
दिल में जो ज्योति होनी चाहिए उसको प्रकट करने की कोशिश हमें करनी है। हमारे दिल में राम विराजमान हैं और वहाँ भी युद्ध चलता है राम और रावण के बीच में। अगर हृदय में, उसके बाहर नहीं, राम पर रावण की जीत होती है तो उसका मतलब है कि हृदय में ज्योति नहीं है, अँधेरा है। अगर राम की रावण पर जय होती है और रावण बेकार हो जाता है या परास्त हो जाता है, तब हमारे भीतर तो ज्योति है ही, बाहर भी दिया-बत्ती जलाने का हमको हक़ हो जाता है।
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तुम्हारे पास क्या है; उससे नहीं, वरन् तुम क्या हो उससे ही तुम्हारी पहचान है।

शांति को चाहो। लेकिन ध्यान रहे कि उसे तुम अपने ही भीतर नहीं पाते हो, तो कहीं भी नहीं पा सकोगे। शांति कोई बाह्य वस्तु नहीं है।

श्री अरविंद का वचन है: ‘सम होना या'नी अनंत हो जाना।’ असम होना ही क्षुद्र होना है और सम होते ही विराट को पाने का अधिकार मिल जाता है।
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मैं दुनिया में सिर्फ एक ही तानाशाह को स्वीकार करता हूँ और वह है मेरी अंतरात्मा की आवाज़।

बाहर का दीया चट जलता है तो पट बुझता भी है। भीतर का दीया देर से जलता है तो आसानी से बुझता भी नहीं। उसका उजाला देर तक रहता है और दूर तक फैलता है।
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ब्राह्म-व्यवहार में जो परिवर्तन होता है, उसका प्रभाव बाहर तक ही सीमित नहीं रहता—अंतःप्रकृति में भी वह काम करता है।

आत्मा की शिक्षा एक बिलकुल भिन्न विभाग है।

अपने अंतरतम की गहराइयों में इस प्रश्न को गूँजने दो: 'मैं कौन हूँ?' जब प्राणों की पूरी शक्ति से कोई पूछता है, तो उसे अवश्य ही उत्तर उपलब्ध होता है।

"मैं कौन हूँ?" जो स्वयं इन प्रश्न को नहीं पूछता है, ज्ञान के द्वार उसके लिए बंद ही रह जाते हैं।
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एक बार अपने भीतर निहार का देखो, प्रतिदिन तुम किस जगह पर स्थित हो।
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भीतर इतनी गहराई हो कि कोई तुम्हारी थाह न ले सके। अथाह जिनकी गहराई है, अगोचर उनकी ऊँचाई हो जाती है।

जो प्रकाश स्वरूप है; अगर उसका प्रकाश न हो तो वही तो उसकी बाधा है—प्रकाश ही उसकी मुक्ति है।
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ध्यान के लिए वस्तुतः सर्वोच्च ढंग की संवेदनशीलता चाहिए तथा प्रचण्ड मौन की एक गुणवत्ता चाहिए—ऐसा मौन जो प्रेरित, अनुशासित या साधा हुआ नहीं हो।
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पाप और पुण्य मात्र कृत्य ही नहीं हैं। वस्तुतः तो वे हमारे अंतःकरण के सोये होने या जागे होने की सूचनाएँ हैं।
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अपने अंतरात्मा में परमात्मा का बोध, पूर्णता की पराकाष्ठा में ही होता है—सीढ़ी-दर-सीढ़ी नहीं होता।

बुद्धत्व का आगमन दूसरे द्वारा नहीं होता, इसका आगमन स्वयं आपके अवलोकन एवं स्वयं की समझ से ही होता है।
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स्वराज्य की सच्ची ख़ुमारी उसी को हो सकती है, जो आत्मबल अनुभव करके शरीर बल से नहीं दबेगा और निडर रहेगा तथा सपने में भी तोप बल का उपयोग करने की बात नहीं सोचेगा।
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जब हम ख़ुद से सच्चा प्यार करेंगे, तभी हम भविष्य के लिए बेहतर रिश्तों की बुनियाद रख सकेंगे।

असीम की ओर ज्ञानदृष्टि मोड़ने पर ही हम सत्य को देखते हैं।
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कोई ही इस आत्मा को आश्चर्यवत् देखता है और वैसे ही दूसरा कोई ही आश्चर्यवत् (इसके तत्त्व को) कहता है और दूसरा (कोई ही) इस आत्मा को आश्चर्यवत् सुनता है। और कोई सुनकर भी इस आत्मा को नहीं जानता।

आपके पास ऐसा मन होना चाहिए जो पूर्णतः: अकेले होने में समर्थ हो, तथा जो दूसरे व्यक्तियों के अनुभवों और प्रचार से बोझिल न हो।
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सच्ची रोशनी भीतर से पैदा होती है।
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क्या आपने स्वयं की तुलना किसी व्यक्ति या वस्तु से किए बिना कभी जीने की कोशिश की है? तब आप क्या रह जाते हैं? तब आप जो हैं, वही हैं जो है।
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पवित्रता ही साधना की सामग्री है।

हर चीज़ पर सवाल उठाना चाहिए और उन विश्वास प्रणालियों को नष्ट करना चाहिए जो आपके लिए काम नहीं करती हैं।

हमें निर्जन बन में जाने की आवश्यकता नहीं है। अपने अंतर में हमें ईश्वर का मधुर नाद सुनना है और जब हममें से हरेक वह मधुर नाद सुनने लगेगा तब हिंदुस्तान का भला होगा।

हम ईश्वर की दुनिया में पड़े हैं, पर उसे जानते नहीं।

अंतस् के संगीत पूर्ण हो उठने का नाम हो शांति है।
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कभी-कभी जिसे हम कठिन समय के रूप में मानते हैं, वह वास्तव में हमारी छिपी हुई ताकतों को खोजने का अवसर होता है।
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आत्म-मूल्य को बढ़ाने के लिए आपको अपने जीवन में लगातार मूल्य जोड़ते रहना होगा।
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मनुष्य स्वयं अपना आविष्कार नहीं कर पाता है, अपने को दूसरे के सामने प्रकाशित नहीं कर पाता है।

जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह छीन भी लिया जाएगा। उसे अपना समझना भूल है।

भीतर का दीया क्या इतनी आसानी से जलता है? एक बार से जलता है? इसमें पाँच साल क्या, सारा जीवन लग सकता है। नया जन्म भी लेना पड़ सकता है।

जो आपको बनाता या बिगाड़ता है, वह है कि आप किस चीज़ से बने हैं।

उन लोगों के लिए बार-बार उपलब्ध होना बंद करो, जिन्हें तुम्हारे होने में कोई दिलचस्पी नहीं।
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व्यक्ति और विभिन्न तत्वों का पारस्परिक संबंध, मूल अंतस-प्रवृत्ति की बाह्य व्यंजना को विभिन्न रूप प्रदान कर देता है।

आत्म-प्रेम के बारे में बहुत कुछ कहा गया है, लेकिन चलिए इसे स्पष्ट करते हैं:- ये स्वार्थ नहीं है, ये ठीक उसका उल्टा है।
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बाहर का वेग भीतर के छंद को कभी-कभी बहुत पीछे छोड़ जाता है।
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मैं महसूस करता हूँ कि मैं शून्य हूँ और इसका मतलब है मैं अपने आप को निश्चय ही प्यार करता हूँ।
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हमारा बिलीफ़-सिस्टम अक्सर दूसरों द्वारा हमारे लिए बनाया जाता है।