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8 A.M. Metro : अर्थ भरी अदायगी

गुलशन देवैया और सैयामी खेर अभिनीत फ़िल्म ‘8 A.M. Metro’ हाल-फ़िलहाल की प्रचलित व्यावसायिक फ़िल्मों से अलग श्रेणी में आती है। अगर फ़िल्म की विषयवस्तु देखें तो आप इसे ‘लंच बॉक्स’ और ‘थ्री ऑफ़ अस’ की परंपरा से जोड़कर देख सकते हैं। फ़िल्म के ज़्यादातर हिस्से में फ़िल्म की टोन (गति और सौम्यता) इन फ़िल्मों-सी ही जान पड़ती है। शायद हम इसमें पिछले साल नेटफ़्लिक्स पर आई अरविंद स्वामी की ‘मियाझागन’ को भी रख सकते हैं।

फिर भी जहाँ एक तरफ़ ‘लंच बॉक्स’ और ‘थ्री ऑफ़ अस’ में मंझे हुए कलाकारों ने अपने शानदार अभिनय से इन फ़िल्मों के प्रभाव को अद्वितीय बनाया है; ‘8 A.M. Metro’ में गुलशन और सैयामी के हाव-भाव उस परिणति को प्राप्त करने से कुछ पीछे रह गए हैं। फिर भी संभवतः पहली बार इस प्रकार की गंभीर विषयवस्तु की फ़िल्म करते हुए उनके इस प्रयास की सराहना की जानी चाहिए।

इन तीनों ही फ़िल्मों में किरदार उन जगहों की तलाश में हैं, जहाँ जीवन अपनी दिनचर्या से हटकर अपने आप को भारमुक्त महसूस करता है और इस महसूस करने और स्वयं को जानने में उसका सहायक होता है। कोई अचानक मिल गया व्यक्ति, जिससे कोई पूर्व परिचय की भूमिका न होते हुए भी बातचीत करते हुए—एक सहजता का अनुभव होता है। ये फ़िल्में भाग-दौड़ और घर-परिवार-समाज में ख़र्च होते हुए व्यक्ति के जीवन में एक गहरी साँस की जगह की तलाश की तरह हैं।

‘लंच बॉक्स’ और ‘थ्री ऑफ़ अस’ में पूरा ध्यान इन क्षणों को अर्थपूर्ण बनाने में ही दिया गया है तथा फ़िल्म रोज़मर्रा के जीवन से हटकर जो एक बोझमुक्त स्पेस बनता है, लगभग उसी में ख़त्म होती है। इन दोनों फ़िल्मों में कथा बहुत लंबी नहीं है तथा घटनाएँ बहुत ज़्यादा नहीं है। इन फ़िल्मों का मुख्य फ़ोकस उस स्पेस के दृश्यांकन पर ही है, जहाँ दो किरदार एक दूसरे के ज़रिये अपने आपको पा पाने में समर्थ होते हैं।

‘8 A.M. Metro’ में राज रचाकोंडा (निर्देशक) कहानी के वृत्त को अधूरा न छोड़ते हुए उसे पूरा करने की कोशिश करते दिखते हैं। फ़िल्म के एक बड़े हिस्से में सिर्फ़ इरावती (सैयामी खेर) और प्रीतम (गुलशन देवैया) के किताबों, कविताओं और दुनिया पर आधारित संवाद हैं। यह दृश्य बहुत सुंदर बन पड़े हैं। इन्हें देखते हुए लगता है कि ये दोनों ऐसे ही बातें करते रहें। पर यहाँ फ़िल्म के उत्तरार्द्ध में जो नैतिक-अनैतिक का द्वंद्व है, निर्देशक किरदारों को उससे उबारते हुए उन्हें समाज और परिवार के अपने-अपने एलॉटेड स्पेस में एक तरह से पुनर्स्थापित करते हैं। इसके लिए कुछ नाटकीयता का सहारा लिया गया है और इस वजह से फ़िल्म थोड़ी लंबी हो गई है। हालाँकि यदि हम इस कथानक को दूसरी फ़िल्मों से तुलना न करते हुए देखें तो यह रोचक ही है।

‘8 AM Metro’ में कविताओं पर बात करते हुए दो लोग हैं। उनमें से एक-दूसरे की कविता पढ़ता है और अपनी राय रखता है। इस सबके पीछे चलती हुई मेट्रो का कम्पार्टमेंट है, जिसमें कोई ऊंघ रहा है तो कोई लैपटॉप पर मीटिंग अटेंड कर रहा है। इरावती को जब भी कुछ पंक्तियाँ सूझती हैं, वह अपने बैग से डायरी और पेन निकालकर उन्हें लिखने लगती है। यह आज के आम दृश्यों में एक दुर्लभ दृश्य है। आज अगर कोई चलती ट्रेन में लिखता भी है तो वह मोबाइल पर टाइपिंग का सहारा लेता है। फिर भी इरावती को ऐसा करता देखना सुखद है। यह एक तरह से इस जीवन के पूरी तरह मशीनी हो चुकने को नकारता है। दरअस्ल ऐसे ही दृश्य हैं जिन्हें हम अपने आस-पास ढूँढ़ते हैं। यह त्रासद है कि लगातार अपने आप में सिमटते जाने के कारण हमारे पास एक भी हमख़याल मित्र नहीं बचा है। फ़िल्म में भी इरा और प्रीतम का मिलना एक संयोग के चलते हुआ है और इससे पहले दोनों अपने-अपने भय से अकेले जूझने को बाध्य थे। निर्देशक ने इरा और प्रीतम के सहारे उस स्पेस की कल्पना की है, जहाँ यह जीवन अपनी दैनिक लयबद्धता की ऊब को तोड़कर नया संगीत रचता है।

फ़िल्म की शुरुआत में चलने वाले टाइटल्स में हम देखते हैं कि इसमें गुलज़ार की कविताओं का इस्तेमाल हुआ है। गुलज़ार की कविताएँ इससे पहले भी फ़िल्मों में ली गई हैं। ‘आनंद’ फ़िल्म की ‘मौत तू एक कविता है’ या ‘रेनकोट’ फ़िल्म में ‘किसी मौसम का झोंका था’ या ‘आस्था’ फ़िल्म में ‘प्यार वो बीज है’ कविताएँ अपने अर्थ और अदायगी में अत्यंत प्रभावी उपस्थिति दर्ज करती हैं। इसका एक कारण शायद इन्हें जिस आवाज़ और सलीक़े से प्रस्तुत किया गया है, हो सकता है। ‘8 AM Metro’ में सैयामी द्वारा इन कविताओं को बेहद सपाट तरीक़े से रखा गया है। हालाँकि आख़िर की नज़्म बहुत अच्छी है। गुलज़ार साहब को इस उम्र में भी सक्रिय देखना सुखद है।

कविताओं के अलावा फ़िल्म में कुछ गीत भी हैं, जो ज़्यादातर कर्णप्रिय होने के बावजूद कहीं-कहीं पर फ़िल्म में एक्स्ट्रा महसूस होते हैं। इन्हें कम करके यदि इरा और प्रीतम के संवादों को बढ़ाया जाता तो गंभीर दर्शकों के लिए यह सौगात की तरह होता।

फ़िल्म के एक दृश्य में प्रीतम इरा को अपने घर में रखी तस्वीरें दिखाता है। इनमें रवींद्रनाथ टैगोर, मैथिलीशरण गुप्त, निराला, बच्चन इत्यादि और भी दूसरे साहित्यकारों की तस्वीरें हैं। इसे देखते हुए मुझे निर्देशक या कहानीकार का साहित्य के प्रति समर्पण दिखता है। ऐसा लगता है कि फ़िल्म की अपनी सीमाओं के चलते सिर्फ़ साहित्य पर देर तक संवाद नहीं रखे जा सकते, इसलिए निर्देशक ने इन साहित्यकारों का ज़िक्र करके इनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया है। मुझे याद नहीं पड़ता कि इससे पहले इस तरह साहित्य का ज़िक्र किस फ़िल्म में मिलता है।

फ़िल्म में एक पुस्तकों की दुकान है, जिसका मालिक हिंदी किताबों के पाठक कम होने की बात कहता है। एक लेखक है जिसकी कोई प्रति लंबे समय से नहीं बिकी है। हालाँकि फ़िल्म किताबों के ऊपर नहीं है लेकिन इसके जरिये निर्देशक ने इन समस्याओं की तरफ़ इशारा किया है। अपने संपूर्ण प्रयास में मैं यह कहूँ कि फ़िल्मकार ने किताबों के संग-साथ की महत्ता को स्थापित करने की कोशिश की है तो शायद ग़लत नहीं होगा। विशुद्ध व्यावसायिक सिनेमा में शायद इन प्रसंगों को इस डर से हटा दिया जाता कि फ़िल्म का दर्शक वर्ग सीमित न हो जाए और उसकी मास अपील कम न हो जाए।

इन सब बातों के चलते हैदराबाद की पृष्ठभूमि में बनी ‘8 AM Metro’ आज के चमकीले भव्य और उमस भरे सिनेमाई परिदृश्य में एक ठंडे झोंके की तरह आती है। बायोग्राफीज़ और अकल्पनीय एक्शन फ़िल्मों के आज के समय में इस तरह की फ़िल्मों का बनना हमें हमारे सिनेमा की छुपी हुई संभावनाओं और उसके भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है।

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