Font by Mehr Nastaliq Web

लोक पर कविताएँ

लोक का कोशगत अर्थ—जगत

या संसार है और इसी अभिप्राय में लोक-परलोक की अवधारणाएँ विकसित हुई हैं। समाज और साहित्य के प्रसंग में सामान्यतः लोक और लोक-जीवन का प्रयोग साधारण लोगों और उनके आचार-विचार, रहन-सहन, मत और आस्था आदि के निरूपण के लिए किया जाता है। प्रस्तुत चयन में लोक विषयक कविताओं का एक विशेष और व्यापक संकलन किया गया है।

मैं गाँव गया था

शरद बिलाैरे

स्‍त्री और आग

नवीन रांगियाल

बसंती हवा

केदारनाथ अग्रवाल

पतंग

संजय चतुर्वेदी

सभ्यताओं के मरने की बारी

जसिंता केरकेट्टा

हमारे गाँव में

मलखान सिंह

जो सुहाग बनाते हैं

रमाशंकर सिंह

हंडा

नीलेश रघुवंशी

कजरी के गीत मिथ्या हैं

मनीष कुमार यादव

पागलदास

बोधिसत्व

हवा

विनोद भारद्वाज

औरतें

शुभा

बारामासा

यतींद्र मिश्र

टॉर्च

मंगलेश डबराल

मेघदूत विषाद

सुधांशु फ़िरदौस

पटवारी

अमर दलपुरा

पेड़ों की मौत

अखिलेश सिंह

दुःख से कैसा छल

ज्याेति शोभा

पलाश

मनोज कुमार पांडेय

तुम्हारा होना

राही डूमरचीर

घर

बद्री नारायण

आलिंगन

अखिलेश सिंह

टूटी नाव

गोविंद निषाद

आषाढ़

अखिलेश सिंह

मकड़जाल

संदीप तिवारी

फागुनी हवाएँ

अखिलेश सिंह

बहन

विजय राही

लोक गायक

प्रभात

छठ का पूआ

रामाज्ञा शशिधर

पारिजात

प्राची

हम और दृश्य

रूपम मिश्र

जाग मछंदर

दिनेश कुमार शुक्ल

फागुन का गीत

अजित पुष्कल

नदियों के किनारे

गोविंद निषाद

संबंध

अरुण कमल

सिलबट्टा

हेमंत कुकरेती

जाल, मछलियाँ और औरतें

अच्युतानंद मिश्र