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तमाशे के पार : हिंदी साहित्य की नई पीढ़ी और एक लेखक की आश्वस्ति

इन दिनों साहित्य की दुनिया किसी मेले की तरह लगती है—शब्दों का मेला नहीं, विवादों और आक्षेपों का मेला। सोशल मीडिया की स्क्रॉलिंग करते हुए रोज़ किसी न किसी ‘साहित्यिक’ विवाद से साबका पड़ता है।

लोग दूसरों को छोटा साबित कर ख़ुद बड़ा बनना चाहते हैं। अब तो साहित्य में प्रायोजित षड्यंत्र भी हो रहे हैं। साहित्य और भाषा को तमाशा बनाया जाता है। आपको अपनी भाषा और साहित्य की चिंता होने लगती है। ऐसे में कभी-कभी साहित्य की दुनिया से आपका मोहभंग होने लगता है।

साहित्यिक असहमति अब विमर्श नहीं, विद्वेष में बदलती जा रही है। लगता है कि कई लोग अब साहित्य नहीं लिखते, साहित्य के नाम पर रणनीतियाँ लिखते हैं। भाषा को जैसे बहस और ध्वंस का औज़ार बना लिया गया है। रचनात्मकता के नाम पर प्रायोजित योजनाएँ, इवेंट्स के नाम पर वर्चस्व की राजनीति और प्रतिभा के स्थान पर ‘नेटवर्किंग’। कई बार साहित्यकार हत्यारे की भूमिका में नज़र आते हैं। 

ऐसे माहौल में अक्सर मैं ख़ुद से यह प्रश्न करता हूँ—क्या मैं इस साहित्यिक दुनिया का हिस्सा रहना चाहता हूँ? क्या वाक़ई साहित्य की ज़मीन पर अब भी कुछ अंकुर फूटते हैं, या बस धूल-धुआँ ही रह गया है?

इन्हीं सवालों के बीच, एक दिन ‘हिन्दवी उत्सव’ का आमंत्रण आया। कई दिन बाद किसी आयोजन को लेकर भीतर कुछ स्पंदित हुआ। तय किया कि चलकर देखा जाए—शायद कुछ उम्मीद की लौ बाक़ी हो।

‘हिन्दवी उत्सव’ के कई सत्र थे, कई नामचीन वक्ता, परिचित चेहरे, पुराने मित्र। पर मेरे लिए सबसे बड़ा आकर्षण ‘ऑल इंडिया कैंपस कविता’ का सत्र रहा। यह एक सत्र नहीं था, यह एक प्रमाण था—इस बात का कि भाषा में अभी भी जीवन है, साहित्य में अब भी आग है, और युवाओं में अब भी ज़िद है कुछ कहने की, कुछ बदलने की।

देशभर के शैक्षणिक संस्थानों से आई कविताओं में से केवल दस कवि चुने गए थे और इन दस को सुनते हुए मुझे लगा, जैसे किसी बियाबान में कोई जलधारा फूट पड़ी हो। ये कविताएँ न केवल विषयों में विविध थीं, बल्कि अपने तेवर, स्वर और संवेदना में भी एक नयापन लिए हुए थीं।

अजय नेगी की कविताओं में उत्तराखंड की माटी थी और उस माटी से उगा हुआ प्रतिरोध भी। ऋत्विक् की कविताएँ आत्मीय अनुभवों से निकली हुई लगीं, पर उनकी भाषा में विद्रोह की सीधी धार भी थी। गोविंद निषाद की कविता जैसे किसी खेत की दरारों से निकली हो, जहाँ शब्दों में पसीना और इतिहास दोनों शामिल हों।

गौरव सिंह और तल्हा ख़ान ने प्रेम और राजनीति के बीच की महीन रेखा पर कविता को साधा। पूजा जिनागल और मानसी मिश्र की कविताओं में स्त्री-स्वर था, लेकिन वह सिर्फ़ कथात्मक नहीं, बौद्धिक और सौंदर्यबोध से भी लैस था। रत्नेश कुमार, रौशन पाठक और संध्या चौरसिया की कविताएँ जैसे कई पीढ़ियों की चुप्पियों को वाणी दे रही थीं।

इन कवियों को सुनते हुए लगा कि हिंदी कविता का भविष्य न तो किसी पुरानी चौखट में बँधा है, न किसी एक विचारधारा की बैसाखी पर टिका है। यह वह पीढ़ी है जो ख़ुद अपना रास्ता बना रही है और अपने शब्दों से रास्तों को नाम भी दे रही है।

मैं जब लौटकर सोशल मीडिया की दुनिया में आता हूँ, तो फिर वही शोर, वही आरोप-प्रत्यारोप, वही साहित्य के नाम पर ‘हाई-वोल्टेज ड्रामा’। यहाँ हर किसी को लगता है कि वह साहित्य का केंद्र है। कोई ख़ुद को ‘एकमात्र’ जनकवि घोषित करता है, कोई अपनी पोस्ट में लिखता है—“कविता अब मेरे बिना नहीं हो सकती।” 

दूसरे कहें तो बात जमती है। अब तो लोग ख़ुद है कहते हैं कि मैं बड़ा लेखक हूँ। 

कुछ लोगों ने साहित्य को एक शो-बिज़नेस में बदल दिया है—कभी किसी लेखक को ट्रोल करते हैं, कभी किसी स्त्री-रचनाकार की छवि को तोड़ते हैं, कभी पुरस्कार पाने के लिए जोड़-तोड़ करते हैं।

इसी दुनिया में एक वर्ग वह भी है, जो बिना शोर के काम कर रहा है। वह जो सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीरें कम, रचनाएँ अधिक साझा करता है। वह जो नाम के पीछे ‘कवि’, ‘लेखक’ या ‘थिंकर’ नहीं जोड़ता; बल्कि रचना से पहचान बनाता है।

यही वर्ग मेरी उम्मीद है।

हिंदी साहित्य को देखना हो तो कृपया केवल फ़ेसबुक के लाइव वीडियो या ट्विटर के थ्रेड्स मत देखिए। विश्वविद्यालयों के कैंपस जाइए, वहाँ चल रही पत्रिकाएँ, दीवार-पत्रिकाएँ, स्वनियोजित कविता समूह देखिए। वहाँ साहित्य अब भी साँस ले रहा है। वहाँ छात्र रघुवीर सहाय पढ़ते हैं, रजनी तिलक की कविताएँ मंच पर लाते हैं और अपने गाँव की बुढ़िया की कहानी को लोकगाथा बना देते हैं।

हिंदी साहित्य की दुनिया बड़बोलों, षड्यंत्रकारियों, मसख़रों से बहुत बड़ी है। यह उन लोगों की दुनिया है जो रचना को पूजा समझते हैं, आलोचना को सेवा और शब्दों को ज़िम्मेदारी।

हमें यह समझना होगा कि साहित्य का यथार्थ सोशल मीडिया के ट्रेंड से तय नहीं होता, वह उन हज़ारों लोगों की मेहनत और संवेदना से बनता है जो बिना नाम की लालसा के लिख रहे हैं।

मेरे लिए ‘हिन्दवी उत्सव’ एक आयोजन नहीं, एक आत्म-आश्वासन था। यह विश्वास कि सब कुछ खो नहीं गया है। साहित्य अभी भी बचा है, क्योंकि उसे बचाने वाले लोग मौजूद हैं।

मैंने ‘ऑल इंडिया कैंपस कविता’ में नई पीढ़ी के जिन दस कवियों को सुना, वे किसी भी पुरस्कार से अधिक मूल्यवान थे। वे किसी मंच के मेहमान नहीं, साहित्य की यात्रा के सहयात्री थे।

इन युवाओं को देखकर मुझे अपना शुरुआती लेखकीय जीवन याद आया, जब एक कहानी लिखना युद्ध जीतने जैसा लगता था और उसका प्रकाशित हो जाना सबसे बड़ा पुरस्कार। जब मित्रों के बीच बैठकर कहानी सुनाना, किसी लिट-फ़ेस्ट से अधिक रोमांचक लगता था।

अब तय कर लिया है कि साहित्य के इस तमाशे से ख़ुद को यथासंभव अलग रखूँगा। विवादों की आग में घी डालने वालों से दूरी रखूँगा। अपनी ऊर्जा केवल रचना में लगाऊँगा और ऐसे ही युवा रचनाकारों को पढ़ूँगा, सुनूँगा, बढ़ावा दूँगा।

हिंदी साहित्य को बचाने का रास्ता ‘ट्रेंड’ से नहीं, ‘ट्रुथ’ से होकर जाता है।

और यह ‘सत्य’ मुझे ‘ऑल इंडिया कैंपस कविता’ के मंच पर मिला—जहाँ कविता फिर से कविता थी, रचना फिर से कर्म थी और शब्द फिर से ज़िंदा थे।

अब भी कुछ नहीं खोया है, बस सही जगह देखना सीखना होगा।

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