तेरह दिन की एक आत्मकथा
रहना यहीं था—इसी समाज में, घर के भीतर, घर के बाहर। घर भीतर ढूँढ़ते हुए अब, सब इधर-उधर था। कोई याद अपनी जगह पर नहीं मिल रही है इस जगह। अभी तो रहना है, यह सोचकर यादों को तरतीब देने का मन बना लिया।
प्रेम, लेखन, परिवार, मोह की 'एक कहानी यह भी'
साल 2006 में प्रकाशित ‘एक कहानी यह भी’ मन्नू भंडारी की प्रसिद्ध आत्मकथा है, लेकिन मन्नू भंडारी इसे आत्मकथा नहीं मानती थीं। वह अपनी आत्मकथा के स्पष्टीकरण में स्पष्ट तौर पर लिखती हैं—‘‘यह मेरी आत्मकथा
10 मार्च 2025
‘गुनाहों का देवता’ से ‘रेत की मछली’ तक
हुए कुछ रोज़ किसी मित्र ने एक फ़ेसबुक लिंक भेजा। किसने भेजा यह तक याद नहीं। लिंक खोलने पर एक लंबा आलेख था—‘गुनाहों का देवता’, धर्मवीर भारती के कालजयी उपन्यास की धज्जियाँ उड़ाता हुआ, चन्दर और उसके चरित
रविवासरीय : 3.0 : ‘चारों ओर अब फूल ही फूल हैं, क्या गिनते हो दाग़ों को...’
• इधर एक वक़्त बाद विनोद कुमार शुक्ल [विकुशु] की तरफ़ लौटना हुआ। उनकी कविताओं के नवीनतम संग्रह ‘केवल जड़ें हैं’ और उन पर एकाग्र वृत्तचित्र ‘चार फूल हैं और दुनिया है’ से गुज़रना हुआ। गुज़रकर फिर लौटना हुआ।
यूट्यूब के 20 साल : कुंभ जाते दादा-पोता और मोनालिसा की आँखें
मोबाइल में क्या आएगा, ये कौन तय कर रहा है? दुर्भाग्य से ये अब हमारी सरकारों के हाथ से भी बाहर निकल गया है। आप यूट्यूब पर प्रासंगिक बने रहना चाहते हैं तो उसी विषय पर बात करें जिस पर बात हो रही है। कमा
स्मृति-कथाएँ : जो नहीं है, वो कहीं तो होगा
जिल्द में बँधी पिता की याद दुनिया लुप्त हो रही थी। लोग भूल चुके थे—तितलियों के रंग, चिड़ियों की चहचहाहट। उनसे जब भी चिड़ियों का रंग पूछा जाता था तो एक यंत्र तलाशते थे और तस्वीरें तलाशने लगते थे। वह
कभी न लौटने के लिए जाना
6 अगस्त 2017 की शाम थी। मैं एमए में एडमिशन लेने के बाद एक शाम आपसे मिलने आपके घर पहुँचा था। अस्ल में मैं और पापा, एक ममेरे भाई (सुधाकर उपाध्याय) से मिलने के लिए वहाँ गए थे जो उन दिनों आपके साथ रहा कर
यथार्थ का जादू और जादुई यथार्थवाद
‘अम्बर परियाँ’ बलजिंदर नसराली का तीसरा उपन्यास है। इससे पहले पंजाबी में उनके दो उपन्यास आ चुके हैं। उन्होंने कहानियाँ भी लिखी हैं। उनके दो कहानी संग्रह ‘डाकखाना खास’ और ‘औरत की शरण में’ भी प्रकाशित ह
इहबास में सोलह दिन
मेरे चार दशक के अनुभव ने जीवन में चार चाँद लगा दिए हैं। कुछ दशक तो मेरे लिए एक सदी लिए हुए आए थे, सूरज सरीखे चमकीले, दमकीले और झुलसा देने वाले। दिल्ली के हाइटेक कहे-समझे जाने वाले खस्ताहाल अस्पतालों
रूढ़ियों में झुलसती मजबूर स्त्रियाँ
पश्चिमी राजस्थान का नाम सुनते ही लोगों के ज़ेहन में बग़ैर पानी रहने वाले लोगों के जीवन का बिंब बनता होगा, लेकिन पानी केवल एक समस्या नहीं है; उसके अलावा भी समस्याएँ हैं, जो पानी के चलते हाशिए पर धकेल
'गंध ही के भारन बहत मंद-मंद पौन...'
वसंत इस कामकाजी शहर का मूड नहीं है। संभवतः जनवरी के बाद ही गर्मियों की तैयारी में यह शहर फ़रवरी के मूड को स्किप कर देता है। इस बीच वसंत का आना भी महज़ हवा में कपूर की तरह ही होता है। उदास बयार की छुअन
गिफ़्टेड : एक जीनियस बच्ची के बचपन को बचाने की कहानी
अपनी माँ की भाषा में कहूँ तो गिफ़्टेड एक मामा और भांजी के एक आत्मीय रिश्ते पर आधारित एक फ़िल्म है। मामा यानी माँ का भाई, गिफ़्टेड देखते हुए मुझे अपने मामा की याद बरबस ही आती रही कि कैसे उन्होंने हम भा
छठ, शारदा सिन्हा और ये वैधव्य के नहीं विरह के दिन थे...
मुझे ख़ूब याद है जब मेरी दादी गुज़र गई थीं! वह सुहागिन गुज़री थीं। उनकी मृत्यु के समय खींची गईं तस्वीरों में एक तस्वीर ऐसी है कि देखकर बरबस रोना आता है। पीयर (पीली) दगदग गोटेदार पुतली साड़ी में लिपटी
प्रयाग शुक्ल की चित्रकला : रंगों में बसी संवेदनाएँ
5 अक्टूबर को आर्ट स्पेस, भोपाल में प्रयाग शुक्ल की एकल चित्रकला प्रदर्शनी ‘Myriad Hues’ का स्नेहिल शुभारंभ हुआ। इस अवसर पर छाया दुबे, हंसा मिलन कुमार, साधना शुक्ला और प्रीति पोद्दार जैन की समूह प्रदर
19 अगस्त 2024
जो रेखाएँ न कह सकेंगी
एक युग बीत जाने पर भी मेरी स्मृति से एक घटा भरी अश्रुमुखी सावनी पूर्णिमा की रेखाएँ नहीं मिट सकी हैं। उन रेखाओं के उजले रंग न जाने किस व्यथा से गीले हैं कि अब तक सूख भी नहीं पाए—उड़ना तो दूर की बात है
12 अगस्त 2024
रवींद्रनाथ ठाकुर के लिए
रवींद्रनाथ ठाकुर के लिए कुछ लेखकों और चित्रकारों ने कविताएँ लिखी थीं। वे सारी कविताएँ और कुछ पत्र ‘द गोल्डन बुक ऑफ़ टैगोर’ में प्रकाशित की गई थीं। यह किताब 1931 में राममोहन पुस्तकालय, कलकत्ता से छपी
20 जुलाई 2024
‘द सेंस ऑफ़ एन एंडिंग’ : आशिक़ बना देने वाला नॉवेल
इंसान शायद इसीलिए सबसे अकेला जानवर भी है, क्योंकि उसने अपने लिए जीवन के उसूल बनाए हैं। जूलियन बार्न्स के नॉवेल ‘द सेंस ऑफ़ एन एंडिंग’ का जब मैंने अध्ययन किया, तब उनकी इस छोटी-सी किताब से मुझे अप
कविता में नाटकीयता की खोज
नाटक केवल शब्दों नहीं, अभिनेता की भंगिमाओं, कार्य-व्यापार और दृश्यबंध की संरचना के सहारे हमारे मानस में बिंबों को उत्तेजित कर हमारी कल्पना की सीमा को विस्तृत कर देते हैं और रस का आस्वाद कराते हैं। जि
ओशो अपनी पुस्तकों के विषय में
मेरे पिता वर्ष में कम से कम तीन या चार बार बंबई जाया करते थे और वह सभी बच्चों से पूछा करते थे, “तुम अपने लिए क्या पसंद करोगे?” वह मुझसे भी पूछा करते, “अगर तुम को किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो मैं उसको
हिंदू कॉलेज में मेरे अंतिम दिन
समय गुज़रता है...ना जल्दी, ना देर से, बस अपनी ही रफ़्तार से। यह जानते हुए भी लग रहा है कि पिछले तीन साल कितनी जल्दी गुज़र गए। कॉलेज का सफ़र रह-रहकर याद आ रहा है। उम्मीदों से शुरू हुआ सफ़र निराशा के ब