संसार पर उद्धरण
‘संसरति इति संसारः’—अर्थात
जो लगातार गतिशील है, वही संसार है। भारतीय चिंतनधारा में जीव, जगत और ब्रहम पर पर्याप्त विचार किया गया है। संसार का सामान्य अर्थ विश्व, इहलोक, जीवन का जंजाल, गृहस्थी, घर-संसार, दृश्य जगत आदि है। इस चयन में संसार और इसकी इहलीलाओं को विषय बनाती कविताओं का संकलन किया गया है।
दुनिया जैसी है और जैसी उसे होना चाहिए के बीच कहीं वह एक लगातार बेचैनी है।
सारी दुनिया ग़लत है। सिर्फ़ मैं सही हूँ, यह अहसास बहुत दुख देता है।
संसार ही युद्ध क्षेत्र है, इसमें पराजित होकर शस्त्र अर्पण करके जीने से क्या लाभ?
संसार भी बड़ा प्रपंचमय यंत्र है। वह अपनी मनोहरता पर आप ही मुग्ध रहता है।
हम दुनिया को ग़लत आँकते हैं और कहते हैं कि उसने हमें छला है।
अनंत अपनी मृत्यु में रहते हैं इतने धुँधले कि हमारी झलक में बार-बार जन्म लेते हैं संसार!
जब कोई अर्थ नहीं रह जाता व्यर्थ का दुनिया में बहुत कुछ होता रहता है।
दुनिया इतनी नई थी कि कई चीज़ों के नाम नहीं थे और उन्हें इंगित करने के लिए यह इसे कहना आवश्यक था।
इस दुनिया में कितनी दुनियाएँ ख़ाली पड़ी रहती हैं, जबकि लोग ग़लत जगह पर रहकर सारी ज़िंदगी गँवा देते हैं।
मनुष्य को ‘रैशनल’, ‘सोशल एनीमल’ अवश्य कहा जा सकता है; लेकिन समाज में ‘रैशनल’ और ‘सोशल’ एक साथ हो पाना कम से कम निर्ममता की हद तक ईमानदार तथा संवेदनशील व्यक्ति के लिए संभव नहीं है।
संसार में जितने धनी व्यक्ति हैं, उनमें से अधिकांश दलाली करके—वस्तु या व्यक्ति के गुण को बेचने में माध्यम बनकर धन कमाते हैं। यह दलाली वस्तु और व्यक्ति के वास्तविक मूल्यांकन और मूल्य ग्रहण में बाधा है।
कौन कहता है कि दुनिया एक रहस्य है? वह एक किताब की तरह खुली है, हर चीज़ एक-एक अक्षर की तरह अंकित है; आश्चर्य की बात यह है, कि हम हर अक्षर के पीछे कोई अर्थ ढूँढ़ना चाहते हैं, जो नहीं है, यदि कोई अर्थ है—तो वह अक्षर नहीं, क्षर है।
सृष्टि है, निश्चित ही है; संरचना भी है : परंतु विनष्ट होने के लिए है।
इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, धर्म, राजनीति सभी तो स्फीति हैं।
कितना सुंदर है संसार! कितने अभागे हैं हम कि इसे देखने का अवसर, अवकाश नहीं मिलता हमें! कितने मूर्ख हैं हम कि अगर कहीं जाते भी हैं तो अपनी चिंताओं को ही साथ ले जाते हैं! कितनी विराट विविध है यह सृष्टि और कैसी है यह विडंबना कि हमारे लिए अपनी एकविध क्षद्रुता ही हर कहीं सर्वोपरि रहती है! कहीं इसीलिए तो पूर्वज सुरम्य स्थलों पर मंदिर नहीं बनवा गए कि यहाँ तो भूलो, यहाँ तो झुको!
जिसे हम आधुनिकता करके जानते हैं, वह ख़ासी घुलनशील चीज़ है।
दुनिया के पगले शुद्ध पगले होते है—भारत के पगले आध्यात्मिक होते हैं।
जिस दिन इस दुनिया का आख़िरी दिन होगा, उस दिन मैं एक पेड़ लगाना चाहूँगा।
दुनिया एक मुश्किल जगह है, लेकिन सरलता इसमें है कि हम इस दुनिया को देखते कैसे हैं।