बिंदुघाटी : क्या किसी का काम बंद है!
अखिलेश सिंह
18 मई 2025

• जाते-जाते चैत सारी ओस पी गया। फिर सुबह की धरणी में मद महे महुए मिलने लगे। फिर जाते वैशाख वे भी विदा हुए। पाकड़ हों या पीपर, उनके तले गूदों से पटे पड़े हैं। चिड़ियों को चहचहाने के लिए और क्या चाहिए! भरपेट गूदा खाने के बाद, उनके ही राग-मल्हार से बादल भी उमड़ आते हैं—थोड़ी बहुत बरखा लिए।
• क्या किसी का काम बंद है!
जेठ आता ही जाता है। डामर से उठने वाली धाह चमड़ी को कौरे डालती है। लेकिन क्या किसी का काम बंद है!
ख़बरें ही ख़बरें हैं। बुरी ख़बरें हैं। बुरी ही ख़बरें हैं। बहुत बुरी। मरने की ख़बरें हैं। डरने की ख़बरें हैं। लोगों में चर्चा है। इसकी ही चर्चा है। लेकिन क्या किसी का काम बंद है!
• बिंदुघाटी में जहाँ भी निगाह जाती है, कोई न कोई यूट्यूबर महनीय प्रयास करता नज़र आता है। इस क्रम में ही हिस्ट्रीशीटर पाड़े जी ने मॉक ड्रिल की घोषणा के बाद अपनी प्रतिक्रिया कुछ यूँ व्यक्त की :
‘‘यह मेरा देश है। बहुत बड़ा देश है। यहीं मेरा यूट्यूब चैनल है और यहीं के ही अथाह सब्सक्राइबर हैं। बस इतना ही कहना है—यहीं पैसा कमाऊँगा। बहुत कम हिले-डुले ही कमाऊँगा। बहुत ज़्यादा कमाऊँगा... और कमा-कमाकर यहीं मर जाऊँगा।’’
• सब अपने-अपने आक़ाओं से ठगे जाते हैं। थके जाते हैं। एक यूट्यूबर ही है, जो बिना थके सबको ठगे जाता है। मूड और ट्रेंड में होने वाले बहुवचन का सबसे तात्कालिक मौद्रीकरण करता है—ट्रेंड डालो, पैसा निकालो।
• संसार में कथाओं का ही कारोबार है। एक कथा का दूसरी से युद्ध चलता ही रहता है। युद्ध की ज़रूरत की कथाएँ लाभकारी हो सकती हैं—युद्ध नहीं। युद्ध की समग्र संरचना भी कथाओं से ही निर्मित है। लेकिन कथाएँ भी काल-क्रम से परे कहाँ हैं! अगर उत्तर महाभारत की कथा-स्थिति पहले ही उपस्थित हो जाए तो महाभारत न हो। युद्ध के बाद कोई शांति होती तो महाकाव्यों के अंत हमें इतना विचलित न करते। आधुनिक भारत ने जितने कम युद्ध देखे हैं, उससे अधिक युद्ध के महाकाव्य का स्तवन किया होगा—क्या सचमुच!
क्या अशोक की युद्धोत्तर निराशा और युधिष्ठिर के मन में युद्ध के प्रति उपजे निरर्थकताबोध को ‘रीलहटी’ में दिमाग गँवा चुके भारत के लोग थोड़ा भी समझते हैं?
• आईटी अभियानों से प्रसरित ज्ञान से तुंद लोगों के लिए ईशोपनिषद कहता है :
‘‘अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते’’
[जो अविद्या का अनुसरण करते हैं, वे घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं।]
सबको किताबें फेंककर मारने वालों के लिए, ईशोपनिषद इसके आगे कहता है :
‘‘ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः’’
[जो केवल विद्या में ही रत रहते हैं, वे मानो उससे भी अधिक घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं।]
• उन दिनों एक चर्चित कविता विशेषांक का संपादक दर्पण-प्रेमी हो चला। वह शीशे के सामने प्रायः बैठा रहता और अपनी शक़्ल ‘कुछ-कहीं गड़बड़ है’ शीर्षक सिंड्रोम से खुरचता रहता। खुरचते-खुरचते उसका चेहरा बेहद कृश हो चला। एक दिन बेसिन पर वह मुँह धुलने के बाद काफ़ी देर तक झुका रहा। इतनी देर तक झुका रहा कि वह कब हटा होगा; इसके लिए विशेषांक का संपादकीय पढ़ना पड़ा, जिसका केंद्रीय भाव यों था :
उस दिन बेसिन पर कुल्ला करते हुए मैं कई बार फचफचाया। कई बार मुँह में उँगली घुमाई। मेरी उँगली का एक वार इतना तगड़ा था कि मेरे बीस दाँत गिर पड़े। अल्पदृष्टि के कारण उन दाँतों को मुझे बहुत देर तक खोजना पड़ा। लेकिन इतनी देर तक खोजने के कारण वे दाँत बेहद चमक गए और उन्हें मैंने कविता विशेषांक में जगह दी। मैं कुछ भी बेमतलब नहीं करता।
• घूमते-घामते नज़दीक की बाज़ार पहुँचा—शाहगंज। यह आस-पास के गाँवों से चलने वाला बाज़ार है। यहाँ तितर-बितराहट या कहें अस्त-व्यस्तवाद का साम्राज्य है। यहाँ भंग-व्यवस्था का सौंदर्य है।
आस-पास के गाँवों में खेतों से उगकर फिर उन्हीं में जाकर डूब जाने वाले सूरज की दैनिकता है।
• वे जो बोरा भरकर दिल लिए घूमते हैं—उनका वज़न अँगूठे भर भी नहीं होता है। अभिधा में यह बात सीमित ही है। इसे समझने के लिए एक सीमित स्पेस में ही रहना होगा।
• सबको पता है कि पड़ोसी बुरे होते हैं। सबको पता है कि घर से पकवान नहीं ख़ुशबू निकलना चाहिए। सबको पता है कि घर ख़ाली है, यह भी छुपा होना चाहिए। सबको पता है कि चीन सबके आगे है। सबको पता है कि अमेरिका सबके पीछे है। सबको कितना पता है देश और विदेश-नीति! दायाँ हाथ भी बाएँ से कर सकता है बग़ावत—यह भी सबको पता ही है।
सरलीकरणों ने संसार को कलाविहीन और दुःखदायी कर रखा है—यह बात दोहराई जानी चाहिए।
• आपकी सजी-धजी ख़राबियों को आने वाली ख़राबियाँ अपने लिए इस्तेमाल करेंगी। यही रचना का कुरुक्षेत्र है, जहाँ रश्मिरथी का पहिया धँसना ही है। यह बात कवियों के लिए है—आप न हों तो आपके लिए नहीं है।
• समाज हो या फ़ेसबुक का समाज, विवादों का सर्वनाम-प्रिय हो जाना अच्छा नहीं लगता। संज्ञा-शून्यता आपके लिखे की सार-शून्यता है। महेश को महेश लिखिए, मालिनी को मालिनी। मैं आपको पढ़ूँ और फिर आपसे ‘वह’ और ‘वही’ जैसे सरल शब्दों का अर्थ पूछने आऊँ— यह बात बुरी है—बहुत बुरी। भाषा को दयनीयता के पंक में न खिलाइए।
• आचार्य यायावरीय कवि-कृति के लिए कहते हैं कि उसकी तटस्थ व्यक्ति से परीक्षा करवानी चाहिए—‘परैश्च परीक्षयेत’...
उनकी इस मंशा पर मैं हिंदी की पत्रिकाओं और पोर्टलों के वर्तमान संपादकों की ओर से घोर आपत्ति रखता हूँ, क्योंकि घरेलू ठेकेदारी वाले साहित्यिक पोर्टलों के संपादक वर्तनी व वाक्य-प्रयोग की शुद्धि तक नहीं जानते। दूसरे, सांगठनिक ठेकेदारी वाले संपादक, तराज़ू में बहुत देर तक संतुलन बैठाने के बाद भी पासंग फिटियाने की वबा की चपेट में हैं।
अब एक सच्ची तटस्थता सिर्फ़ तटस्थता के प्रति ही रह गई है।
• एक चर्चित उपन्यास पर पाँच लोगों ने निश्चित अंतराल पर चर्चा की। पाँचों ने यह बात ज़रूर कही कि वह उपन्यास इक्कीसवीं सदी में बहुत श्रेष्ठ है। इन पाँचों के साथ उस उपन्यास के लेखक की रसगुल्लेदार तस्वीरें हैं। इनमें से कुछ ही को उसने अभी शाया होने दिया है।
• वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य से—
हे साहित्यिको! कुछ चेत जाओ। क्लीशे पर क्लीशे मत रचो। आचार्य यायावरीय कहते हैं कि साहित्यकार के लिए टीप-टीपकर चित्र खींचना बुरी बात है : ‘प्रतिबिंबकल्प : परिहरणीय’
अगर ऐसे ही रचते रहे तो साहित्य के इतिहास में तुम्हारा वैसा ही महत्त्व होगा, जैसा कि बकरी के गले में फूट पड़े स्तन का होता है : ‘‘अजागलस्तनस्येव तस्य ‘काव्य’ निरर्थकं’’
• सारी कचहरियाँ आरोपों से ही गुलज़ार हैं। लोकप्रियता के सभी प्लेटफ़ॉर्म भी ऐसे ही जीवन पाते हैं।
• क्या लगता है! वे दृश्य जो आपने पिछले हफ़्तों में देखे होंगे, उनसे कितनों के खाते में कितना क्रेडिट हुआ होगा!
•••
बिंदुघाटी का आरंभ यहाँ देखिए : कविताएँ अब ‘कुछ भी’ हो सकती हैं
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