डर पर कविताएँ

डर या भय आदिम मानवीय

मनोवृत्ति है जो आशंका या अनिष्ट की संभावना से उत्पन्न होने वाला भाव है। सत्ता के लिए डर एक कारोबार है, तो आम अस्तित्व के लिए यह उत्तरजीविता के लिए एक प्रतिक्रिया भी हो सकती है। प्रस्तुत चयन में डर के विभिन्न भावों और प्रसंगों को प्रकट करती कविताओं का संकलन किया गया है।

अँधेरे में

गजानन माधव मुक्तिबोध

नवस्तुति

अविनाश मिश्र

मर्सिया

अंचित

2020

संजय चतुर्वेदी

उपला

नवीन रांगियाल

निष्कर्ष

शुभांकर

दर्द

सारुल बागला

हाशिए के लोग

जावेद आलम ख़ान

व्यवस्थाएँ

अविनाश मिश्र

मौत

अतुल

मोना लिसा 2020

विनोद भारद्वाज

डरता रह गया

सोमदत्त

रात, डर और सुबह

नेहा नरूका

डर

नरेश सक्सेना

कवि साहिब

सुरजीत पातर

कल सपने में पुलिस आई थी

निखिल आनंद गिरि

आवाज़ तेरी है

राजेंद्र यादव

पैंतीस

दर्पण साह

बिल्लियाँ

नवीन सागर

आनुवादिक त्रुटि

अमित तिवारी

राष्ट्रपति जी!

पंकज चतुर्वेदी

मेरे शहर के हैं सवाल कुछ

हिमांशु बाजपेयी

साधो, कोरोना जनहंता

रामकुमार कृषक

ऐसे घर में

भगवत रावत

दरवाज़े

मानव कौल

ख़तरे

वेणु गोपाल

भय

अनीता वर्मा

हँसना

निखिल आनंद गिरि

चुप्पी

गिरधर राठी

अस्वीकार

राजेश कमल

उनका डर

गोरख पांडेय

कुत्ता

उदयन वाजपेयी

रात के बाद

वसु गंधर्व

भय-प्रवाह

आर. चेतनक्रांति

डरे हुए आदमी का शब्दकोश

निखिल आनंद गिरि

पिशाच

नेहा नरूका

डरो

विष्णु खरे

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