इच्छा पर उद्धरण
इच्छा किसी प्रिय या
सुखद निमित्त की प्राप्ति की मनोवृत्ति है। अभिलाषा, चाह, कामना, ख़्वाहिश, लालसा, आकांक्षा, मनोरथ, उत्कंठा, ईहा, स्पृहा, मनोकामना, आरजू, अरमान आदि इसके पर्यायवाची हैं। इसका संबंध मन की लीला से है, इसलिए नैसर्गिक रूप से काव्य में शब्द, भाव और प्रयोजन में इसकी उपस्थिति होती रहती है।

हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन, ‘कम से कम’ वाली बात न हमसे कहिए।

धर्म का पालन करते हुए ही जो धन प्राप्त होता है, वही सच्चा धन है जो अधर्म से प्राप्त होता है वह धन तो धिक्कार देने योग्य है। संसार में धन की इच्छा से शाश्वत धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए।

ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं—मनुष्य जन्म, मोक्ष की इच्छा और महापुरुषों की संगति।

यश-प्रतिष्ठा और रचना का मूल्य अच्छा लिखने से नहीं, यश और मूल्य देने वाले लोगों की इच्छा के अनुसार लिखने से मिलता है।

आप मेरे शरीर पर बंधन लगा सकते हैं, मेरे हाथों को बाँध सकते हैं, मेरे कार्यों को नियंत्रित कर सकते हैं : आप सबसे मज़बूत हैं, और समाज आपकी शक्ति को बढ़ा देता है; लेकिन मेरी इच्छा के साथ, आप कुछ नहीं कर सकते हैं।

धन-संचय से ही धर्म, काम, लोक तथा परलोक की सिद्धि होती है। धन को धर्म से ही पाने की इच्छा करे, अधर्म से कभी नहीं।

जो धर्म करने के लिए धनोपार्जन की इच्छा करता है, उसका धन की इच्छा न करना ही अच्छा है। कीचड़ लगा कर धोने की अपेक्षा मनुष्यों के लिए उसका स्पर्श न करना ही श्रेष्ठ है।

धन की इच्छा सबसे बड़ा दुःख है, किंतु धन प्राप्त करने में तो और भी अधिक दुःख है और जिसकी धन में आसक्ति हो गई है, उसे धन का वियोग होने पर उससे भी अधिक दुःख होता है।

हमें अपनी परेशानियों के ग़ायब होने की नहीं, बल्कि उन्हें बदलने के लिए अनुग्रह की इच्छा करनी चाहिए।

प्रत्युपकार की आशा से, फलभोग की इच्छा से तथा बड़े कष्ट से जो दान दिया जाता है उसे राजस दान कहते हैं।

पीते वक़्त ख़्वाहिश होती है अच्छा संगीत सुनूँ, और संगीत के इर्द-गिर्द ख़ामोशी हो।

आत्म-सम्मान के लिए मर मिटना ही दिव्य-जीवन है।

मेरी कविता की इच्छा और मेरी कविता की शब्दावली, मेरी अपनी इच्छा और मेरी अपनी शब्दावली है।

मेरा संपूर्ण जीवन इच्छा का मात्र एक क्षण है।

स्त्री आकाशकुसुम तोड़ ला सकती है, पर यह नहीं कह सकती है, ‘मैं अपराधी हूँ।’

देश-कालातीत इच्छाओं के वृत्तों की टकराहट ही है जो वस्तुतः पुरुषार्थों की स्फीति है।

चेहरा दिखाने की ख़्वाहिश? चेहरे देखने की ख़्वाहिश? ग़लत ख़्वाहिश।

विवेक के कारण अनात्म होते ही आप ‘पुरुष’ हो जाते हैं और तब ‘इच्छा’ आपकी इच्छा पर निर्भर होने लगती है।

इच्छा, वृत्त को न केवल जन्म ही देती है बल्कि अग्रसर होते हुए विकास, फैलाव चाहती है; परंतु विवेक, वृत्त को समेटने के लिए कहता है ताकि अन्य के लिए प्रति-वृत्त न बने।

ख़्वाहिशें ख़त्म नहीं होती। वे हो भी जाएँ, ख़्वाहिश ख़त्म नहीं होती।

मानव मनोवृत्तियाँ प्रायः अपने लिए एक केंद्र बना लिया करती हैं, जिसके चारों ओर वह आशा और उत्साह से नाचती हैं।

इच्छा को इच्छा से नहीं बल्कि आत्म-संयम से ही अस्वीकारा जा सकता है।

इच्छा की इस अमानवीय प्रकृति को ‘अनात्म’ होकर पराजित किया जासकता है।

इस लीला, इस महाखेल का रहस्य-मूल है—इच्छा।