लालच पर उद्धरण
लालच किसी पदार्थ, विशेषतः
धन आदि प्राप्त करने की तीव्र इच्छा है जिसमें एक लोलुपता की भावना अंतर्निहित होती है। इस चयन में लालच विषय पर अभिव्यक्त कविताओं को शामिल किया गया है।

किसान को—जैसा कि ‘गोदान’ पढ़नेवाले और दो बीघा ज़मीन' जैसी फ़िल्में देखनेवाले पहले से ही जानते हैं—ज़मीन ज़्यादा प्यारी होती है। यही नहीं, उसे अपनी ज़मीन के मुक़ाबले दूसरे की ज़मीन बहुत प्यारी होती है और वह मौक़ा मिलते ही अपने पड़ोसी के खेत के प्रति लालायित हो उठता है। निश्चय ही इसके पीठे साम्राज्यवादी विस्तार की नहीं, सहज प्रेम की भावना है जिसके सहारे वह बैठता अपने खेत की मेड़ पर है, पर जानवर अपने पड़ोसी के खेत में चराता है।

लोग, लोभ, काम, क्रोध, अज्ञान, हर्ष अथवा बालोचित चपलता के कारण धर्म के विरुद्ध कार्य करते तथा श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान कर बैठते हैं।

स्वर्ग की तृष्णा मनुष्य के मनुष्य न होने की ललक है।


कर्म-भावना-प्रधान उत्साह ही सच्चा उत्साह है। फल-भावना-प्रधान उत्साह तो लोभ ही का एक प्रच्छन्न रूप है।

हर हिंदुस्तानी की यही हालत है। दो पैसे की जहाँ किफ़ायत हो, वह उधर ही मुँह मारता है।

उन्हें देखकर इस फ़िलासफ़ी का पता चलता था कि अपनी सीमा के आस-पास जहाँ भी ख़ाली ज़मीन मिले, वहीं आँख बचाकर दो-चार हाथ ज़मीन घेर लेनी चाहिए।

कामना करने वाले मनुष्य की एक कामना जब पूर्ण हो जाती है तो दूसरी कामना उपस्थित हो जाती है। तृष्णा बाण के समान तीक्ष्ण प्रहार करती है।

एक पौराणिक कथा में, देवी लक्ष्मी ने देवताओं को तब छोड़ दिया जब उन्हें लगा कि उन्होंने लालच और अहंकार से धन पर क़ब्ज़ा कर लिया है। संदेश स्पष्ट है:- चीज़ों को लालच और ईर्ष्या के साथ देखना, अमीर बनने का तरीक़ा नहीं है।

तृष्णा सबसे बढ़कर पापिष्ठ तथा नित्य उद्वेग करने वाली बताई गई है। उसके द्वारा प्रायः अधर्म ही होता है।वह अत्यंत भयंकर पाप बंधन में डालने वाली है।
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