को भी, जाति को भी, देश को भी।

वह कर्म सबसे उत्तम है जो अधिकतम लोगों को सबसे बड़ी प्रसन्नता प्रदान करता है।

मुझमें न भगवान् का प्रेम है, न श्रवणादि भक्ति है, न वैष्णवों का योग है, न ज्ञान है, न शुभ कर्म है, और कितने आश्चर्य की बात है कि उत्तम गति भी नहीं है, फिर भी हे भगवान्! हीन अर्थ को भी उत्तम बना देने वाले आपके विषय में आबद्धमूला मेरी आशा ही मुझको प्रयत्नशील बनाए रहती है।

हम दुर्बल मनुष्य राग-द्वेष से ऊपर रहकर कर्म करना नहीं जानते, अपने अभिमान के आगे जाति के अभिमान को तुच्छ समझ बैठते हैं।

हे निशाचर! जैसे विषमिश्रित अन्न का परिणाम तुरंत ही भोगना पड़ता है, उसी प्रकार लोक में किए गए पापकर्मों का फल भी शीघ्र ही मिलता है।

सभी जंतु अपने-अपने कर्म के अनुसार जन्म लेते हैं, कर्मानुसार ही मरते हैं और कर्मानुसार ही विद्यमान रहते हैं। जो व्यक्ति जब जैसा कर्म करता है, वही देवता है।

न्याय और निष्काम कर्मयोग हृदय का है। बुद्धि से हम निष्कामता को नहीं पहुँच सकते।

कवि की दृष्टि तो सौंदर्य की ओर जाती है, चाहे वह जहाँ हो वस्तुओं के रूप-रंग में अथवा मनुष्यों के मन, वचन और कर्म में।

जो कर्म के फल का विचार न कर केवल कर्म की ओर दौड़ता हैं, वह उसका फल मिलने के समय उसी प्रकार शोक करता है जैसे ढाक का वृक्ष सींचने वाला करता है।

बिना पढ़े ही गर्व करने वाले, दरिद्र होकर भी बड़े-बड़े मनोरथ करने वाले और बिना कर्म किए ही धन पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को पंडित लोग मूर्ख कहते हैं।

जन्म के बाद से मनुष्य लगातार मृत्यु की तरफ बढ़ता रहता है। बीच के ये दो दिन ही उसके कर्म के होते हैं। यह कर्म वह किस तरह करता है, इसी पर उसका मूल्यांकन किया जाता है।

संसार के सारे कर्म इसके पार करने के सेतु हैं। देखने में एक कर्म दूसरे से भिन्न है पर उन सब के मिलने से ही वह सेतु बनता है जो संसार के पार लगाता है।

अनुरक्ति की आँख से गुण दिखता है। विरक्ति की आँख से दोष दिखता है। मध्यस्थता की आँख से गुण और दोष दोनों दिखते हैं।

कर्म-भावना-प्रधान उत्साह ही सच्चा उत्साह है। फल-भावना-प्रधान उत्साह तो लोभ ही का एक प्रच्छन्न रूप है।

हे मूढ़! व्रतधारण और साज-सज्जा कर्तव्य कर्म नहीं है। न ही मात्र काया की रक्षा कर्तव्य कर्म है। भोले मानव! देह की सार-संभाल ही कर्तव्य कर्म नहीं। सहज विचार (आत्म-तत्त्वचिंतन) वास्तविक उपदेश है।
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मनुष्य स्वयं ही अपना बंधु है, स्वयं ही अपना शत्रु है, स्वयं ही अपने कर्म और अकर्म का साक्षी है।

पवित्रता संप्रदायगत नहीं होती। ठीक कर्मों वाले मनुष्य का धर्म-ग्रंथ ग़लत नहीं हो सकता।

इस धर्म (कर्मयोग रूपी धर्म) का थोड़ा भी साधन महान भय से बचा लेता है।

योगी (कर्मयोगी) आसक्ति को त्याग कर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।

उद्यम न करने पर भी भाग्य द्वारा नियोजित पूर्व जन्मों में किया हुआ कर्म शुभाशुभ फल प्रदान करता है।

पूर्व-जन्म में प्राणी जो कर्म करता है, वही उसके इस जन्म में फल देता रहता है।

ज्ञान के लिए किया जाने वाला कर्म, सभी कर्मों में श्रेष्ठतम है।

'कर्म क्या है और अकर्म क्या है', इस विषय में बुद्धिमान भी मोहित होते हैं।

जिस-जिस मनुष्य ने अपने-अपने पूर्वजन्मों में जैसे-जैसे कर्म किए हैं, वह अपने ही किए हुए उन कर्मों का फल सदा अकेले ही भोगता है।

किसी के मरने पर लोग पूछेंगे—"वह कौन-सी संपत्ति छोड़ गया है?" परंतु देवता पूछेंगे—"तुम अपने पीछे कौन से अच्छे कर्म छोड़ आए हो?"

कर्मों का संन्यास और निष्काम कर्मयोग यह दोनों ही परम कल्याण करने वाले हैं परंतु उन दोनों में भी कर्मों के संन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।


ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।


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