साहित्य और संस्कृति की घड़ी
18 अप्रैल 2025
हिन्दवी कैंपस कविता—‘हिन्दवी’ का एक विशेष आयोजन है। इस आयोजन के माध्यम से देश के विभिन्न शैक्षिक संस्थानों के साथ-सहयोग से वहाँ के छात्रों को साहित्य-सृजन के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जाता ह
रात की बारिश रात के चौथे पहर से बारिश का आख़िरी टुकड़ा लटक रहा है लैम्पपोस्ट पर क़ायम हुई थकन पत्तियों पर चमकती गीली रौशनी एक गुज़रती गाड़ी सड़क पर जमा पानी के चिरते चले जाने की आवाज़ रात की बारिश
दूसरी कड़ी से आगे... उन दिनों अमूमन सर्दी-गर्मी की छुट्टियाँ ननिहाल में बीतती थी। नाना को साहित्य, संगीत, गीत से प्रेम है। उनके इस प्रेम का शिकार मामा-मौसी के बाद सबसे अधिक हम और भाई हुए। ठंड की भ
बुधवार की बात है, अनिरुद्ध जाँच समिति के समक्ष उपस्थित होने का इंतज़ार कर रहा था। चौथी मंजिल पर जहाँ वह बैठा था, उसके ठीक सामने पारदर्शी शीशे की दीवार थी। दफ़्तर की यह दीवार इतनी साफ़-शफ़्फ़ाक थी कि
“आप प्रयागराज में रहते हैं?” “नहीं, इलाहाबाद में।” प्रयागराज कहते ही मेरी ज़बान लड़खड़ा जाती है, अगर मैं बोलने की कोशिश भी करता हूँ तो दिल रोकने लगता है कि ऐसा क्यों कर रहा है तू भाई! ऐसा नहीं
13 अप्रैल 2025
• गत बुधवार ‘बेला’ के एक वर्ष पूर्ण होने पर हमने अपने उद्देश्यों, सफलताओं और योजनाओं का एक शब्दचित्र प्रस्तुत किया। इस शब्दचित्र में आत्मप्रचार और आभार की सम्मिलित शैली में हमने लगभग अपना ही प्रशस्ति
दिल्ली की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी के बीच देश-काल परिवर्तन की तीव्र इच्छा मुझे बेंगलुरु की ओर खींच लाई। राजधानी की ठंडी सुबह में, जब मैंने इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से यात्रा शुरू की, तब मन क
पहले पन्ने पर लेखक ने इस उपन्यास (‘मरिचझाँपि को छूकर बहती है जो नदी’) का मर्म लिख दिया है—“विभाजन, विस्थापन एवं पुनर्वासन की एक विस्मृत कथा”। यह पंक्ति पढ़ते ही आप सहज से थोड़े सजग पाठक में बदल जाते
पहली कड़ी से आगे... हमने जैसे-तैसे पाँचवीं कक्षा पास कर ली, या ऐसे कहें कि मास्टर की पोती होने के एवज में हमें पाँचवा दर्जा डका दिया गया और हम से किसी ने यह न पूछा कि क्या आप पाँचवी पास से तेज़ है
आज ‘बेला’ का जन्मदिन है। गत वर्ष वे देवियों के दिन थे, जब हिन्दी और ‘हिन्दवी’ के व्यापक संसार में ‘बेला’ का प्राकट्य हुआ था। देवियों की उपस्थिति और कला—रूप और कथ्य दोनों ही स्तरों पर—अत्यंत समृद्ध