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जिम जाने वाला लेखक

यह एक भटका हुआ निबंध है, इसको अपने रिस्क पर गंभीरता से लें, मुझे भी गंभीरता से अपने रिस्क पर लें। मैं बहुत दोग़ला हूँ!

कुछ वक़्त पहले एक विकृत विचार दिमाग़ में आया; क्या एक लेखक जिम प्रेमी हो सकता है? यह बहुत वक़्त से चल रहा था दिमाग़ में, क्योंकि और कुछ आता ही नहीं। ‘विकृत’ इसलिए नहीं कि यह विचार विकृत है, बल्कि इसलिए कि हिंदी साहित्य की दुनिया में उसे विकृत माना जा सकता है। पता नहीं! हिंदी वाले कैसे सोचते हैं। शायद आलसी होंगे? और यह भी मैं मान ही रहा हूँ। मान लेना अच्छी कला है, जो हमें बचपन में गणित से सीखने को मिलती है। सच का मुझे पता नहीं, और मैं जानकार करूँगा भी क्या?

वैसे, यह विचार कि ‘पाठक क्या सोचेंगे’ या ‘यह हिंदी में नहीं चलता’, या “यह विकृत विचार है’, ‘यह रचना हिंदी के लोकाचार से भिन्न है’; हिंदी साहित्य के पुराने और गंभीर प्रश्न रहे हैं। जो हिंदी लिखने वाला और आलोचक दोनों के ज़ेहन में रहते ही हैं। यह मैं ही नहीं कहता बल्कि यह बात कई बार अलग-अलग मंचों से दोहराई गई है। उदाहरण के लिए : अकादमिक रश्मि सदन की किताब ‘इंग्लिश हार्ट, हिंदी हार्टलैंड’ में—अनुवादक एनाक्षी चैटर्जी का 2001 के साहित्य अकादेमी के मंच पर दिए गए एक भाषण ज़िक्र है, जो उन्होंने विक्रम सेठ के उपन्यास ‘A Suitable Boy’ के हिंदी अनुवाद पर दिया था। उसमें उन्होंने ज़ाहिर तौर पर यह निराशा दर्ज की थी कि चमड़ा उद्योग का जो विवरण अँग्रेज़ी संस्करण में था, वह हिंदी में नहीं आया, क्योंकि अनुवादक को लगा कि ऐसा करना शायद हिंदी पाठकों को असहज करना होगा। शायद हिंदी अनुवादक को गणित प्रिय थी।

हिंदी में देखा गया है कि ‘कल्पना की राजनीति’ (Politics of Imagination), विशेषकर अभिजात वर्ग की लिखाई में; चाहे वह दलित, आदिवासी या महिला पहचान के बारे में लिख रहे हों या फिर आम जीवन के भेदभाव और संघर्ष को चित्रित कर रहे हों, उतनी मुखर नहीं दिखाई देती, जितनी कि अँग्रेज़ी में। यहाँ मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि अँग्रेज़ी साहित्य इन अनुभवों की कोई ‘बेहतर तस्वीर’ गढ़ता है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि अँग्रेज़ी का अभिजात वर्ग, अपनी कल्पना में इन अनुभवों को बार-बार कला, सिद्धांत और वैश्विक संदर्भों से जोड़ने की कोशिश करता है। वहीं हिंदी में यह या तो प्रच्छन्न रूप से होता है, या होता ही नहीं, या फिर यह भी हो सकता है कि कुछ लेखक ऐसा कर रहे हों और मैंने उन्हें पढ़ा न हो। अब क्योंकि मैं भी गणित का अच्छा विद्यार्थी हूँ, मैं भी जो मान लेता हूँ तो मान लेता हूँ।

ख़ैर, हिंदी में जो भी लेखक वंचित समुदायों के अनुभवों को लिख रहे हैं, वे या तो उन्हीं वर्गों से आते हैं या उन्होंने उन अनुभवों को बहुत क़रीब से देखा है। लेकिन हिंदी की कल्पना, जाति की गलियों में या वंचित समुदायों के अनुभवों में उस पैमाने पर विचरण नहीं कर पाती, जैसा हम अँग्रेज़ी साहित्य में देखते हैं।

अँग्रेज़ी में लेखक की कल्पना हर वर्ग तक पहुँचने की कोशिश करती है। उदाहरण के लिए तनुज सोलंकी का हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ‘मांझी मेहम’, जिसमें मांझी समुदाय का एक पात्र नायक के रूप में सामने आता है। इसी तरह, चाहे अरुंधति रॉय का ‘गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ हो या सलमान रश्दी का ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’, कई ऐसे उदाहरण हैं जहाँ कल्पना भले ही अभिजात वर्ग की सतही समझ से निकली हो, लेकिन उसने वंचनाओं, असमानताओं और पहचान के सवालों को बड़ी शक्ति से व्यक्त किया है।

मैं यह नहीं कह रहा कि हिंदी में कल्पना की राजनीति है ही नहीं—बिल्कुल है। लेकिन वह अँग्रेज़ी की तुलना में अलग तरह से अभिव्यक्त होती है। कई बार वह थोड़ी ‘सेल्फ़-सेंसर्ड’ भी हो जाती है, जिससे लेखक का शिल्प भी प्रभावित होता है।

ख़ैर मेरे विकृत विचार पर आते हैं।

“मैं किसकी बात कर रहा था? ओह हाँ! जिम जाने की। वो एक्चुअल्ली, मैं भी जिम जाता हूँ न तो, यह निबंध ख़ुद को गंभीर लेखक साबित करने का प्रॉपगेंडा है। तो थोड़ा सोच समझकर बोलना पड़ेगा।”

तो बात यह है कि जब लोग लेखक की छवि गढ़ते हैं, तो एक गंभीर, थोड़े विदूषक, थोड़े रूहानी किस्म के व्यक्ति की कल्पना करते हैं। जिम जाने वाले से गंभीरता की उम्मीद नहीं की जाती। या कहें, उसे अपनी साहित्यिक गंभीरता को बार-बार सिद्ध करना पड़ेगा और करना चाहिए भी। 

तुम जिम जा रहे हो, पसीना बहा रहे हो, इससे तुम्हें लेखक मान लें? रचना कब करोगे? ज़्यादा हीरो बन रहे हो?

भाई! आराम बहुत इंपोर्टन है—कला के सृजन के लिए, चाहे यह आराम आलस्य की सीमाओं को भी तोड़ दे। क्या मस्त ख़याल आते हैं बिस्तर पर लेटे-लेटे।

तुम जिम जाने वाले, व्यायाम करने वाले क्या समझो आलस्य के सौंदर्य को, तुमको तो प्रोटीन इंटेक बढ़ाने, अच्छी डाइट लेने से कहाँ फ़ुर्सत होगी। 

वैसे बात साफ़ है! अगर कोई लेखक पसीने में तर-ब-तर होकर मिरर सेल्फ़ी रोज़ इंस्टाग्राम या फ़ेसबुक पर डालेगा, तो उसे कौन गंभीर मानेगा? सच तो यह है कि लेखक के सोशल मीडिया पर ज़्यादा कुछ साझा करने से ही उसकी गंभीरता संदिग्ध बन जाती है। उम्मीद होती है कि वह सिर्फ़ साहित्यिक गोष्ठियों की तस्वीरें साझा करे, निजी जीवन की तस्वीरें नहीं, वरना उसका औरा कम नहीं हो जाएगा?

लेकिन हाँ फ़ेसबुक पर लिख सकते हो, उस पर हिंदी के सब लेखक लिखते हैं। साहित्य के अलावा सब। कौन किसके साथ फ़ोटो खींचा रहा है, कौन क्या कर रहा है, सबको सबसे मतलब है। समस्या यह है, या यूँ कहें ज़रूरी बात यह है कि सभी लेखक साहित्य को बड़ा इम्पॉर्टेंट समझते हैं।

फ़िल्मों से इम्पॉर्टेंट कैसे हो सकता है साहित्य? एक मिनट में तुम्हारी किताब चैटजीपीटी पर डालूँगा और समरी निकाल दूँगा। मैं बहुत बड़ा साहित्यिक डॉन समुअल पप्पी हूँ। मुझसे पंगा नहीं लेने का।

चलो अब बात पर आते हैं।

बात वही है कि ‘अच्छा लेखक’ सिगरेट पिएगा ही, शराब पिएगा ही, अगर यह सब नहीं भी करेगा तो उसका एक गुमनाम संसार होगा, जिसके बारे में दुनिया को पता नहीं होगा—इसके बिना लेखन अधूरा है। वरना, नियमों में बँधा लेखक रचनात्मक विचार कहाँ से लाएगा? बताइए?

निर्मल वर्मा अपनी किताब शब्द और स्मृति के एक निबंध में लिखते हैं : एक कलाकार मेरे लिए हमेशा एक बोहेमियन और विदूषक रहा है। इसलिए जो लेखक अपने को बहुत गंभीरता से लेते हैं, वे हमेशा मुझे कुछ हास्यास्पद-से जान पड़ते हैं।

इस विचार से शायद कई ‘गंभीर लेखक’ जो अपने आपको गंभीर समझते हैं, वह भी सहमत होंगे। क्योंकि वह अपने आपको गंभीर और बोहेमियन दोनों समझते हैं, पर वह इस बात को नहीं मानेंगे। वह ख़ुद को यह यकीन दिलाते रहते हैं कि वह बहुत ही उत्कृष्ठ लेखक हैं। उनका ज्ञान और समझ बहुत ही ज़्यादा है और उनके लिखे से सरकार भी हिल सकती है।

लेकिन ‘जिम जाने वाले लेखक’ के जीवन में एक ढांचा है, अनुशासन है, एक प्रतिरूप है, जिसका वह हर दिन पालन करता है। उसका जीवन आम लोगों जैसा दिखता है। उसमें ‘कला की वह ऊबड़-खाबड़ता’ नहीं बचती जो लेखक की पारंपरिक छवि का हिस्सा मानी जाती है।

लेकिन इस सोच को एशियाई लेखक बार-बार चुनौती देते हैं। वैसे उदाहरण तो यूरोप, अमेरिका में मौजूद कई लेखक हैं जैसे चार्ल्स माइकल पल्हनीक। पर मैं एशिया के लेखकों का ही उदाहरण दूँगा।

अगर मैं दो जापानी लेखकों का ज़िक्र करूँ— हारुकी मुराकामी और युकईओ मिशिमा—तो मुराकामी को दौड़ना बेहद पसंद है, इतना कि उन्होंने दौड़ने पर ही किताब लिख दी (यह बात अलग है कि कुछ साहित्यिक लोग मुराकामी को सिर्फ़ एक सतही और लोकप्रिय लेखक मानते हैं) और मिशिमा तो मार्शल आर्ट्स व युद्ध तकनीकों में पारंगत थे। क्या इनके जीवन में बोहेमियन होने की अर्हता नहीं है? बिल्कुल है।

मिशिमा को बचपन से ही कल्पना की दुनिया और रोल-प्लेइंग का आकर्षण था, वहीं मुराकामी का अपने अकेलेपन से जुड़ा एक विचित्र, आत्म-संवेदी संसार है—जो उनके साहित्य में झलकता भी है।

साहित्य-संसार में हर लोकप्रिय चीज़ (ख़ासकर अगर लेखक ज़िंदा है) सतही हो सकती है, या मानी जा सकती है, उसमें कुछ-न-कुछ ख़ामी निकल आती है। 

ख़ैर पॉइंट पर आते हैं—अगर हम इतिहास की ओर देखें, तो यह विचार कि लेखक के जीवन में कोई ऑर्डर या अनुशासन नहीं हो सकता; या लेखक अपने शरीर और उसके सौंदर्य का ख़याल नहीं रखता—यह विचार पश्चिम से आया है। कितनी अजीब बात है, अँग्रेज़ी में विक्टोरियन लेखिकाएँ ऐसी महिला चरित्र लिख रही थीं, जिनको वॉक करना पसंद है, वह उनकी आज़ादी से जुड़ा हुआ देखा गया, वहीं ऐसे स्टेरीओटाइप बन गए। लोगों ने काफ़्का और कीट्स जैसे लेखकों की त्रासदीपूर्ण छवियों से पूरे साहित्यिक संसार की छवि तय कर दी। यह रट सी बन गई कि एक अच्छा लेखक नर्ड होता है, बाक़ी सब हल्के हैं। यह विचार लेखक के जीवन और उसकी कल्पनाशीलता का तय ढाँचा मानता है। 

अगर हम प्राचीन यूनान की ओर लौटें, तो प्लेटो से लेकर अरस्तू और सुकरात तक—इन सभी के शरीर मस्क्युलर माने गए हैं। “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है”—जैसे विचार आज तक जीवित हैं, जिनकी जड़ें ग्रीक चिंतन में हैं।

तो क्या यह बोहीमियन नहीं थे? बोहेमिया एक किस्म की रट का ही तो विरोध करता है, समाज के तय मानदंडों से थोड़ा अलग होता है। तो एक अनुशासित व्यक्ति भी एक किस्म की बोहेमियन गंभीरता ला सकता है। इसलिए, यह ज़रूरी नहीं कि एक लेखक अपनी गंभीरता साबित करने के लिए अव्यवस्थित और विखंडित जीवन जिए। एक व्यक्ति, अनुशासन और ऑर्डर के साथ भी बोहेमियन हो सकता है—बिना किसी छद्म गंभीरता के आवरण के। छद्म गंभीरता भी हिंदी की एक विशिष्ट समस्या है, जिसको निर्मल वर्मा हास्यास्पद मानते हैं।

मसलन अगर आज के वक़्त में 22- 23 साल का व्यक्ति विवाह कर लेता है और माइंडलेस डेटिंग के चंगुल में नहीं फँसता, या सोशल मीडिया पर ज़्यादा वक़्त नहीं बिताता—तो ये भी तो एक किस्म का विरोध है? जहाँ उसके सभी साथी कई-कई लोगों को डेट कर रहे हैं, पार्टीज में जा रहे हैं, वो इन सब से इतर एक अनुशासित ज़िंदगी ख़ोज रहा है।

पता नहीं मेरे लिए भी यह सवाल ही है, जिसका उत्तर शायद मेरे पास अभी नहीं।

बीते एक साल में कई लेखकों से मिला ख़ासकर जो अपने आपको लिटरेरी लेखक मानते हैं, उनमें एक अजीब-सी, चुपचाप-सी, स्थायी गंभीरता होती है। यद्यपि फ़ेसबुक पर वह कुछ भी बकवास कर रहे होते हैं—साथी लेखकों को गालियाँ दे रहे होते हैं, लेकिन सार्वजनिक मंच पर उनके चेहरे पर हमेशा एक ज़मीन की ओर देखती हुई, भारी-भरकम, विचारशील गंभीरता टिकी रहती है। इसके उलट, लोकप्रिय साहित्य का लेखक मंच पर जाकर आराम से कुछ भी कह देता है। उसके भीतर भी ‘लेखक’ होने की एक छद्म गंभीरता होती है, ढोंग करना उसे भी आता है, लेकिन वो उसे अपने चरित्र का हिस्सा नहीं बनने देता। वो उस गंभीरता को पहन कर नहीं चलता। ये उनका विशिष्ट गुण है।

मेरे एक बहुत अच्छे दोस्त हैं जो अँग्रेज़ी में भी लिखते हैं, उनमें एक सुंदर बचपना है, लेकिन वह कभी बाहर नहीं आने देते। क्योंकि अगर वह ऐसा करेंगे तो उनके साथी लेखक उन्हें गंभीर नहीं मानेंगे। थोड़ा अजीब है हिंदी का संसार।

साहित्यकार अपनी गंभीरता को बहुत ही गंभीरता से लेते हैं, वह नहीं चाहते कि उनको लोग उनकी और कोई पहचान से जाने, वह सिर्फ़ गंभीर लेखक होना चाहते हैं। और फिर कुछ नया होता है जो उन्होंने नहीं देखा होता उसकी ट्रोलिंग कई हद तक विरोध करते हैं। 
जाने वाला लेखक, जो अपने शरीर के सौंदर्य और स्वास्थ्य का ख़याल रख रहा है, शायद ‘परंपरागत बौद्धिक मानदंडों’ पर कभी खरा नहीं उतर सकता। इसलिए उसे अक्सर कमतर समझा जाता है।

अस्ल दिक़्क़त यह है कि जो व्यक्ति शरीर की देखभाल करता है, उसे बौद्धिक नहीं माना जाता और शायद माना भी नहीं जाना चाहिए! जिनका शरीर अच्छा होता है, उनकी बुद्धि अक्सर ‘मोटी’ मान ली जाती है।
कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि हिंदी में लोगों को अब गहरी साँस लेनी चाहिए, कम बुराइयाँ करनी चाहिए, अच्छा खाना चाहिए, वॉक पर या जिम जाना चाहिए और अच्छा लिखना चाहिए।

यह एक युवा लेखक की दरख़्वास्त है। इतना झगड़ा देखकर डर लगता है। कभी-कभी लगता है, काश अँग्रेज़ी में ही लिखते तो शायद ज़्यादा सुकून होता।

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