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‘आधी पंक्ति’ में पूरा प्रेम

क्या प्रेम अपने चरम पर पहुँचकर स्वयं की विफलता में ही अपने शाश्वत अर्थ को उद्घाटित करता है? आस्था, प्राप्ति और पराजय के बीच बने चक्रव्यूह को लांघने में असफल आत्म ही उस पात्रता को प्राप्त करता है, जिसके लिए मानवीय संवेदनाओं के तमाम द्वार और उसके चरम अपने वास्तविक स्वरूप में उपस्थित हों और जो प्रेम के उस अर्थ को समझ सके जो मनुष्य होने की गाथा का मूल है? अंचित का काव्य-संग्रह ‘आधी पंक्ति’ पढ़ते वक़्त मेरे मन में यह प्रश्न बार-बार घुमड़ता रहा।

कवि अंचित का यह संग्रह अनायास अस्तित्ववादी विमर्श की श्रेणी में खड़ा हो जाता है, जहाँ हानि और अकेलेपन की स्वीकार्यता ही आत्मज्ञान का मार्ग बनती है। जिन अर्थों में इस संग्रह की कविताएँ रची गई हैं, ये व्यक्तिगत गाथा से ऊपर उठकर आधुनिक मनुष्य की संवेदनात्मक ईमानदारी का वह दस्तावेज़ बन जाती है, जो विरह की अनिवार्यता को जीवन का सबसे बड़ा सत्य मानता है। यह पुस्तक प्रेम के उस क्षणिक सुख के प्रति कोई मोह नहीं रखती, बल्कि उस दीर्घ दुख को अपनाती है जो कवि के दिन के सभी प्रहरों पर पसरा है। कवि यहाँ केवल प्रेमी नहीं, बल्कि एक निर्भीक दार्शनिक है जो अपने भीतर की कायरता और स्वार्थी प्रेम को स्वीकारने की ग्लानि से गुज़रता है।

अंचित के लिए, दुःख इसलिए भी प्रिय है क्योंकि वह स्मृति को जीवित रखता है और कविता को देह में गहरे बिठाता है। वह वस्ल के एक दिन को हिज्र की तमाम रातों पर भारी पड़ने का दिलासा देता है—यह आशा नहीं, बल्कि स्मृति का हठ है। यह प्रयास उस मानवीय विवशता का मूर्त रूप है, जिसे महान् फ़्रेंच उपन्यासकार मार्सेल प्रूस्त ने गहनता से रेखांकित किया था—“जिस दिन हमारा कष्ट समाप्त हो जाएगा, उस दिन हमारी यादें हमसे दूर हो जाएँगी। हम उनसे तभी तक बँधे रहते हैं, जब तक हम पीड़ा में होते हैं।”

मौज़ूँ सवाल यह है कि तमाम विसंगतियों, अवरोधों, टूटन के ऐतिहासिक बोझों के निष्कर्ष का प्राप्त इस कालखंड में खड़े रह पाने तक का संघर्ष करने को विवश व्यक्ति जब इन कविताओं को पढ़ेगा तो वह इससे क्या समझेगा, क्या इससे उसे राहत मिलेगी? बिल्कुल नहीं और अंचित की इन कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यही है—यह किसी भी प्रकार की सांत्वना नहीं देता। यह पाठक को बेहतर महसूस कराने नहीं आया है; यह उसे उसी असहज सत्य के सामने खड़ा कर देता है जहाँ कवि स्वयं खड़ा है—न पूरी तरह टूटा हुआ, न पूरी तरह बचा हुआ।

यह संग्रह प्रेम का उत्सव मनाने नहीं आया है—यह प्रेम के बाद बचे हुए मनुष्य की गवाही देने आया है। यह प्रेम के बाद की लंबी, थकी हुई आत्मकथा है। यह प्रेम, विरह और द्वंद्व का एक जटिल दस्तावेज़ है, जहाँ प्रेमी और कवि का संघर्ष अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचता है। इसकी सबसे बड़ी शक्ति इसकी निडर ईमानदारी है—वह ईमानदारी जो जटिल बिंबों, गहन वियोग और असुविधाजनक सत्यों के साथ पाठक को अकेला छोड़ देती है।

प्रेम कविता लिखने वाले कवि के साथ आज का समय न्याय नहीं कर पाता, यह जोखिम जानते हुए भी अंचित इन कविताओं को इसलिए लिख पाए क्योंकि उन्हें ईमानदार रहना था। अंचित की कविताएँ केवल एक व्यक्ति के व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं, बल्कि यह एक पूरी पीढ़ी, एक सामाजिक यथार्थ और एक सांस्कृतिक धारा के बारे में बात करती हैं।

सवाल यह है कि संवेदनाओं के बीच पला बढ़ा एक व्यक्ति, संवेदनाओं को जी रहा एक व्यक्ति जब इस समय को जिएगा, जब चारों तरफ़ विध्वंस, दमन की गाथा को रोज़ अपनी नंगी आँखों से घटित होते देखेगा, जब उसके बोलने, लिखने और सोचने तक को चिह्नित किए जाने का भय होगा तो फिर वह अपनी प्रतिक्रिया किस तरह देगा। बंद कमरों में ख़ुद को छुपा लेगा या खुली सड़कों पर नग्न घूमेगा। या फिर अपने निजी टूटन, तड़प, उपेक्षा और हार को कैनवास पर उतारते हुए सारी नग्नता को उकेर देगा। अंचित ने यही किया है और तभी खुले शब्दों में कहते हैं कि “सच के ध्वंस के बाद भी आप सच में भरोसा कैसे करते हैं? और फिर कला तो सिर्फ़ झूठ ही है।” और यह एक गद्यात्मक कविता की पहली पंक्ति है जिसका शीर्षक है “समंदर जैसी लड़की।” और इसी शीर्षक वाले पन्ने के आख़िर में जब वे यह कहते हैं कि “कोई मुझसे कहता है कि मैं क्लिष्ट होता जा रहा हूँ तो मैं कहता हूँ कि समझे जाने की कोशिश मैंने छोड़ दी है।” और यह कहते-कहते अंचित इस पूरे समय, पूरे दमन, पूरे विध्वंश को नग्न कर देते हैं। साहित्य का व्यक्ति, एक कवि के बस में बस यही है, काश यह ज़िम्मेदारी सभी निभा पाते!

दुनिया के तमाम हिस्सों में जब भी मानवता संकट में आई है, जब रास्ते सीमित हो गए हैं, सबसे पहले खुले आसमान में काग़ज़ क़लम पकड़े लोगों ने साहस किया है, जीने की ज़िद में मरने का जोखिम उठाया है, अंत होते देखते रहने से इंकार किया है, और फिर उसे विद्रोह कहा जाए या क्रांति उसकी पहली पंक्ति लिखी है जो भले ही उस वक़्त, उस क्षण आधी हो। और यह अंचित जैसे उस व्यक्ति के लिए ज़्यादा सहज हो जाता है जो प्रेम को सिर्फ़ निजी आग्रह, आवश्यकता नहीं समझते हों बल्कि जो यह मानते हों कि यदि इस दुनिया को बची रहनी है तो उसका अंतिम आश्रय, राह प्रेम ही है। इस प्रेम कविता वाले संग्रह ने यह काम कितनी संजीदगी और ख़ूबसूरती से किया है इसे आप ‘मीर-शिकार टोली’ शीर्षक के अंतर्गत आईं इन पंक्तियों से समझिए—

“हम ध्वंस जानते थे सो ध्वंस की कविताएँ लिख रहे थे। हम मोहब्बत में धोखा खाए हुए लोग थे और हम ज़िंदगी का जुआ समझ तो नहीं पाते थे पर उसी तरह जिया करते थे।

हम कविता से मोहब्बत करते और ठंडी जलन से मरा करते कि कविता दूसरों के साथ सो रही थी। कविता का मतलब ज़िंदगी था और ज़िंदगी का मतलब सिर्फ़ कविता।
हमें सर्वहारा का राज चाहिए और बिना टैक्स की धरती। हमें ख़ुद के लिए नहीं, ख़ुद से भागना था। हमें सूरजमुखी चाहिए और पुराने कवियों की तारीफ़।

कितना हसीन है इस शहर का होना कि एक दरिया है और इसके साथ चलता हुआ अवसाद बहता है। हम अपनी पीढ़ी के सबसे शानदार लोग थे, यानी अपने समय के सबसे बेकार, आवारा, फ़ालतू।”

अंचित की कविताएँ उस धरातल पर लिखी गई हैं जहाँ प्रतीक्षा, प्रेम और आस्था—तीनों की संभावनाएँ समाप्त हो चुकी हैं और मनुष्य केवल अर्थहीन वर्तमान में खड़ा रह जाता है। यह बंजर ज़मीन किसी भौगोलिक स्थान से अधिक हमारे समय की नैतिक, स्मृतिक और संवेदनात्मक रिक्तता का प्रतीक है, जहाँ न स्मृति बची है, न प्रतिरोध और न ही किसी मुक्ति की आकांक्षा। यह न वह भूमि है जहाँ बलिदान अर्थ रचता है, न वह जहाँ तानाशाहों को चुनौती दी जाती है; यह एक ऐसा निष्प्राण समाज है जहाँ द्वेष, विद्रोह और आस्था तक पलायन कर चुके हैं। अंचित की कविताएँ भावुक नहीं करती, बल्कि पाठक को असहज सच्चाई के सामने खड़ा करती है, और इसी कारण यह हमारे समय का एक सशक्त दस्तावेज़ बन जाती है। और यह किस हद तक है यह उनकी ‘प्रतीक्षा प्रसंग’ कविता की इन पंक्तियों से समझिए—

“नहीं जानता मैं ख़ुद कि इस बंजर ज़मीन का क्या होगा।
यह संभावना जाती रही कि कुछ उगेगा यहाँ
जिसमें किसी को कुछ देने योग्य कुछ होगा।
यहाँ स्मृतियों का कोई चिह्न भी नहीं बचा,
एक बूँद नमी भी नहीं
कोई भूले-भटके से आ भी गया इधर
तो सिर्फ़ निराशा मिलेगी और मृत्यु-दंश।
इतनी ख़ाली है यह जगह कि
लंबे काले साँप भी जा चुके हैं अपने बिल छोड़कर
आस्था के घेरे में बैठे अपनी जुगुप्साओं से लड़ते
किसी स्वघोषित मसीहा की कोई छाया भी नहीं।
यह वह रेगिस्तान नहीं है
जिसने किसी को सलीब की नेमत अता की थी
वह भी नहीं जहाँ किसी तानाशाह की बैत ठुकरा दी गई।
अपनी लालसाओं से छीन ली गई इस जगह पर
सिर्फ़ व्यापार किया जा सकता है
इसमें न प्रेम है न प्रतीक्षा का कोई प्रसंग।”

यह संग्रह किसी सुखद स्मृति का उत्सव नहीं है, बल्कि एक दीर्घ दुख का आख्यान है जो कवि के होने के हर क्षण पर छाया हुआ है। कवि इस पीड़ा को केवल सहता नहीं, बल्कि उसे गले लगाकर अपनी कविता का गहना और जीवन का अर्थ बनाता है। कवि जानता है कि कला का जन्म आत्म-विनाश के गर्भ से होता है, इसलिए ‘कायरता’ कविता अकेलेपन और निराशा के अनुभवों को रचनात्मकता के जन्म से जोड़ती है, यह दर्शाते हुए कि जीवन की क्षणभंगुर सुंदरता और अपूर्णता ही कवि या जागरूक व्यक्ति के निर्माण का आधार बनती है। “मर जाते हैं सौ कायर तो एक कवि पैदा होता है”—यह विचार उस महान् दार्शनिक अंतर्दृष्टि से मेल खाता है जिसे अल्बेयर कामू ने अपने दर्शन में प्रस्तुत किया था—“मध्यम दर्जे का आदमी केवल अपनी नियति से भागता है; महान् आदमी उसे अपनी नियति के रूप में स्वीकार करता है।”

अंचित की कविताएँ उस महान् आदमी की नियति को स्वीकारती हैं। वह स्वीकार करता है कि ‘जो नहीं लौटेगा’ वही उसका गीत है। यह प्रेम की हानि नहीं, बल्कि उस हानि में पाए गए स्वयं के सत्य की कविता है।

संग्रह में ‘नर्तकी’, ‘चुम्बन’ और ‘संभोग’ जैसी रचनाओं में व्यक्त शारीरिक उत्कटता केवल कामुकता नहीं है, बल्कि विस्मृति के विरुद्ध स्मृति का एक दार्शनिक विद्रोह है। कवि शरीर की गंध, स्पर्श और क्षणिक सुख को अमरता प्रदान करना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि यही क्षणिक वस्ल ‘हिज्र की शबों’ (जुदाई की रातों) पर भारी पड़ेगा। वह प्रेमिका से आग्रह करता है कि वह उससे ‘इस तरह प्रेम करे जैसे कवि के जीवन की आख़िरी रात हो’। यह शारीरिक और भावनात्मक ईमानदारी, कविता को एक आध्यात्मिक आयाम देती है। यह केवल एक रिश्ते के ख़त्म होने का दुख नहीं है, बल्कि मानवीय नश्वरता के सामने प्रेम को बचा लेने की एक अंतिम, ज़ोरदार चेष्टा है। यह उस साहित्यिक परंपरा को पुष्ट करता है जहाँ प्रेम का अनुभव जीवन और मृत्यु के बीच की रेखा पर खड़ा होता है, जैसा कि मार्केज़ ने अपने उपन्यासों में दर्शाया है—“याद रखो कि सिर को दिल के इतना क़रीब लाने की शर्त यह थी कि हम मर जाएँगे।”

अंचित की कविताएँ उस क्षणिक वस्ल की स्मृति में जीने का वादा करती हैं, जो मृत्यु के बाद भी जीवन को अर्थ दे सकता है। अंचित का प्रेम किसी आदर्शवादी स्वप्न जैसा नहीं है। यह प्रेम एक अस्थिर, दुखद और जटिल प्रक्रिया है—जो शोक, सामाजिक विद्रूपताओं और सांस्कृतिक दबावों से निरंतर टकराता है। यहाँ प्रेम की सार्थकता उसकी प्राप्ति में नहीं, बल्कि उसकी शाश्वत अनुपस्थिति में निहित है।

इस संग्रह में प्रेम और दुख को शाश्वत भावों की तरह नहीं, बल्कि सामाजिक, मानसिक और शारीरिक यथार्थ के रूप में देखा गया है। जहाँ प्रेम एक ओर शुद्ध, आध्यात्मिक और सौंदर्यात्मक अनुभव है, तो दूसरी ओर वह धोखा, ग्लानि, नफ़रत और टूटन का कारण भी बनता है। यह प्रेम किसी आदर्श युगल का स्वप्न नहीं है। यह स्मृति से जन्म लेता है, स्मृति में पलता है और स्मृति से ही यातना ग्रहण करता है।

अंचित इस संग्रह में कई जगह गद्यात्मक हुए हैं। इन्होंने टूटे हुए शब्द, टूटन को ही कविता का आधार बनाया है। पीड़ित संवेदना और प्रेम ही दरअस्ल वह अपेक्षित विस्तार देता है, जहाँ आप एक निष्कर्ष ढूँढ़ने की कोशिश कर सकते हैं। नाजी शासन से दूर भागकर अमरीका जा बसे एरिख़ फ़्रॉम ने कभी कहा था कि “प्रेम मुख्य रूप से किसी विशिष्ट व्यक्ति से संबंधित नहीं है; यह एक दृष्टिकोण, चरित्र का एक अभिविन्यास है जो व्यक्ति के संबंध को संपूर्ण दुनिया से निर्धारित करता है, न कि प्रेम के किसी एक ‘वस्तु’ से।”

प्रेम दरअस्ल निजी भावनात्मक प्रतिक्रिया के बजाय नैतिक स्थिति और एक चरित्र अभिविन्यास है और अंचित की यह किताब इसे स्पष्ट करती है। घटित, अघटित स्मृतियाँ और उनसे फलीभूत चेतन, अचेतन प्रतिक्रियाओं के मध्य अंचित इस संग्रह को हमारे समय का दस्तावेज़ बना देते हैं। यही उनकी यात्रा है। अंचित के लिए, प्रेम का यह चरित्र अभिविन्यास केवल एक सिद्धांत नहीं है, बल्कि अस्तित्व की उन तमाम विसंगतियों से मुक्ति का सक्रिय सूत्र है, जिनसे आधुनिक व्यक्ति घिरा हुआ है। कवि प्रेम को एक ‘बचाव’ के रूप में देखता है, एक ऐसी शक्ति जो आत्म-विनाश के कगार पर खड़े व्यक्ति का निरंतर रक्षा करती है। हालाँकि, इस ‘बचाव’ की प्रकृति इतनी गहन, व्यक्तिगत और आंतरिक है कि यह किसी भी भाषाई परिधि या अभिव्यक्ति के व्याकरण से परे है। जैसा कि जेम्स बाल्डविन—जिन्होंने प्रेम, संघर्ष और पहचान के बारे में गहनता से लिखा—ने कहा है : “सभी लोग जानते हैं कि प्रेम से मुक्ति मिलती है... यह एकमात्र सत्य है जिसे हम जानते हैं और यदि यह सत्य नहीं है तो हमारी और कोई आशा नहीं है।”

‘वाजिब’ कविता की अंतिम पंक्तियाँ इसी सत्य को स्पष्ट करती हैं—

“तुमने मुझे कितनी बार बचाया है,
कोई भाषा कभी कह न सकेगी।”

यह स्वीकारोक्ति प्रेम को किसी संकीर्ण निजी अनुभव से उठाकर एक दैवीय हस्तक्षेप के समकक्ष खड़ा करती है, जिसका लेखा-जोखा शब्दों के सीमित संसार में संभव नहीं है। प्रेम यहाँ केवल एक भाव नहीं है, बल्कि वह मौन आश्वासन है जो कवि के भीतर उस शाश्वत सत्य को जीवित रखता है, जिसके अभाव में मनुष्य का समूचा अस्तित्व बिखर जाता। यह उस उद्धार की गवाही है जो शब्दों के कोलाहल से परे, जीवन के मर्म में बसा है।

‘आधी पंक्ति’ प्रेम की सिर्फ़ निजी या भावुक कथा नहीं है। यह मात्र किसी प्रेम-गाथा का अवशेष अथवा भावुक प्रलाप नहीं, अपितु उस कालखंड की दार्शनिक अपरिहार्यताओं का गहन साहित्यिक उपसंहार है, जहाँ व्यक्ति अपने ‘अस्तित्व के वितान’ के अंतर्गत समस्त टूटन की स्वायत्तता को अनिच्छापूर्वक ही सही, किंतु स्वीकारने को विवश होता है। यह संग्रह सांत्वना, पलायन और आत्म-प्रवंचना के मिथकों को अस्वीकार करता है और प्रेम को एक नैतिक तथा वैचारिक प्रतिरोध के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

ये कविताएँ उस मानवीय आत्मा की अपराजित जिजीविषा का उद्घोष करती हैं, जो ध्वंस के मलबे से शाश्वत प्रेम के ‘अंकित-अर्थ’ का वहन कर उसे चुन निकालती है। यहाँ रेनर मारिया रिल्के का कथन स्थापित होता प्रतीत होता है— “क्या आवश्यक है? आवश्यक है केवल एकांत। एक महान्, आंतरिक एकांत। अपने भीतर जाओ और वहाँ घंटों तक किसी से मिलो नहीं—यही वह जगह है जहाँ आपको निर्णय लेना है।” ‘आधी पंक्ति’ इसी एकांत और इसी निर्णय की कविता है। यह प्रेम की संभावित विफलता में भी उसके शाश्वत और अक्षुण्ण अर्थ को उद्घाटित करती है और सिद्ध करती है कि अपूर्णता कोई साहित्यिक दुर्बलता नहीं, बल्कि हमारे समय का सबसे प्रामाणिक सौंदर्य और सत्य है—सांत्वना-रहित, किंतु अत्यंत वास्तविक।

अंतः अंचित की यह कृति महज़ कविताओं का संग्रह नहीं, बल्कि वर्तमान समय की नग्न स्वीकारोक्ति है। यह हमें सिखाती है कि जब दुनिया असुविधाजनक सच्चाइयों से भरी हो, तो कला का काम सांत्वना देना नहीं, बल्कि उस असहजता को पूरी ईमानदारी से दर्ज करना होता है। यह संग्रह प्रेम के टूटने को केवल व्यक्तिगत त्रासदी के रूप में नहीं देखता, बल्कि इसे उस व्यापक सामाजिक और नैतिक पतन के रूपक के तौर पर प्रस्तुत करता है, जहाँ आस्था, प्रतिरोध और यहाँ तक कि साधारण प्रेम की संभावनाएँ भी दम तोड़ चुकी हैं। अपनी इसी निडर ईमानदारी और असुविधाजनक स्पष्टता के कारण, अंचित केवल एक कवि नहीं रह जाते, बल्कि एक ऐसे साक्षी बन जाते हैं जो अपनी निजी पीड़ा को एक पूरी पीढ़ी के सामूहिक अवसाद और संघर्ष में रूपांतरित कर देते हैं। उनकी सफलता इसी बात में निहित है कि वे प्रेम के निजी अनुभव को एक नैतिक अभिविन्यास का दर्जा देते हुए, हमारे समय की एक सशक्त और अविस्मरणीय गवाही प्रस्तुत करते हैं।

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