साहित्य और संस्कृति की घड़ी
ये लेख मूलतः एक किताब पर आधारित है। उस किताब में दी गई जानकारियों को यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसा दो-तीन कारणों से किया जा रहा है। एक तो ये कि वो किताब उर्दू में है, इसलिए हिंदी-पाठको
‘‘एक ज़माने पहले की बात है’’, लेकिन वो कौन-सी बात है जिसके बदलने से ज़माना बदल जाता है? ज़माना, जब कॉटन के साथ पॉलिस्टर मिलाया जाना बहुत प्रचलित बात नहीं थी, जब ‘टाटा-बिरला’ शब्द-युग्म लोकप्रिय मुहावर
बचपन का इलाहाबाद बहुत खुला-खुला था। उसकी सड़कें खुली और ख़ाली थीं। सड़कों के अगल-बग़ल बाग़, जंगल और पेड़ बहुत थे। एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले तक की दूरी तब बहुत लंबी और वीरान हुआ करती थी। हमारी तरफ़ से आ
27 अप्रैल 2025
• विषयक—‘‘इसमें बहुत कुछ समा सकता है।’’ इस सिलसिले की शुरुआत इस पतित-विपथित वाक्य से हुई। इसके बाद सब कुछ वाहवाही और तबाही की तरफ़ ले जाने वाला था। • एक बिंदु भर समझे गए विवेक को और बिंदु दिए गए
चमत्कार घटित होते हैं। एक दिन अप्रत्याशित ढंग से उसके काँधे पर एक कोमल और प्रेमिल स्पर्श इस क़दर हल्का आकर उतरता है कि उसके काँधे हमेशा के लिए उचक जाते हैं। वह स्पर्श ताउम्र उसके जीवन में एक फूल ब
22 अप्रैल 2025
पहली कड़ी से आगे... इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था। दोपहर हो गई थी। बिस्तर मेरे भार से दबा हुआ था। मुझे उसे दबाएँ रखने की आज की मियाद पूरी हो गई थी। वह बिस्तर ओवरटाइम काम कर रहा था। जब उसे लगा कि मै
21 अप्रैल 2025
बरस 1947 है, तारीख़ 14 अगस्त, दिन गुरुवार, रात का समय। जब जवाहरलाल नेहरू अपना चुस्त पजामा और शेरवानी पहन रहे थे, संसद में देने वाले थे अपना ऐतिहासिक वक्तव्य। उसी वक़्त मेरे परदादा खेत के मुँडेर
20 अप्रैल 2025
• गत सौ-सवा वर्षों की हिंदी कविता पर अगर एक सरसरी तब्सिरा किया जाए और यह जाँचने-जानने के यत्न में संलग्न हुआ जाए कि हमारी हिंदी दूसरी भाषाओं में उपस्थित सृजन के प्रति कितनी खुली हुई है; तब यह तथ्य एक
मैं आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, इस कार्यक्रम के आयोजकों और नियामकों का जिन्होंने मुझे आपके रूबरू होने का, कुछ बातें कर पाने का मौक़ा दिया। मेरे लिए यह मौक़ा असाधारण तो नहीं, लेकिन कुछ दुर्लभ ज़रूर है। ल
एक मैं उन दुखों की तरफ़ लौटती रही हूँ, जिनके पीछे-पीछे सुख के लौट आने की उम्मीद बँधी होती है। यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे समंदर का भार कछुओं ने अपनी पीठ पर उठा रखा हो और मछली के रोने से एक नदी फूट पड़े