साहित्य और संस्कृति की घड़ी
फ़रवरी का महीना बीते कुछ ही दिन हुए। अभी ठंड मौसम से गई नहीं। रात के अँधेरे में मोहल्ले के घरों की बत्तियाँ बूझा दी गईं। सभी अपने घरों में सोने जा चुके होंगे। ऐसे में भौ-भौ की आवाज़ होते ही शहबाज़ कमर
जाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था। घर में ही एक कोना दे दिया गया, जैसे किसी मुट्ठीभर उम्मीद को दरकिनार कर दिया गया हो। सोफ़ा बिस्तर बन गया, जो कमरा कभी साझा हँसी और कहानियों से भरा होता था, वह अब
चार पैंतालीस की पैसेंजर ट्रेन रवाना कर नदेरचाँद ने नए सहकारी को बुलाकर कहा—मैं चला जी! नए सहकारी ने एक बार मेघ से ढँके आसमान की ओर देखा और बोला—हाँ-हाँ। नदेरचाँद बोले—अब और बारिश नहीं होगी, क्
कल रात बारिश और आँधी आई थी तो मौसम ने भी प्रतिदिन की आदत को छोड़ते हुए हम पर रहम किया और सूर्य देवता काफ़ी देर तक ग़ायब ही रहे तथा बादलों ने ख़ुद को ढाल बनाकर हमें शीतलता प्रदान की। महेंद्रगढ़, ऐसी ज
रेल की पटरियाँ दूर तक फैली थीं। प्लेटफ़ॉर्म की उखड़ी हुई खपरैल समय की मार झेलती हुई-सी लगती थीं। आज से ठीक सौ साल पहले लखनऊ के ऐसे ही स्टेशन पर आठ-डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन पर क्रांतिकारियों क
बहुत याद करने पर भी और बहुत मूड़ मारने पर भी पिछले दिनों ठीक-ठीक यह याद नहीं आया कि उस दिन हमारे घर में कौन-सा आयोजन था। हाँ, यह ख़ूब याद है कि उसी बरस किसी महीने दादी मरी थीं; पर यह याद नहीं आता कि वह
क्या प्रेम अपने चरम पर पहुँचकर स्वयं की विफलता में ही अपने शाश्वत अर्थ को उद्घाटित करता है? आस्था, प्राप्ति और पराजय के बीच बने चक्रव्यूह को लांघने में असफल आत्म ही उस पात्रता को प्राप्त करता है, जिस
मूर्खताओं के उदाहरण से हमारी सदी पटी हुई है और अब मूर्खताएँ हिंसा में बदल गई हैं। यह कहते हुए कोई सुख नहीं होता और न ही कोई चुटकुला सूझता है। व्यंग्यों के आधिक्य के बीच कभी-कभी क्रूर अभिधात्मकता की ओ
“हर शाम हम सूर्य को धीरे-धीरे क्षितिज के पीछे डूबते हुए देखते हैं। हम जानते हैं कि हमारी पृथ्वी सूर्य से दूर जा रही है। फिर भी हमारा यह ज्ञान और यह वैज्ञानिक व्याख्या, डूबते हुए सूरज को देखने के हमार
हिंदी साहित्य में भाभी जिस रूप में उतरी है, उसमें सत्य से अधिक सुहावनापन है। आज भी पुरुष की बहुपत्नीक और स्त्री की बहुपति प्रवृत्तियाँ, जो तहज़ीब के नीचे से अब भी रिसती रहती हैं और साहित्यदानों में द