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पटना पुस्तक मेला : भर्त्सना के शिल्प में

मूर्खताओं के उदाहरण से हमारी सदी पटी हुई है और अब मूर्खताएँ हिंसा में बदल गई हैं। यह कहते हुए कोई सुख नहीं होता और न ही कोई चुटकुला सूझता है। व्यंग्यों के आधिक्य के बीच कभी-कभी क्रूर अभिधात्मकता की ओर लौटना ही इकलौता रास्ता बन जाता है। फिर हमारा काव्य-विहीन समय जहाँ मूर्खता-विद्रूपता उत्सव में बदल गई है और अब अपनी मूर्खताओं को जायज़ मनवा लेने के हठ के इतने उदारहण भर गए हैं कि कई बार सिर्फ़ सोचने भर से एक अनंत थकान हो जाती है। 

पटना पुस्तक मेला, कम से कम, एक लोकतांत्रिकता का अनुभव कराता तो प्रतीत होता था। वैसे ही एक घनी गंभीरता का अगर अभिनय भी था, तो यह एक सुंदर परफ़ॉरमेंस था जहाँ से एक राज्य, एक समाज, एक जनता की सांस्कृतिक और साहित्यिक समझदारी प्रेषित होती थी। सिर्फ़ छलावे नहीं, कुछ ठोस। एक सुंदर युति जिसका साल भर इंतज़ार किया जा सकता था और एक सुंदर संयोजन जहाँ एक भी सुर टेढ़ा नहीं लगता था। एक ऐसी गर्माहट भरी हिस्सेदारी जिसमें आयोजक और पाठक, दोनों बराबर सम्मिलित रहते और पटना के समाज की अंतरंगता बार-बार दिखाई देती। लेकिन जिसने भी मेले को नज़दीक से देखा है, वह जानता है कि इस सुंदरता का बिगाड़ भी हमेशा से बहुत आसान था। और सिर्फ़ आयोजकों की लापरवाही से नहीं। तुरंता-महत्त्वाकांक्षा, छटपटाती मूढ़ता, हल्कापन, वैचारिक मिलावट और हिंसक नेटवर्किंग वर्तमान को परिभाषित करती है और एक साथ हमला करती हैं और गहरी हानि पहुँचाती हैं। इसके एक से अधिक प्रस्फुटन इस बार लोगों को दिखाई देते रहे और जिसने पटना पुस्तक मेले के चरित्र को भी थोड़ा धूमिल तो किया।  

साहित्य ‘सबस्टेंस’ की चीज़ है और सत्ताएँ चाहती हैं कि उनको संख्याओं में बदल दिया जाए। बिना उसके वे ‘एक्ट ऑफ़ राइटिंग’ का मज़ाक़ नहीं उड़ा सकतीं। लिखने की पूरी प्रक्रिया किन चुनौतियों से भरी है, वह लिखने वाले से क्या माँग करती है और उसके लिए एक लेखक किन राजनीतिक-सांस्कृतिक मुश्किलों से जूझता है, यह बताना कठिन है क्योंकि यह सीधा मनुष्य होने मात्र के अनुभव से जुड़ा है। जैसे रामायण, वाल्मीकि का अपने सेल्फ़ से बाहर निकलना और चकवा-चकवी के दुख को महसूस करना है सबसे पहले। बिना इसको पाये, राम का विरह लिख पाना, संभव नहीं है। लेखन कोई ‘नार्सिस्टिक एक्सप्रेशन’ नहीं है, इसके ठीक विपरीत है—‘आत्म-निषेध’। ‘मैं’ की जयकार नहीं, ‘मैं’ की हत्या। ‘एक्ट ऑफ़ राइटिंग’ को कमतर करने का, उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने का, उस पर हमला करने का एक तरीक़ा यह भी है कि उसकी गंभीरता, संवेदना और वैज्ञानिकता पर चोट की जाए और यह सिर्फ़ मूर्खता से संभव नहीं, सोची-समझी मूर्खता और उससे भी ज़्यादा उसके अति प्रदर्शन और सही पैकेजिंग से ही संभव है। यह भी समझना होगा कि ‘मार्किटेबल प्रोडक्ट’ की ज़रूरत से ऊपर उठता बाज़ार, अब ‘प्रॉमिस ऑफ़ ए प्रोडक्ट’ के हिसाब से अपने को डिज़ाइन करता है और ओटीटी के सब्सक्रिप्शन से लेकर लिबरल डेमोक्रेसीज़ तक इसी फ़ंडे पर काम करती हैं, जहाँ प्रोडक्ट होता नहीं और व्यक्ति अफ़ीम के नशे की तरह भीड़ को उसका वादा सुनाता और फ़ायदे गिनाता रहता है, उसको पाना चाहता है। जैसे यही तरीक़ा, सिनेमा में ‘मर्द’ नायक का चित्र गढ़ने से लेकर मर्दाना कमज़ोरी से निजात दिलाने के वायदे स्थापित करने में भी इस्तेमाल होता है। 

एडोर्नो के ‘कल्चर इंडस्ट्री’ को लेकर दिए आख्यान यहाँ अब पुनर्व्याख्याओं की माँग करते हैं। यहाँ यह भी सोचना चाहिए कि सत्ताएँ किन तंत्रों, मशीनों और व्यक्तियों के ज़रिये काम करती हैं। अभी का समय, इस षड्यंत्र का है कि हर वह संस्था, व्यक्ति, चीज़ जो प्रतिरोध की संस्कृति विकसित कर सकती है, उसको बेतरह हल्का किया जाए। गाहे-बगाहे, जाने-अनजाने, मनुष्य का मन और शरीर इसमें इस्तेमाल होता है; क्योंकि वह ख़ुद भी एक चीज़, एक टूल में बदल चुका है। लेकिन यह पुरानी बात है। नई प्रवृत्ति यह है कि अब समाज का अधिकांश इस प्रवृत्ति में उल्लास और संभावनाओं को खोज चुका है और इसी की सवारी कर रहा है। क्या इसका समर्थन और इसको लेजिटिमेसी प्रदान करना अपने में अपराध नहीं है और क्या हम सब लोग इसके दोषी नहीं हैं? कम से कम वे तो ज़रूर हैं, जो सायास मुक्त कंठ से इस प्रवृत्ति के पक्षधर बने हुए हैं? और चूँकि यह प्रवृत्ति सर्वव्याप्त है, इसके उदाहरण रिलेटेबिलिटी, अध्यात्म, आस्था आदि का पर्दा लिए, ख़ूब फल-फूल रहे हैं। इन पर व्यंग्य हो, इनका मख़ौल बने, यह तो बुद्धिजीवी समाज का दायित्व है ही, इसको गंभीरता से चिह्नित करना और इसके मानी समझना भी ज़रूरी है। चूँकि यह प्रवृत्ति है और इसका एक भव्य उदाहरण भले ही पटना पुस्तक मेले में दिख गया, इसके माइक्रो-इंट्रूशन को भी देखना होगा।

मेला मिलने-जुलने की जगह है, यह ठीक बात है। लेकिन गंभीर न होने और हल्का होने में फ़र्क़ होता है। ख़ासकर तब, जब हल्का होना, दिखना अब सीधा आपको सत्ता की राजनीति से जोड़ता है। फिर ‘पुस्तक मेला’ में ‘पुस्तक’ शब्द भी आता है। यहाँ स्पेस/जगह की भी भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। जैसे ही आप किसी आयोजन में दो तरीक़े के अलग-अलग स्पेस कार्यक्रमों के लिए निर्धारित करते हैं, उनका निर्माण कहाँ हुआ, उनकी स्थिति क्या है, उनका संयोजन कैसे हो रहा है, कहाँ कौन-से कार्यक्रम हो रहे हैं, ये एक हाईरारकी से बँध जाते हैं और कोई भी निर्धारण निर्दोष नहीं रह जाता। इस नाते भी इस बार आश्चर्यजनक रूप से पटना पुस्तक मेले ने निराश किया। अभी तक ऐसा नहीं होता था। वक्ता-विषय समरूपता बहुत थोड़ी मिली, ढुलमुल संचालनों ने नीरसता पैदा की और साहित्य सीधे-सीधे प्रसिद्धि और पॉपुलिज्म से जुड़ता रहा; जहाँ किसी तरह की वैचारिक उष्णता की जगह ही नहीं बची। ‘मिलावट’ शब्द इसको सबसे ठीक से बताता है। यह आश्चर्य इसलिए भी कि पटना पुस्तक मेला, बिहार का सांस्कृतिक प्रतीक है, शहर का सबसे बड़ा साहित्यिक आयोजन और शायद सबसे ज़रूरी भी। अगर कुछ नाम और उदाहरण गिनाए जाएँ तो यहीं शहर के लोगों ने तसलीमा नसरीन को देखा। यहीं केदार जी को सिर्फ़ एक झलक देखने के लिए लगभग हज़ार लोगों की भीड़ खड़ी थी। क्या आयोजक भी एक समारोह की भव्यता से व्यथित और प्रभावित रहे या सायास इसलिए गंभीर आयोजनों के होने को या तो अनुमति और जगह नहीं दी गई या उन्हें कमतर बनाया गया? यह ज़ाहिर है, सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि ऐसे प्रयोजनों की तीखी भर्त्सना की जाए जो ‘एक्ट ऑफ़ राइटिंग’ को कमतर बनाते हैं और समाज के तौर पर हमारी छवि को नुक़सान पहुँचाते हैं। हम लोग भले ही इतिहास, कमाल, बेजोड़ और इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करते रहे हों; हम सब इसमें शामिल हैं और इसकी ग्लानि हमें होनी चाहिए।  

बतौर कवि, यह मेरा काम बनता है कि मैं इन बातों को चिह्नित करूँ कि मेरी अपनी निर्मिति में इस मेले का, इसमें मिले लेखकों का और पटना पुस्तक मेले की संस्कृति का अहम योगदान है और अपनत्व और इंटिमेसी का अर्थ मैंने मेले से ही जाना है। साहित्य में आख़िर सहित का भाव होता है, न कि अन्य का। मूर्खताओं से बचना ही चाहिए और उनकी निर्मिति को उजागर भी करना चाहिए।

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