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प्रेम, लेखन, परिवार, मोह की 'एक कहानी यह भी'

साल 2006 में प्रकाशित ‘एक कहानी यह भी’ मन्नू भंडारी की प्रसिद्ध आत्मकथा है, लेकिन मन्नू भंडारी इसे आत्मकथा नहीं मानती थीं। वह अपनी आत्मकथा के स्पष्टीकरण में स्पष्ट तौर पर लिखती हैं—‘‘यह मेरी आत्मकथा क़तई नहीं है, इसलिए मैंने इसका शीर्षक भी ‘एक कहानी यह भी’ ही रखा है। जिस तरह कहानी अपनी ज़िंदगी का अंश मात्र ही होती है—एक पक्ष, एक पहलू—उसी तरह यह भी मेरी ज़िंदगी का एक टुकड़ा मात्र ही है, जो मुख्यतः मेरे लेखकीय व्यक्तित्व और मेरे यात्रा-लेखन पर केंद्रित है।’’

इस किताब के शुरुआती कुछ पृष्ठों में लेखिका के बचपन के दिनों का वर्णन संक्षेप में दिया हुआ है, पूरी आत्मकथा उनके वैवाहिक जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है; जिसमें स्त्री जीवन की चुनौतियाँ, समाज में उसकी स्थिति और पारिवारिक और सामाजिक संरचनाओं के भीतर लेखिका के संघर्ष को समझा जा सकता है।

पितृसत्तामक परिवार में जन्मी मन्नू भंडारी को साँवले रंग के कारण अपने ही पिता द्वारा अपमानित होना पड़ा। हमारे समाज में गोरे रंग को श्रेष्ठ और काले या साँवले रंग को कमतर समझा जाता है। रंग के आधार पर भेदभाव होना हमारे यहाँ सामान्य बात है, लेकिन इसका असर इतना भयानक होता है कि एक उम्र के बाद भी इसे भूल पाना असंभव होता है। मन्नू स्वयं के बारे में लिखती हैं—“मैं काली हूँ, बचपन में दुबली और मरियल भी थी।” लेकिन उनकी बड़ी बहन सुशीला—गौरी, स्वस्थ और हँसमुख थीं; उनके पिता बात-बात पर उनकी तुलना सुशीला से करते थे, जिसकी वजह से मन्नू भंडारी के भीतर हीन-भावना ने जन्म ले लिया। मन्नू कहती हैं कि नाम, सम्मान, प्रतिष्ठा पाने के बावजूद आज तक मैं उससे उभर नहीं पाई हूँ।

मन्नू भंडारी की प्रारंभिक शिक्षा अजमेर के सावित्री कन्या विद्यालय से हुई। उन्होंने कलकत्ता से बी.ए. और बनारस से एम.ए. की पढ़ाई पूरी की। बालीगंज शिक्षा सदन में मन्नू भंडारी ने ज़िंदगी के नौ वर्ष गुज़ारे, उनकी ज़िंदगी के सभी महत्त्वपूर्ण मोड़ यहीं आए। यहीं उन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी और साहित्य के क्षेत्र में क़दम रखा। इसी स्कूल की लाइब्रेरी के लिए किताबें मँगवाने की सिलसिले में राजेंद्र यादव से उनका परिचय हुआ। दो-चार मुलाक़ात के बाद दोस्ती गहरी हो गई। जिसका मुख्य आधार था लेखन। धीरे-धीरे मित्रता ने दूसरी दिशा ले ली और मन्नू भंडारी ने पिता के विरूद्ध जाकर प्रेम विवाह किया।

राजेंद्र यादव ने सुशीला (मन्नू भंडारी की बड़ी बहन) के सामने मन्नू भंडारी का हाथ पकड़कर कहा—“सुशीला जी, आप तो जानती ही हैं कि रस्म-रिवाज में न तो मेरा कोई ख़ास विश्वास है न दिलचस्पी—बट वी आर मैरिड।” कुछ समय बाद सुशीला और उनके पति के दबाव में आकर राजेंद्र यादव ने शादी कर ली, लेकिन ज़िंदगी शुरू करने के साथ ही लेखकीय अनिवार्यता के नाम पर राजेंद्र यादव ने समांतर ज़िंदगी का आधुनिकतम पैटर्न थमाते हुए मन्नू भंडारी से साफ़ कह दिया था कि देखो छत ज़रूर अपनी होगी, लेकिन ज़िंदगियाँ अपनी-अपनी होगी; बिना एक-दूसरे की ज़िंदगी में हस्तक्षेप किए बिल्कुल स्वतंत्र, मुक्त और अलग।

मन्नू भंडारी, राजेंद्र यादव के इस आधुनिकतम पैटर्न से बिल्कुल अनभिज्ञ थीं। राजेंद्र यादव एक तरफ़ समांतर ज़िंदगी की बात करते हैं, लेकिन अपनी ही पत्नी को इस समानता से उपेक्षित रखा। उनकी समानता सिर्फ़ ख़ुद की आज़ादी तक सीमित थी। नौकरी के साथ परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी मन्नू भंडारी को अकेले ही उठानी पड़ी—जैसा कि आमतौर पर स्त्रियाँ उठाती आई हैं। ख़ुद की बीमारी हो या बच्चे की बीमारी सबकी देखभाल उन्हें करना पड़ती, पति राजेंद्र यादव का परिवार से कोई सरोकार नहीं रहता था। शादी के बाद मन्नू भंडारी ने अपने गृहस्थ जीवन को लेकर बहुत सपने देखे थे, ज़िंदगी को लेकर उनके भीतर बहुत उंमग थी, लेकिन पति की लेखकीय अनिवार्यताओं और जीवन से उनकी अपेक्षाओं का टकराव शुरू हो गया जो कभी ठीक नहीं हो पाया।

राजेंद्र यादव को विवाह-संस्था में विश्वास नहीं था। वह मन्नू भंडारी से प्रेम तो करते थे, लेकिन विवाह-बंधन में नहीं बँधना चाहते थे। इसकी वजह यह भी थी कि उन्हें दिल्ली में मीता नाम की लड़की से प्रेम था। राजेंद्र यादव ने मोहन राकेश के ज़रिये अपनी बात मन्नू भंडारी को पहुँचाने का प्रयास किया था। मोहन राकेश ने मन्नू भंडारी को चिट्ठी लिखकर चेताया था—मन्नू तुमको लेखक से शादी करने की बात दिमाग़ से निकाल देनी चाहिए। हम लोगों का क्या है, आज या कल फ़ुटपाथ पर बैठकर रूमाल भी बेचने पड़ सकते हैं। आज खाना है, तो कल भूखा भी रहना पड़ सकता है। निहायत अनिश्चित ज़िंदगी के साथ बँधकर तुम कभी सुखी नहीं रह सकोगी।

मन्नू भंडारी नि:संकोच लिखती हैं कि राजेंद्र यादव से उन्होंने इसलिए विवाह किया था, ताकि उनके लेखन के लिए अनुकूल वातावरण मिल सके। मन्नू भंडारी, राजेंद्र यादव के स्वभाव से भली-भाँति परिचित थीं। उन्हें पता था कि वह आर्थिक रूप से मज़बूत नहीं हैं, फिर भी उन्होंने साथ रहने का फ़ैसला किया। वह राजेंद्र यादव से प्रेम करती थीं और हर परिस्थिति में उनके साथ रहना चाहती थीं। उन्हें अधिक पैसों से नहीं लिखने से संतोष मिलता था। वह कहती हैं कि पैसे कमाने होते तो पान की दुकान खोल लेती।

मन्नू भंडारी ने पिता के विरूद्ध जाकर प्रेम विवाह किया था, शायद इसी वजह से शादी को असफल नहीं होना देना चाहती थी। इस रिश्ते को बचाए रखने के लिए ख़ुद सारे प्रयास करती रहीं, लेकिन राजेंद्र यादव इस रिश्ते को लेकर ज़्यादा उत्साहित नहीं दिखाई पड़ते थे। मन्नू भंडारी की काफ़ी आलोचना की जाती है कि तमाम असहमतियों और आरोपों के बावजूद भी वह राजेंद्र यादव के साथ क्यों रहीं। निर्मला जैन ने भी यह प्रश्न किया था—“राजेंद्र ने जो किया सो किया, पर आप क्यों नहीं अलग हो गईं? हो सकता है कि आप भी एक यशस्वी-प्रतिभाशाली लेखक के मोह से मुक्त न हो पाई हों?” 

मन्नू भंडारी इन आरोपों के संबंध में लिखती हैं—“यह मेरा मोह ही था। एक गहरा लगाव पर व्यक्ति राजेंद्र के प्रति—जिसमें उनका लेखक होना शुमार था, पर यशस्वी होना क़तई नहीं। उनका यश चाहे जितना फैला हो और जहाँ-तक फैला हो, मैंने उस यश की सीढ़ी चढ़कर न तो अब तक अपने लिए कुछ पाया है न चाहा है। इनके किसी भी संपर्क-संबंध को अपने किसी लाभ या महत्त्वकांक्षा के लिए आजतक कभी भुनाया हो।”

लेखिका गरिमा श्रीवास्तव अपनी रचना ‘प्रतिरोध की संस्कृति : स्त्री आत्मकथाएँ’ में मन्नू भंडारी के बारे में लिखती हैं—“मन्नू भंडारी एक ओर प्रगतिकामी शक्तियों के पक्ष में हैं, दूसरी ओर उनके भीतर पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पली-बढ़ी संस्कारित स्त्री बैठी है, जिसका संसार पुरुष के अभाव की कल्पना से भी डरता था। कभी बेटी के लिए, कभी दुनिया क्या कहेगी और सबसे ज़्यादा अपने लिए। न लिख पाने के कारणों में वह घरेलू व्यस्तताओं, स्वास्थ्य और पति की उपेक्षा प्रमुख मानती हैं, जबकि मन्नू के आत्मोत्सर्ग के पीछे सामंती मूल्य संरचना से अनुकूलित स्त्री मानसिकता को देखा जाना चाहिए। स्त्री की भारतीय परंपरागत छवि सकारात्मक ही रही जिसे वह स्वयं भी भंग नहीं करना चाहती”। यह अनुकूलन ही है कि वह जीवन के पैंतीस वर्ष कल्पते हुए काट देती हैं लेकिन स्वयं को बंधन मुक्त करने का साहस नहीं कर पाती।”

आलोचक मैनेजर पांडेय ने भारतीय साहित्य में आत्मकथा लेखन पर्याप्त न होने के कारणों पर बड़ी तीखी टिप्पणी करते हुए लिखा—“स्त्रियों की आत्मकथाएँ तो इसलिए नहीं हैं, (क्योंकि) उन्हें सामाजिक ढाँचे में सच बोलने की स्वतंत्रता नहीं है; लेकिन पुरुषों की आत्मकथाएँ इसलिए बहुत नहीं है कि स्वतंत्रता तो है, पर आदत नहीं”

स्त्रियों द्वारा लिखी गई आत्मकथाओं को ज़रूर पढ़ना चाहिए क्योंकि आत्मकथाएँ स्त्रियों के व्यक्तिगत अनुभवों, चुनौतियों और संघर्षों का सजीव चित्रण करती हैं। वे यह दिखाती हैं कि समाज, संस्कृति और पारिवारिक ढाँचे ने उनके जीवन को कैसे प्रभावित किया। आत्मकथाएँ उनके आत्म-खोज और पहचान के संघर्ष को दिखाती हैं। इनमें यह देखा जा सकता है कि किस प्रकार स्त्रियों ने इस पितृसत्तामक समाज में कैसे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी।

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