
क्रोध, हर्ष, अभिमान, लज्जा, उद्दंडता, स्वयं को बहुत अधिक मानना—ये सब जिस मनुष्य को उसके लक्ष्य से नहीं हटाते, उसी को पंडित कहा जाता है।

पंडित बुद्धि से युक्त मनुष्य अप्राप्य को प्राप्त करने की कामना नहीं करते, नष्ट वस्तु के विषय में शोक नहीं करना चाहते और आपत्ति आ पड़ने पर विमूढ़ नहीं होते।

जो मनुष्य निश्चय करके कार्य प्रारंभ करता है, कार्य के मध्य में रुकता नहीं, समय को नष्ट नहीं करता और स्वयं को वश में रखता है, उसी को पंडित कहा जाता है।

ब्राह्मण न किसी के राज्य में रहता है और न किसी के अन्न से पलता है, स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है। वह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण सब कुछ सामर्थ्य रखने पर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपों को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याण के लिए अपने ज्ञान का दान देता है।

आत्मज्ञान, कार्यों का सभारंभ, तितिक्षा, धर्म में स्थिरता—ये सब गुण जिसको उद्देश्य से दूर नहीं हटाते, उसी को पंडित कहा जाता है।

राजा न्याय कर सकता है, परंतु ब्राह्मण क्षमा कर सकता है।

हर धर्म ने अपने-अपने ब्राह्मण पैदा किए हैं। वे इस नाम से पुकारे नहीं गए हैं, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मेरे ख़्याल से हमारे ब्राह्मण अन्य धर्मों के ब्राह्मणों की तुलना में अच्छे ही हैं।

ब्राह्मण केवल धर्म से भयभीत है। अन्य किसी भी शक्ति को वह तुच्छ समझता है।

त्याग और क्षमा, तप और विद्या, तेज और सम्मान के लिए है-लोहे और सोने के सामने सिर झुकाने के लिए हम लोग ब्राह्मण नहीं बने हैं।

चारों वेद पढ़ा होने पर भी जो दुराचारी है, वह अधमता में शूद्र से भी बढ़कर है। जो अग्निहोत्र में तत्पर और जितेंद्रिय है, उसे 'ब्राह्मण' कहा जाता है।

आज मुझे अपने अंतर्निहित ब्राह्मणत्व की उपलब्धि हो रही है। चैतन्य सागर निस्तरंग है और ज्ञान ज्योति निर्मल है।

ब्राह्मणत्व एक सार्वभौम शाश्वत बुद्धिवैभव है। वह अपनी रक्षा के लिए, पुष्टि के लिए, और सेवा के लिए इतर वर्णों का संघटन कर लेगा।

मेघ के समान मुक्त वर्षा-सा जीवन दान, सूर्य के समान अबाध आलोक विकीर्ण करना, सागर के समान कामना—नदियों को पचाते हुए सीमा के बाहर न जाना, यही तो ब्राह्मण का आदर्श है।

मैं ब्राह्मण हूँ। मेरा साम्राज्य करुणा का था, मेरा धर्म प्रेम का था, आनंद-समुद्र में शांति-द्वीप का अधिवासी ब्राह्मण मैं, चंद्र-सूर्य नक्षत्र मेरे द्वीप थे, अनंत आकाश वितान था, शस्य श्यामला कोमला विश्वम्भरा मेरी शय्या थी। बौद्धिक विनोद कर्म था, संतोष धन था।

ब्राह्मण राज्य करना नहीं जानता, करना भी नहीं चाहता, हाँ, वह राजाओं का नियमन करना जानता है, राजा बनाना जानता है।