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बिंदुघाटी : वाचालता एक भयानक बीमारी बन चुकी है

• संभवतः संसार की सारी परंपराओं के रूपक-संसार में नाविक और चरवाहे की व्याप्ति बहुत अधिक है। गीति-काव्यों, नाटकों और दार्शनिक चर्चाओं में इन्हें महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। 

आधुनिक समाज-विज्ञान नामोल्लेख के प्रति बड़ी रूमानी दृष्टि रखता है। समाज-विज्ञानी को लगता है कि कहीं कुछ खो गया है और उसे ही खोजकर सब ऊपर लाना है। 

बहरहाल, समाज-विज्ञानियों की स्थिति वे ही जानें! मेरी चिंता यहाँ अभी के कवियों की सतहबयानी को लेकर है। उन्होंने नाविकों और चरवाहों की ऐसी-तैसी कर रखी है। वे नामोल्लेख पर बलिहारी होकर, नब्बे की दशक वाली फ़िल्में बनाने लगते हैं। उन्होंने सारे ऐसे रूपकों को ‘लाल-बादशाह’ बना डाला है। एक डंडे से दो लोगों को मारकर गिरा देना ही अब उनकी कविता के चरवाहों का काम रह गया है। 

ये कवि इतने उच्छल, इतने फ़ैशनपरस्त और शाबाशियों के उत्साह में इतने तबाह दिखते हैं कि इनका मन कैसे स्थिर होगा! इन्हें बड़े रूपकों का वरद कैसे मिलेगा! इन्हें भव यानी ‘हो जाने’ की भी गति कैसे मिलेगी! वे तो महज़ दिखने में ही मस्त हैं। 

अब यहाँ सरहपा उद्धृत किए जा रहे हैं, देखिए : 

चीअ थिर करि धरहु रे नाइ
आन उपाये पार ण जाइ

साफ़ किए जाते यदि 
संवेदन के दरवाज़े
सारी चीज़ें हर आदमी को दिखतीं 
मूल रूप में—
अपरिमेय

किसे आन पड़ी है कि वह स्क्रब लेकर अपना खुरचन-मंजन करे। किसे है ऐसी तड़प कि किसी स्थिति के मूल को समझा जाए! फ़ैशनपरस्ती ने हर मनुष्य को हर घटना का स्टेक-होल्डर बना दिया है। उसका निवेश कुछ भी न हो, लेकिन वह ख़बर-सेवी है और शेयर-बाज़ार की तेज़ी-मंदी पर एक नोट प्रस्तुत करना चाहता है। शब्दों की गति भी अनुपम है, वे स्वयंभू वकीलों के चोर-मन को भी प्रकट करते चलते हैं। 

विलियम ब्लेक रोमांटिक कवियों की पहली पीढ़ी के स्वप्नदर्शी कवि हैं। कविताएँ उन्हें प्राप्त होती थीं। वे चित्रकार भी थे। वे शब्द और चित्र के लिए समान रूप से अधिकृत थे। इस बिंदु में ऊपर व्यक्त काव्यांश उनका ही है। 

‘नया नगर’ : मंज़रकशी, विट और अदबी चकल्लस

नज़ीब से शुरू होकर नज़ीब पर आख़िर होने वाला तसनीफ़ हैदर का उपन्यास ‘नया नगर’ [उर्दू से अनुवाद : अजय नेगी, राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2025] उर्दू-संसार की अदबी हलचल की मंज़रकशी, विट और बीच-बीच में आई रोचक गप्पबाज़ियों के कारण बहुत सारी तारीफ़ का हक़दार है। 

लेकिन तारीफ़ों और एंडोर्समेंट की सर्वव्याप्त घटनाओं से आहत ‘बिंदुघाटी’ ने केवल और केवल नुक़्ते जहाँ ग़लत हों वहीं पर कुछ बात करने का ज़िम्मा लिया है। 

‘नया नगर’—जहाँ राजनीति में झंडे नहीं गड़े 

यहाँ ग़ज़लगोई की पुरानी रवायत पर खिंचते हुए रबड़ जैसा तंज़ हैं। इसका एक महत्त्वपूर्ण नुक़्ता यानी औरतों के जिस्म के ग़ज़ल में मर्दों द्वारा एकतरफ़ा इस्तेमाल पर स्पीकर बेहद खफ़ा है। लेकिन उसकी यह ख़फ़गी भी बेहद मासूम और सायास क़िस्म की है। यहाँ लेखक इस उपन्यास में एक भी ऐसी स्त्री-पात्र की रचना नहीं कर पाता है, जिसके पास कोई स्त्री-मुक्ति-युक्त चेतना हो! जबकि इस उपन्यास का वातावरण नई सदी की शुरुआत के नज़दीक का है। औरतों के जिस्म को लेकर लेखक का एकालाप नज़ीब के ज़ेहन से प्रकट होता है... यानी जैसे ग़ज़ल में औरतों के जिस्म पर कहन की एकतरफ़ा रिवायत है, वैसे ही लेखक के सबसे संभावनाशील पात्र—नज़ीब के पास इस विषय पर सोचने की एकतरफ़ा नायकत्व वाली स्थिति है। 

‘नया नगर’ में लेखक एक नायक गढ़ना चाहता है—स्त्री-उद्धार के लिए परेशान नायक—जबकि यहाँ एक भी ऐसी स्त्री नहीं नज़र आती जो ख़ुद के उद्धार के लिए ज़रा भी हिले-डुले।

‘नया नगर’ में पात्रों की एकपरतीयता 

इस उपन्यास में सारे पात्रों की गति और स्थिति वैसी और उतनी ही है, जितनी और जैसी चाबी उनमें शुरू में नैरेटर ने भर दी है। इनमें आगे कहीं कोई विकास नहीं। इनमें आगे कहीं कोई भटकाव नहीं। इनमें आगे...

‘नया नगर’ के नैरेटर या लेखक का अति नियंत्रण 

इस कृति में लेखक को मज़ीद मियाँ या नज़ीब जैसे पात्रों की बड़ी वक़ालत करनी पड़ती है। वे ख़ुद में उतने नहीं दिखते, जितना नैरेटर उन्हें दिखाना चाहता है। एक आधुनिक उपन्यास को इस विक्टोरियाई हरकत से मुक्त होना चाहिए।

• रात में तीन बजे तक फ़ोन और चैट-बॉक्सों में जीवन की धूसरताओं पर वह तेज़ाब छिड़कता रहा और अंततः सुबह दस बजे सोकर उठा। कार्यालयी भागदौड़ शुरू हो, उसके पहले वह एक आँख दबाए-दबाए सोशल मीडिया पर चला। उसकी उँगलियों की टिकलिंग से ही सोशल मीडिया पर सुबह हुई। 

शाम पाँच बजे के बाद सोशल मीडिया ज्ञान और विमर्श की बासी जलेबियों से पट जाएगा। वह—यानी इस बिंदु का नायक—रात हो, उसके पहले ही सच का उल्लू बन बैठेगा। फिर वही, रात तीन बजे तक उसे सच दिखता रहेगा। 

उसकी तरह ही समाज के औसतन सारे लोग सच के पहरुए हैं, कबीर हैं, सच्चाई के भाई हैं, आदि-आदि हैं!

सत्य के लिए किसी से भी मत डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने यह कहा, लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि rhetoric से डरना है या नहीं! शायद इसलिए ही साहित्य का सोशल मीडियाई समाज एक बनते और चढ़ते जा रहे rhetoric के आस-पास अपनी गणना न हो पाने से डरता है। 

ऐसा नहीं है कि इन दड़बा-बंद साहित्यिक लोगों का सत्य से सरोकार नहीं है। ये तो ख़ूब-ख़ूब सत्य के साथ हैं, लेकिन सत्य का स्वरूप इनके लिए विशिष्ट है। इन्हें चढ़ रहे rhetoric में ही सत्य दिखता है और अपनी शक्लें—‘सत्य-ध्वज’। 

• अब भी कहीं-कहीं दिख रहे हैं, लेकिन कितने दिन! वे अब जा चुके हैं। इस सीजन से ही नहीं, इस युग से भी। उनका अधिवास नष्ट हुआ। उनकी अर्थवत्ता नष्ट हुई। 

उनका वैभव ‘गन्नैया तालाब’ के चौड़े-ऊँचे-कुशधारी चतुर्दिक भीटों पर—सिंघोर, ढेरा, बाँस, लहचिचड़ा, सियार का डंडा, हथियाचिग्घाड़ जैसे पौधों व वनस्पतियों के बीच था। 

वे कई-कई पीढ़ियों तक इन नामों से पुकारे जाते रहे—कर्रहवा, चोपियहवा, जमुनियहवा, चिनियहवा, बहेरी, करियवा, सेंदुरहवा, खट्टहवा... ये नाम अगणित हैं। उनकी व्याप्ति की तरह ही... लेकिन अब वे ‘रसाल’ ही जाने-जाने को हैं, तो ये नाम भी स्मृतियों में कब तक दाँज करेंगे! 

उनके ये नाम रूप-स्वाद-स्थान-स्मृति से बनते थे। बौर जब माघ में फूटते हैं, तब यह प्रकृति के शिशु-रूप का खिलखिलाना होता है। बौर-टिकोरे-अमियाँ-आम तक आने में वे एक ऋतु से तीसरी ऋतु तक की यात्रा करते हैं। वे पूरी प्रचंड गर्मी भर पुष्ट होते रहते हैं। धरती है ही ऐसी कि सूर्यातप में निघरे हुए टिकोरे आषाढ़ आते-आते रसाल हो जाते हैं। लेकिन मनुष्य का अतिक्रमण है ही ऐसा कि जिन्हें देसी आम कहा जाता है; वे अब अपने अनंत स्वाद, रूप, रंग के साथ अगली पीढ़ियों को नहीं नज़र आएँगे।

• वाचालता एक भयानक बीमारी बन चुकी है। 

• वाचालता हमेशा ही दुर्गुणों में गिनी गई, लेकिन नैसर्गिक अधिकारों की आधुनिक व्याख्याओं में यह प्रायः विमर्श का विषय बनी हुई है। 

• स्वयं को व्यक्त करने, हस्तक्षेप करने और वाचाल हो जाने में प्रायः मात्रात्मक अंतर मिलता है। लेकिन यह अंतर सभ्यता की शुरुआत से ही गुणात्मक भी रहा है और गुणात्मक अंतरों के प्रति सचेत रहकर ही हम अभिव्यक्ति के इतने उच्च स्तर पर पहुँचे मनुष्य का भला कर सकते हैं। 

लेकिन दिखना ही है, बोलना ही है—जैसे आग्रहपूर्ण वाक्य आज के सोशल मीडियाई समय में व्यक्तियों की तात्कालिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के साधन बनकर रह गए हैं। वाच्य की व्यवहार-सत्ता छिपी नहीं है। 

यों कहा गया है कि विश्व में जो कुछ बहुविध दिख रहा है, उसकी नियामिका शक्ति शब्दों में ही निहित है : 

शब्देष्वेवाश्रिता शक्तिर्विश्वस्यास्य निबन्धनी

इसलिए जो कुछ भी आग्रहपूर्ण या चमकदार या प्रचलित हमारे सामने है, वह विवेच्य है। उसका आमुख चाहे जैसा भी हो, उसके घोषित लक्ष्य चाहे जितने उत्तम हों।

• इतिहास सबसे समकालीन विषय है। सभ्यताओं और पहचानों की टकरावों के इस दौर में वह समसामयिक घटनाओं की तरह ही है। वह चर्चित रहता है और लेखों-प्रतिलेखों में जगह पाता है। वह एक मज़बूत ‘ढँपने’ के नीचे रखी वह हड्डी है, जिसके लिए कुत्ते खुरचालते हैं, ग़ुर्राते हैं, लार गिराते हैं और फिर परस्पर ही लड़ बैठते हैं। इतिहास गपोलियाबाज़ों की जेब में खनक तो ला सकता है, लेकिन वह ख़ुद उनकी जेब में नहीं बैठता। 

इतिहास पर इतनी लेक्चरबाज़ी का क्या मतलब है, जब बात मैगी इतिहासकारों की न हो! वे तो यौन-अपराधों के मुद्दों पर भी अपना हल्का-सा स्टैंड लगाकर, बेचने के लिए एक किताब रख देते हैं। उनके इतिहास-वाचन और देश की समकालीन समस्याओं में काफ़ी गहरा संबंध है।

का सिंगार ओहि बरनौं राजा, 
ओहि क सिंगार ओहि पै छाजा

राजकुमारी पद्मावती का शृंगार उसी पर छाजता है। ‘छाजने’ की व्यंजना बड़ी है। यहाँ शोभन से लेकर शुभता तक का समावेश है। अवध में यह शब्द सिर्फ़ वस्त्र आभूषण आदि की शोभनीयता के लिए ही नहीं प्रयुक्त होता है, बल्कि क्रियार्थक चीज़ों के लिए भी प्रयुक्त होता है। यह उन वस्तुओं के लिए भी प्रयुक्त होता है, जिनसे रोज़मर्रा के काम होते हैं। कोई भी व्यवहार, वस्तु, निर्णय व्यक्ति के लिए शुभतादायक है या नहीं इसे ‘छाजने’ से इंगित किया जाता है। वे चीज़ें जो नहीं छाजती हैं, उनका व्यवहार रखने की मनाही होती है। 

सही ही तो है, कितनी सारी चीज़ें हमें नहीं छाजती हैं; फिर भी हम उन्हें धारण किए फिरते हैं, उनसे निज रूप की समृद्धि क्या ही होगी! सिर्फ़ देह का बोझ ही बढ़ेगा। 

क्या हम आभासी सामाजिकता और तात्कालिकता के मोह को धारण किए हुए कुरूप तो नहीं दिखने लगे हैं?

• व्यक्ति सुबह से अगली सुबह तक, इतने सारे परिणामवाची वाक्यों को उनकी आवारगी की हालत में ग्रहण करता है कि उसका ख़ुद का जीवन संदर्भहीन वाक्यों से बिंधा हुआ, अप्रामाणिक होता जा रहा है। 

कथा-दृश्यों से निकले हुए अच्छे सूक्त-वाक्य किसी संदर्भ-विशेष को समझाते हुए पूरी प्रमाणिकता के साथ हमारे जीवन में धीरे-धीरे शामिल होते हैं। इसके उलट अपनी दैनिकी से बेहाल मनुष्य आवारा वाक्यों की चपेट में आकर उन्हें अपने वेध्य जीवन घुस जाने देता है और फिर अपनी नई मति से अपना सब कुछ आहत कर लेता है। 

हे प्रकृति! 
संसार को संदर्भहीन आवारा वाक्यों से बचाओ! 
उनमें शब्दतत्त्व की अमरता नहीं है।

• क्या कुछ भी कहीं भी सचमुच का हो रहा है!—यह नैराश्य से भरा हुआ वाक्य है। लेकिन क्या नैराश्य भी सचमुच का हो रहा है? सचमुच का नैराश्य भी किसी बड़े भाव को जन्म दे सकता है। जीवन के प्रति निरर्थकताबोध से ही किसी शाश्वत ज्योति की तलाश शुरू होती है।

निराशा कोई साधारण चीज़ नहीं है और इस संदर्भ में अवधूत दत्तात्रेय के चौबीसों गुरुओं में से एक—‘पिङ्गला वेश्या’ के हृदय में वैराग्य होने की प्रक्रिया का स्मरण ज़रूरी है। उसे रोज़-रोज़ कई दिनों तक, तमाम बनाव-सिंगार के बावजूद ग्राहक न मिलने से घोर निराशा हुई और इस नैराश्य से उसके हृदय में वैराग्य का झरना फूटा और फिर उसने वैराग्य-गीत लिखा। 

निर्वेदः परमो जज्ञे चिन्ताहेतुः सुखावहः

तुम्हारा संघर्ष कठिन है। तुमने सारे दरवाज़े खोलने चाहे। तुम हर दर से ठुकराए गए हो। तुम ग़ुस्से से भरे हुए हो। 

अरे, ओ, अबे! हम-‘असरो, तुम्हारा टेक्स्ट कहाँ है? 

• क्या लगता है! उपरोक्त सोलह बिंदुओं से यू-ट्यूब पर कितना कंटेंट डाला जा सकता है? क्या इन बातों की कोई मॉनेटरी-वैल्यू भी है?

•••

अन्य बिंदुघाटी यहाँ पढ़िए : कविताएँ अब ‘कुछ भी’ हो सकती हैं | क्या किसी का काम बंद है! | ‘ठीक-ठीक लगा लो’—कहना मना है | करिए-करिए—अपने प्लॉट में कुछ नया करिए! | ‘बिंदुघाटी’ पढ़ते तो पूछते न फिरते : कौन, क्यों, कहाँ?

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