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आज़ाद और खुले कैंपस में क़ैद लड़की

मेरा कैंपस (हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय) सुंदर है। यहाँ मन बहलाने और दिल लगाने को काफ़ी कुछ है—ऊँची-ऊँची इमारतें हैं, वूमन और मेंस हॉस्टल हैं, हर कोने में जीवन का कोई न कोई रंग बिखरा हुआ है। मेंस हॉस्टल में लड़कियों का जमावड़ा होता है, लेकिन बेचारे लड़के गर्ल्स हॉस्टल की चौखट तक भी नहीं पहुँच सकते। हज़ारों गाड़ियाँ घूमती हैं, आकर्षक चेहरे हैं, कुछ मीठे तो कुछ तीखे लोग हैं। कुछ तो ऐसे भी हैं, जिनकी सोच और व्यवहार देखकर मन में यही प्रश्न उठता है—ये कब सुधरेंगे? कोई इतना संवेदनहीन, इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है! यह हमारा कैंपस है—विविधताओं से भरा, लेकिन धीरे-धीरे यह भी उस समाज की परछाईं बनता जा रहा है, जिसमें विष घुलता जा रहा है।

इस कैंपस में और भी चीज़ें हैं। जगह-जगह जंगल है, मोर, हिरण, साँप, बिच्छू, सुअर, कुत्ते, तोता, गौरैया सभी प्रकार के जीव-जंतु हैं। प्रकृति की सुंदरता का हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं यहाँ। बाहर के लोग भी यहाँ आना चाहते हैं। मौसम और प्रकृति और हमारे इस सुंदर कैंपस का लुत्फ़ उठाना चाहते हैं, पर क्या करें गार्ड अंकल आईडी नंबर और हॉस्टल पूछ लेते हैं। 

आज बहुत तेज़ बारिश हुई, बिजली की आवाज़ इतनी तीखी थी कि लगा जैसे वह किसी गहरे क्रोध में हो—उलझी हुई, तिलमिलाई हुई। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो आकाश स्वयं अपने भीतर का ग़ुस्सा उतार रहा हो, ज़मीन को फटकार रहा हो। बारिश की हर बूँद में कोई बेचैनी थी, कोई पीड़ा। उन्हें देख ऐसा लगा कि केवल क्रोध ही नहीं, आज वह दुख से भी भरी हुई है। मानो वह रो रही हो—फूट-फूटकर। यह किसके लिए है—पता नहीं। यह सच है या मेरी कल्पना—पता नहीं।

कैंपस में मेरा हाल

जाहिर है, आप सोचेंगे कि मेरा कैंपस बहुत अच्छा होगा—लेकिन सच्चाई यह है कि यह जितना अच्छा लगता है, उससे कहीं ज़्यादा निराशाजनक भी है। इस एक साल में इस कैंपस ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया—लोगों से बहस करना, अन्याय के सामने आवाज़ उठाना, ख़ुद के लिए खाना बनाना, फ़ुटबॉल खेलना, रीडिंग रूम में घंटों एकाग्र बैठना और रूममेट के साथ सामंजस्य बनाना। जीवन के बहुत से पाठ इसने बिना कहे पढ़ा दिए।


लेकिन इस कैंपस ने मुझे गहरे दुख भी दिए। बहरहाल इन दुखों के लिए मैं पूरे कैंपस को नहीं, बल्कि अपने विभाग और वहाँ के लोगों को ज़िम्मेदार मानती हूँ। एक आज़ादी भरे और खुले कैंपस में भी एक लड़की पूरी तरह आज़ाद नहीं है। वह कहीं-न-कहीं किसी भी तरह से परंपरागत तौर तरीक़ों में फँस ही जाती है। बस उसके ऊपर कोई एक बात उठ जाए तो देखिए! भले ही वह सही होगी—अपने लिए, सच्चाई के लिए लड़ ही रही होगी—लेकिन यह कैंपस उसको कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट देने में देर नहीं करेगा!

मेरा हाल कुछ ऐसा ही रहा। फिर भी, जो कुछ मेरे साथ हुआ—मैं उसे स्वीकारती हूँ और कह सकती हूँ कि मैं आज भी ख़ुद से खुश हूँ।

इस कैंपस में एक और चीज़ जो खूब देखी—वह है कुछ विद्यार्थियों की प्रोफ़ेसर के प्रति चापलूसी। कई बार यह लगता है कि विश्वविद्यालय इसमें अन्य संस्थानों से आगे निकल रहा है। लेकिन क्या करें—छात्र भी विवश हैं। उन्हें लगता है कि उनका भविष्य इसी रास्ते से होकर जाता है। शायद वे अपनी ही काबिलियत पर यक़ीन नहीं कर पाते।

इन सबके बावजूद, अगर आप ख़ुद में रहना सीख जाएँ, तो यही कैंपस आपको बहुत कुछ लौटाता है। अपनी प्राकृतिक सुंदरता के साथ यह आपको एक सुंदर दृष्टिकोण भी देगा।

हॉस्टलों में कर्मचारियों की स्थिति

सुबह होते ही कैंपस में कामगार महिलाएँ अपने छोटे-छोटे बच्चों को साथ लेकर हॉस्टलों की सफ़ाई करने आ जाती हैं। नाश्ता करके कोई बाहर की ज़मीन साफ करता है, कोई गलियारों की, तो कोई बाथरूम की गंदगी हटाता है। वहीं हम लड़कियों को रूम से डस्टबिन तक जाने में भी आलस आता है और हम अपने कमरे के बाहर ही कचरा फेंक देतीं, या कोई लड़की हिम्मत करके डस्टबिन तक पहुँच भी जाए तो कूड़ा दूर से ऐसे फेंकेगीं कि वह डस्टबिन छोड़कर चारों तरफ़ फैल जाएगा।

लड़कियों द्वारा बाथरूम की सिंक में प्लेटें धोकर बचे हुए खाने को ऐसे छोड़ दिया जाता, मानो वे अब वहाँ कभी नहीं जाएँगी। उनके द्वारा यह नहीं सोचा जाता कि जो स्त्री यह सब साफ़ कर रही है, वह भी हमारी ही तरह एक इंसान है—एक माँ, एक स्त्री, एक मेहनतकश।

गर्ल्स हॉस्टल हो या मेंस हॉस्टल—हर जगह यही स्थिति है। फिर भी ये कर्मचारी अपने काम को पूरी ईमानदारी से करते हैं। दोपहर से पहले ही बाथरूम चमकने लगते हैं, कूड़ेदान ख़ाली हो जाते हैं। लेकिन बात सिर्फ़ सफ़ाई की नहीं है—बात सोच की है। क्या हम इतनी भी ज़िम्मेदारी नहीं ले सकते कि अपनी जगह को थोड़ा-सा साफ़ रखें? यही कर्मचारी संडे को नहीं आते हैं तो हम बेचैन हो जाते हैं, सोचते कितने जल्दी मंडे आ जाए और बाथरूम साफ़ हो जाए। हम इन्हीं लोगों के काम को सरल क्यों नहीं बनाते? और तो और क्यों हम इन कर्मचारियों को “दीदी” या “भैया” कहकर सम्मान नहीं दे सकते?

शिक्षक और कर्मचारी : एक विडंबना

यहाँ आकर मैंने यह भी देखा कि कुछ शिक्षक कक्षा में पढ़ाते नहीं, और अगर कभी पढ़ाने आए भी, तो न लैपटॉप लाते हैं, न कोई तैयारी। वे क्लास में क्या कहेंगे, ख़ुद उन्हें भी नहीं पता होता। कई शिक्षक पढ़ने के बिना ही पढ़ाने आ जाते हैं। फिर भी हम छात्रों को लगातार मूर्ख बनाया जाता है—और हम बनते जा रहे हैं। हमारी सोचने की शक्ति, तर्क करने की क्षमता और लेखन कौशल धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है—फिर भी हम चुप हैं।

इसी बीच, इन शिक्षकों को समय पर वेतन, पद और सम्मान सब कुछ मिल जाता है। दूसरी ओर, हॉस्टल और कैंपस के कर्मचारी—जो हर दिन काम करते हैं—उनके पास न स्थायी सुरक्षा है, न उचित वेतन, न सम्मान।

यह कैसा न्याय है?

जिसके पास पद और अधिकार है, वह कुछ करे या न करे, कोई सवाल नहीं उठाता। और जो मेहनत करता है, वह अनदेखा रह जाता।

मैं इस कैंपस से ख़ुश भी हूँ और दुखी भी। यह जगह मुझे बनाती भी है, और कई बार तोड़ती भी है। लेकिन शायद यही तो जीवन है—विरोधाभासों से भरा हुआ।

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