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इच्छा पर उद्धरण

इच्छा किसी प्रिय या

सुखद निमित्त की प्राप्ति की मनोवृत्ति है। अभिलाषा, चाह, कामना, ख़्वाहिश, लालसा, आकांक्षा, मनोरथ, उत्कंठा, ईहा, स्पृहा, मनोकामना, आरजू, अरमान आदि इसके पर्यायवाची हैं। इसका संबंध मन की लीला से है, इसलिए नैसर्गिक रूप से काव्य में शब्द, भाव और प्रयोजन में इसकी उपस्थिति होती रहती है।

हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन, ‘कम से कम’ वाली बात हमसे कहिए।

रघुवीर सहाय

पीते वक़्त ख़्वाहिश होती है अच्छा संगीत सुनूँ, और संगीत के इर्द-गिर्द ख़ामोशी हो।

कृष्ण बलदेव वैद

आत्म-सम्मान के लिए मर मिटना ही दिव्य-जीवन है।

जयशंकर प्रसाद

मेरा संपूर्ण जीवन इच्छा का मात्र एक क्षण है।

राजकमल चौधरी

मेरी कविता की इच्छा और मेरी कविता की शब्दावली, मेरी अपनी इच्छा और मेरी अपनी शब्दावली है।

राजकमल चौधरी

स्त्री आकाशकुसुम तोड़ ला सकती है, पर यह नहीं कह सकती है, ‘मैं अपराधी हूँ।’

भुवनेश्वर

देश-कालातीत इच्छाओं के वृत्तों की टकराहट ही है जो वस्तुतः पुरुषार्थों की स्फीति है।

श्रीनरेश मेहता

चेहरा दिखाने की ख़्वाहिश? चेहरे देखने की ख़्वाहिश? ग़लत ख़्वाहिश।

कृष्ण बलदेव वैद

विवेक के कारण अनात्म होते ही आप ‘पुरुष’ हो जाते हैं और तब ‘इच्छा’ आपकी इच्छा पर निर्भर होने लगती है।

श्रीनरेश मेहता

इच्छा, वृत्त को केवल जन्म ही देती है बल्कि अग्रसर होते हुए विकास, फैलाव चाहती है; परंतु विवेक, वृत्त को समेटने के लिए कहता है ताकि अन्य के लिए प्रति-वृत्त बने।

श्रीनरेश मेहता

ख़्वाहिशें ख़त्म नहीं होती। वे हो भी जाएँ, ख़्वाहिश ख़त्म नहीं होती।

कृष्ण बलदेव वैद

मानव मनोवृत्तियाँ प्रायः अपने लिए एक केंद्र बना लिया करती हैं, जिसके चारों ओर वह आशा और उत्साह से नाचती हैं।

जयशंकर प्रसाद

इच्छा को इच्छा से नहीं बल्कि आत्म-संयम से ही अस्वीकारा जा सकता है।

श्रीनरेश मेहता

इच्छा की इस अमानवीय प्रकृति को ‘अनात्म’ होकर पराजित किया जासकता है।

श्रीनरेश मेहता

इस लीला, इस महाखेल का रहस्य-मूल है—इच्छा।

श्रीनरेश मेहता

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