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आत्म-संयम पर उद्धरण

अस्पर्श में प्रतिष्ठित हो जाने का नाम ही संयम है। और, संयम सत्य का द्वार है।

ओशो
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आत्म-संयम अर्थात् आत्मानुशासन ही कलात्मक सौंदर्य को सुंदर एवं व्यवस्था को सुव्यवस्थित और आनंददायक बनाता है।

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी

जो मनुष्य निश्चय करके कार्य प्रारंभ करता है, कार्य के मध्य में रुकता नहीं, समय को नष्ट नहीं करता और स्वयं को वश में रखता है, उसी को पंडित कहा जाता है।

वेदव्यास

भीतर इतनी गहराई हो कि कोई तुम्हारी थाह ले सके। अथाह जिनकी गहराई है, अगोचर उनकी ऊँचाई हो जाती है।

ओशो

स्वयं को खोकर कुछ करो, तो उससे ही स्वयं को पाने का मार्ग मिल जाता है।

ओशो

दूसरों से गाली सुनकर भी स्वयं उन्हें गाली दे। गाली सहन करने वाले का रोका हुआ क्रोध ही गाली देने वाले को जला डालता है और उसके पुण्य भी ले लेता है।

वेदव्यास

वे महान् पुरुष धन्य हैं जो अपने उठे हुए क्रोध को अपनी बुद्धि के द्वारा उसी प्रकार रोक देते हैं, जैसे दीप्त अग्नि को जल से रोक दिया जाता है।

वाल्मीकि

जिस पर अपना वश हो ऐसे कारण से पहुँचने वाले भावी अनिष्ट के निश्चय से जो दुःख होता है, वह भय कहलाता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल
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