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गजानन माधव मुक्तिबोध पर उद्धरण

आधुनिक हिंदी कविता के

अग्रणी कवियों में से एक मुक्तिबोध को विषय-प्रेरणा या अवलंब रखते हुए लिखी गई कविताओं का संचयन।

किसी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते; जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

जहाँ-जहाँ जीवन के प्रति सच्चाई प्रकट की गई है, वहाँ-वहाँ कला अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ प्रकट हुई है। किंतु जहाँ किसी 'वाद' या बौद्धिक विश्वास से जीवन को देखा गया है, वहाँ जीवन की ताज़गी और उसका प्रवाह-संगीत लुप्त हो गया है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्सेज, यंत्रवत कविताएँ तैयार करवाते हैं।

गजानन माधव मुक्तिबोध

अनुभवी कवि आभ्यंतर भाव-संपादन का महत्व जानता है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

गेय काव्य (लिरिकल पोएट्री) की रचना-प्रक्रिया; उस कविता की रचना-प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न है, जो मन की किसी प्रतिक्रिया-मात्र का रेखांकन करती है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दुःखों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दुःस्थिति छिपी हुई थी।

गजानन माधव मुक्तिबोध

जब भावना-प्रधान प्राणी बाह्य वास्तविकता की ओर मुड़ता है और अपनी सहज ईमानदारी के वशीभूत होकर उसके प्रति अपने को ज़िम्मेवार ठहराता है, तभी से उस साहित्य की उत्पत्ति होती है, जिसे हम आदर्शवादी साहित्य कह सकते हैं क्योंकि वह जीवन पर सोचने लगता है। जीवन की ट्रेजेडीज, उसके विरोध और विसंगतियाँ, उसके मन में बैठ जाती हैं।

गजानन माधव मुक्तिबोध

रचना-प्रक्रिया से अभिभूत कवि जब भावों की प्रवहमान संगति संस्थापित करता चलता है, तब उस संगति की संस्थापना में उसे भावों का संपादन यानी एडीटिंग करना पड़ता है। यदि वह इस प्रकार भावों की काट-छाँट करे, तो मूल प्रकृति उसे संपूर्ण रूप से अपनी बाढ़ में बहा देगी और उसकी कृति विकृति में परिणत हो जाएगी।

गजानन माधव मुक्तिबोध

सुधारवादियों की तथा आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदासजी के वैचारिक प्रभाव से संघर्ष करना पड़ा, यह भी एक बड़ा सत्य है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

जिस तरह सामाजिक व्यथा से जाग्रत मानवी-आत्मा यथार्थवादी हो जाती है, उसी तरह अपनी संपन्न परिस्थिति में; अपनी भावनाओं के मनोहर कोष से चेतन मानव-आत्मा, भावना-प्रधान और कल्पना-प्रधान—जिसे रोमैंटिक कहते हैं, हो जाती है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

भक्ति-भावना के राजनीतिक गर्भितार्थ थे। ये राजनीतिक गर्भितार्थ तत्कालीन सामंती शोषक वर्गों और उनकी विचारधार के समर्थकों के विरुद्ध थे।

गजानन माधव मुक्तिबोध

भक्तिकालीन संतों के बिना महाराष्ट्रीय भावना की कल्पना नहीं की जा सकती, सिख गुरुओं के बिना सिख जाति की।

गजानन माधव मुक्तिबोध

आदर्शवादी उपन्यासों की कमज़ोरी का प्रधान कारण है बौद्धिक या कभी-कभी (जैसे मेरी कॉरेली में) धार्मिक या नैतिक आदर्शों का, कला के साथ विषम संतुलन।

गजानन माधव मुक्तिबोध
  • संबंधित विषय : कला

कवि-जीवन की प्रथम-स्तरीय उपलब्धि, उस अंतःप्रकृति से साक्षात्कार है जो अपना कुछ विशेष कहना चाहती है, जिसके पास कुछ विशेष कहने के लिए है। इस आत्म-चेतना के प्रत्यक्ष संवेदनात्मक ज्ञान के बिना कोई कवि मौलिक नहीं हो सकता।

गजानन माधव मुक्तिबोध

केवल ग्रामीण स्थिति देख-भर लेने से या गाँवों के वातावरण में लेखक के रहने से सच्चे यथार्थवादी साहित्य का जन्म नहीं हो सकता, जब तक लेखक की आत्मा ग्रामीणता में स्वयं नहीं पनपती और वहाँ की क्रिया-प्रतिक्रिया से प्रवहनशील होकर साहित्य में नहीं उतरती।

गजानन माधव मुक्तिबोध

भक्ति-आंदोलन का आविर्भाव, एक ऐतिहासिक-सामाजिक शक्ति के रूप में जनता के दु:खों और कष्टों से हुआ, यह निर्विवाद है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

काव्य की रचना-प्रक्रिया के अंतर्गत तत्व-बुद्धि, भावना, कल्पना, इत्यादि एक होते हुए भी, प्रभाव-संगठक आंतरिक उद्देश्यों की भिन्नता के साथ ही रचना-प्रक्रिया भी वस्तुतः बदल जाती है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

स्वयं के भाव-स्वभाव से घनिष्ठ परिचय के अभाव में, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति-शैली का विकास नहीं हो सकता।

गजानन माधव मुक्तिबोध

जीवन किसी भी दायरे में बंध नहीं सकता।

गजानन माधव मुक्तिबोध

सच्ची आर्थिक-सामाजिक समानता तब तक प्राप्त नहीं हो सकती, जब तक कि समाज आर्थिक-सामाजिक आधार पर वर्गहीन हो जाए।

गजानन माधव मुक्तिबोध

अनैतिक का नैतिक के प्रति विद्रोह, नैतिकता की उन्नति और उसके परिष्कर का कारण है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

शृंगार-भक्ति का रूप उसी वर्ग में सर्वाधिक प्रचलित हुआ, जहाँ ऐसी शृंगार-भावना के परिपोष के लिए पर्याप्त अवकाश और समय था—फुर्सत का समय।

गजानन माधव मुक्तिबोध

वास्तव में देखा जाए तो रोमांस और यथार्थवाद में केवल परिस्थिति का भेद है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

कट्टरपंथियों ने अपने उद्देश्यों के अनुसार तुलसीदासजी का उपयोग किया, जिस प्रकार आज जनसंघ और हिंदू महासभा ने शिवाजी और रामदास का उपयोग किया।

गजानन माधव मुक्तिबोध

मेरे मन पर मुक्तिबोध की आतंक-भरी छाप है, यंत्रणामय स्मृतियाँ हैं। मुक्तिबोध को याद करते हुए तकलीफ़ होती है।

श्रीकांत वर्मा