
आज भारत की सारी व्यवस्था, अर्थ, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और साहित्य, प्रत्येक क्षेत्र में ‘छिन्नमूल’ नवशिक्षित बुद्धजीवियों के हाथ में आ गई है और वे जन्मतः भारतीय होते हुए भी मानसिक बौद्धिक रूप से ‘आउट साइडर’ हैं।

रचना के 'आइडिया' के आविष्कार के लिए तो अवश्य 'विद्रोही मन' चाहिए। परंतु रचना का कार्य (प्राॅसेस) आइडिया के आविष्कार के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता।

किसी दूसरे देश की आत्मा को जानने का सबसे अच्छा तरीक़ा उसका साहित्य पढ़ना है।

साहित्य की आधुनिक समस्या यह है कि लेखक शैली तो चरित्र की अपनाना चाहते हैं, किन्तु उद्दामता उन्हें व्यक्तित्व की चाहिए।

तब यह दुनिया वाक़ई पूरी तरह से बर्बाद हो गई, जब आदमी प्रथम श्रेणी में यात्रा करने लगा और साहित्य मालगाड़ी से ढोया जाने लगा।

जो लोग पूरी तरह से समझदार और ख़ुश हैं, दुःख की बात है वे अच्छा साहित्य नहीं लिखते हैं।

प्रकृति में हरा रंग एक बात है, साहित्य में हरे का अर्थ अलग होता है।

पेंटिंग ने साहित्य को वर्णन करना सिखाया।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि साहित्य सच्चाई को बेहतर तरीक़े से प्रस्तुत करता है।

मैंने अपना साहित्यिक अस्तित्व ऐसे व्यक्ति जैसा बनाना शुरू कर दिया, जो इस तरह रहता है जैसे उसके अनुभव किसी दिन लिखे जाने थे।

सारा जीवन धर्म-क्षेत्र है और संसार भी धर्म है। केवल आध्यात्मिक ज्ञान की आलोचना और भक्ति का भाव ही धर्म नहीं है, कर्म भी धर्म है। हमारे सारे साहित्य में यही उच्च शिक्षा अति प्राचीन काल से सनातन भाव से व्याप्त हो रही है।

साहित्यिक, व्याकरणिक और वाक्य-विन्यास संबंधी प्रतिबंधों को भूल जाओ।

अश्वेत साहित्य को समाजशास्त्र के रूप में पढ़ाया जाता है—सहिष्णुता के रूप में, गंभीर, कठोर कला के रूप में नहीं।

रिमार्क्स साहित्य नहीं हैं।

साहित्य—रचनात्मक साहित्य—सेक्स से असंबद्ध होकर—अचिंतनीय है।

किसी साहित्य में केवल बाहर की भद्दी नक़ल उसकी अपनी उन्नति या प्रगति नहीं कही जा सकती। बाहर से सामग्री आए, ख़ूब आए, पर वह कूड़ा-करकट के रूप में न इकट्ठी की जाए। उसकी कड़ी परीक्षा हो, उस पर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाए, जिससे हमारे साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचे।

भीड़ की सतही कार्यवाहियों की अपेक्षा, कला और साहित्य राष्ट्र की आत्मा को महान अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। वे हमें शांति और निरभ्र विचार के राज्य में ले जाते हैं, जो क्षणिक भावनाओं और पूर्वाग्रह से प्रभावित नहीं होते।

समूचे जनसमूह में भाषा और भाव की एकता और सौहार्द का होना अच्छा है। इसके लिए तर्कशास्त्रियों की नहीं, ऐसे सेवाभावी व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो समस्त बाधाओं और विघ्नों को शिरसा स्वीकार करके काम करने में जुट जाते हैं। वे ही लोग साहित्य का भी निर्माण करते हैं और इतिहास का भी।

किसी की प्रशंसा या विरोध में लिखा हुआ न ही किसी को आहत करता है और न ही इनसे कोई क्षति पहुँचती है। मनुष्य अपने ख़ुद के लिखे से पूर्ण या अपूर्ण हो सकता है, किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसके बारे में कही गई बातों से नहीं।

साहित्य और कला की हमारी पूरी परंपरा में, जीव की प्रधान कामना आनंद की अनुभूति है।

केशव को कवि हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत साहित्य से सामग्री लेकर अपने पांडित्य और रचना-कौशल की धाक जमाना चाहते थे। पर इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए भाषा पर जैसा अधिकार चाहिए, वैसा उन्हें प्राप्त न था।

हम तो भारतीय भाषाओं का पढ़ाना आवश्यक इसलिए मानते हैं कि अपनी भाषा के ज्ञान के बिना कोई सच्चा देशभक्त बन ही नहीं सकता। मातृभाषा के ज्ञान के बिना कोई सच्चा देशभक्त बन ही नहीं सकता। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हमारे विचार विकृत जाते हैं और हृदय से मातृभूमि का स्नेह जाता रहता है। भारत के साहित्य और धर्मों को विदेशी भाषा के माध्यम से कभी नहीं समझा जा सकता।

जिस प्रकार हर रंग और रेखा चित्र नहीं है, हर ध्वनि संगीत नहीं है, शरीर की हर भाव-भंगिमा नृत्य नहीं है, वस्तु की हर आकृति शिल्प नहीं है, हर शब्द साहित्य नहीं है—उसी प्रकार हर ध्वनि, हर मुद्रा, हर रंग व रेखा और हर आकृति से प्राप्त होने वाला आनन्द कला का आनन्द नहीं है।

आधुनिक भारतीय साहित्य में प्रेम की अनूठी रचना कोई है तो रवींद्रनाथ ठाकुर की 'शेशेर कबिता'।

नारी के जिस प्रेम, विरह और उसके सौंदर्य को लेकर साहित्य में कितना कुछ लिखा गया है और न जाने कितना कुछ लिखना शेष है—उस नारी का प्यार आज टके सेर हो गया है।

मानव जाति के विकास क्रम में एक स्थिति ऐसी भी थी जब उसके सामूहिक गान में कविता, नृत्य, संगीत—तीनों सम्मिश्रित थे।

यदि प्रथम साक्षात् की बेला में कथानायक अस्थायी टट्टी में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती किसी नाव में बैठा नहीं सकता।

भारतीय पुरुष जीवन में नारी का जितना ऋणी है, उतना कृतज्ञ नहीं हो सका। अन्य क्षेत्रों के समान साहित्य में भी उसको स्वभावगत संकीर्णता का परिचय मिलता रहा है।

साहित्य यदि किसी राष्ट्र की संस्कृति का प्राण है और यदि संस्कृति चिरन्तन होती है, तो निस्सन्देह एक महान साहित्यिक की मान्यताएँ-विचारणाएँ चिरन्तन होती हैं।

स्वार्थ और स्वाधीनता में क्या अन्तर है? प्रतिबद्धता और पराधीनता में कैसे भेद करें? विवेक को कायरता के अतिरिक्त कोई नाम कैसे दें?

समस्त वैदिक साहित्य इस बात का सबूत है कि ‘धर्मबोध’ का जन्म ‘काम’ और ‘भय’ से नहीं हुआ है, जैसा कि बाज़ारू किस्म के बुद्धिजीवी कहा करते हैं।

शेक्सपियर को मानव-चरित्र के चमत्कार दिखाने में अधिक कौशल है और कालिदास को प्रकृति के वर्णन में। शेक्सपियर को मानव-स्वभाव के भीतर जो पहुँच थी वह कालिदास को प्रकृति के चमत्कारों में थी। इसीलिए शेक्सपियर का साहित्य गंभीर है और कालिदास का रंगीन।

ज्ञान कहीं भी मिलता हो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। परंतु अपनी ही भाषा और उसी के साहित्य को प्रधानता देना चाहिए, क्योंकि अपना, अपने देश का, अपनी जाति का उपकार और कल्याण अपनी ही भाषा के साहित्य की उन्नति से हो सकता है।

जो ऊपरी सतह पर स्पष्ट दिख रहा हो, उससे असंतुष्ट होने पर ही, वैकल्पिक संसार की रचना करने के ख़याल से कोई कलम उठाता है।

कभी कभी घर पर रखी बहुत सारी किताबों को देख कर मुझे महसूस होता है कि इससे पहले कि मैं हर क़िताब तक पहुँचू मैं इस दुनिया से चला जाऊंगा, लेकिन फिर भी नई क़िताबों को खरीदने का उत्साह मेरा कम नहीं होता। जब भी मैं किसी बुक स्टोर पर जाता हूँ और मुझे वहाँ मेरी पसंद की कोई क़िताब दिख जाती है तो मैं ख़ुद से यह बात कहता हूँ कि यह कितने दुःख की बात है कि मैं यह क़िताब ले नहीं सकता क्योंकी मेरे पास उसकी एक प्रति पहले से है।

सच तो ये है कि हम सब बहुत कुछ पीछे छोड़ कर जीते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हम समझते हैं कि यह जीवन अनंत है। कभी न कभी हर मनुष्य सभी अनुभवों से गुजरेंगे।

मुझे तो समस्त ऐसे साहित्य से आपत्ति है जो मात्र यही या वही करने की क़सम खाए हुए हो।

केवल साहित्यिक कृतियाँ व्यर्थ हैं। कार्यकर्ता उस प्रकार से नहीं बनाए जा सकते। भारत के आर्थिक इतिहासों से सद्गुण नहीं जगाए जा सकते।

एक ऐसी दुनिया में; जो अक्सर हमें विभाजित करने की कोशिश करती है—साहित्य उन खोई हुई पवित्र जगहों में से एक है जहाँ हम एक-दूसरे के दिमाग़ में रह सकते हैं—भले ही कुछ पन्नों तक ही क्यों न हो।

मैंने जो भी लिखा है उसे दोबारा कभी नहीं पढ़ा। मैंने जो भी किया है उसके लिए मुझे डर है कि मैं शर्मिंदगी न महसूस करूँ।

कई बार पढ़ने के अलावा, न पढ़ना भी महत्वपूर्ण है।

निबंधकार का एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना।

पुराण तो स्वयं विराट् साहित्य का अंश है। अतः उसकी बुद्धिसम्मत भागवत व्याख्या ही उसे हमारे जीवन के निकट ला सकती है। यह कार्य सहज नहीं क्योंकि एक ओर अनुभूति की न्यूनता इस व्याख्या को नीरस सिद्धांत बना सकती है और दूसरी ओर अनुभूति की अधिकता में यह विश्वसनीयता नहीं रहती।

राष्ट्र विप्लव होते-होते ईरान, असीरिया और मित्र वाले तो अपने प्राचीन साहित्य आदि के उत्तराधिकारी न रहे परंतु भारतवर्ष के आर्य लोगों ने वैसी ही अनेक आपत्तियाँ सहने पर भी अपनी प्राचीन सभ्यता के गौरव रूपी अपने प्राचीन साहित्य को बहुत कुछ बचा रखा और विद्या के संबंध में सारे भूमंडल के लोग थोड़े-बहुत उनके ऋृणी हैं।

दिक़्क़त इसलिए होती है कि आज का नव शिक्षित न तो पुराने साहित्य से परिचित है और न आस-पास के लोकजीवन से।

साहित्य मृत्यु के ऊपर अमृत में ले जाता है, यह एक तथ्य है।

छठी से नवीं शताब्दी के बीच पल्लव राजाओं का जमाना केवल सुख-शांति का ही ज़माना नहीं था, युद्ध और कला भी बहुत थी।

'भक्ति-काव्य' को केवल काव्य तक सीमित रखना, उसे अधूरा रखना है। भले ही आरम्भ उसका काव्य के रूप में हुआ है लेकिन अगर आप ध्यान दें कि उसका अन्य कलाओं में भी विस्तार हुआ।

मेरी दृष्टि में साहित्य की मौलिकता का प्रतिमान यही समाज की मंगलदृष्टि से अनुप्राणित, परंपरा प्राप्त, शात्र दृष्टि से सुसंस्कृत और लोकचित्त में सहज ही सुचिंत तत्त्वों को सरस रूप में प्रतिफलित करने में समर्थ व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। यह व्यक्तित्व जितना उज्ज्वल और शक्तिशाली होगा, साहित्य की मौलिकता उतनी उज्ज्वल और दृप्त होगी।

कवि का लक्ष्य 'बिंब ग्रहण' कराने का रहता है, केवल 'अर्थ-ग्रहण' कराने का नहीं।