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झाँसी-प्रशस्ति : जब थक जाओ तो आ जाना

मेरा जन्म झाँसी में हुआ। लोग जन्मभूमि को बहुत मानते हैं। संस्कृति हमें यही सिखाती है। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, इस बात को बचपन से ही रटाया जाता है। पर क्या जन्म होने मात्र से कोई शहर अपना हो जाता है? या उस शहर में आवास बना लेने से वह अपना हो जाता है? या उस शहर में संपत्ति बटोर कर रख लेने से? क्या आधार होते हैं, जब आप उस नगर को अपना नगर कह सकते हैं? या उससे भी बड़ी बात यह है कि वह नगर आपको यह कहता प्रतीत होता है कि आप उस के अपने हैं?

झाँसी में मेरी दो हाथ ज़मीन भी नहीं है। मेरे सरकारी महकमों के दस्तावेज़ों में भी झाँसी का कोई अता-पता नहीं है। मेरा आधार कार्ड, ड्राईविंग लाइसेंस, राशनकार्ड सब झाँसी के स्पर्श से मुक्त है। फिर क्या है कि झाँसी में प्रवेश करते हुए एक अघोषित स्वीकृति-सी अनुभूत होती है कि यह मेरा अपना शहर है?

समय आदमी को कई चीज़ें सिखाता है। समय से बड़ा कोई शिक्षक नहीं और धैर्य से बड़ा कोई साधन नहीं। आदमी की उम्र निकलती चली जाती है और साथ-ही-साथ उसके विवेक का विकास होता चला जाता है। समय के साथ और कई शहरों में अपने दिन बिताने के बाद मुझे महसूस हुआ कि हर शहर की अपनी एक चेतना होती है। जो उस शहर की तमाम इमारतों, रास्तों, गलियों, चौक-चौराहों, बस-अड्डों, रेलवे स्टेशनों, पुलों, फ़ुटपाथों, ट्रैफ़िक लाइटों, गड्ढों, कूड़े के ढेरों सब के साथ सम्मिलित होते हुए भी उसके पार की होती है। आप किसी शहर को स्वीकार नहीं करते हैं। अपितु शहर आपको स्वीकार करता है।

हर शहर का अपना एक तिलिस्म होता है। आप जब तक उस तिलिस्म से नहीं बँधते, तब तक आप उस शहर के बाशिंदे नहीं हो सकते। मैं कई ऐसे लोगों को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ, जो एक शहर विशेष में कई दशक बिताने के बाद भी उसे अपना शहर कह देने की सहजता को प्राप्त नहीं कर पाते। दूसरी तरफ़ मैं ऐसे लोगों से भी मिला हूँ, जिन्होंने किसी शहर में कुछ ही वर्ष बिताए परंतु वह शहर अपने तमाम पहलुओं के साथ उनके अस्तित्व और उनकी पहचान का अभिन्न हिस्सा बन गए।

जिज्ञासा उठती है कि वो तिलिस्म क्या है? अस्ल में ये तिलिस्म और कुछ नहीं बल्कि उस शहर के विभिन्न अवयवों के प्रति एक अदृश्य जुड़ाव और अधिकारबोध की भावना ही है। पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने सुप्रसिद्ध लेख ‘भारत माता’ में भाव व्यक्त करते हैं कि ‘भारत माता की जय!’—करते हुए हम हर उस चीज़ की जय करते हैं, जो भारत की है या भारत में मौजूद है। भारत के समस्त नदी, पहाड़, जंगल, खेत और लोग। सब कुछ। सबकी जय। इसी तरह जब मैं झाँसी शहर को अपना कहता हूँ तो उस शहर के हर पहलू को अपना मान रहा होता हूँ। उसके चौक-चौराहों, गली-कूचों, समोसे की दुकानों, गोलगप्पे के ठेलों। सबको। एक स्नेहिल संबंध की अघोषित घोषणा। जो कतिपय आध्यात्मिक भी मालूम पड़ती है।

किसी शहर के अपनत्व की ऐसी अनुभूति रातों-रात नहीं जन्मती। बल्कि यह काल की गति का परिणाम होती है। और कई बार, कुछ लोगों के लिए नहीं ही होती है। हम जब किसी शहर में हो रहे नवनिर्माणों को देखकर प्रसन्न होते हैं। या शहर में हो रहे नुक़सानों को देखकर दुखी होते हैं। तब हमें मालूम चलता है कि ये शहर हमारा है। तब उस अपनत्व की अनुभूति हमारे हृदय में प्रकट होती है। झाँसी में चौड़ी होती सड़कें, बनते नए पुल, नए-नए उद्यानों, नवीनतम संग्रहालयों को देखकर जितना सुकून मैंने महसूस किया है, वह अवर्णनीय है। मैंने कितनी बार अपने मित्रों के सामने इस बात को दंभ के साथ कहा है कि झाँसी की सबसे बड़ी उपलब्धि उस शहर में दिनों-दिन विकास के बाद भी हरियाली में गिरावट का न आना है।

अस्ल में प्रेम और घृणा दोनों संक्रामक होते हैं। जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसकी हर बात से प्रेम करते हैं। वहीं जब हम किसी से घृणा करते हैं तो फिर उसी हर बात से घृणा करते हैं। इसी कारण मैं ऐसी अप्रासंगिक बात पर तक दंभ दिखा चुका हूँ कि झाँसी में रास्ते चौड़े हैं।

झाँसी मेरे लिए उस स्त्री की जैसी है जो तुम्हारे ऊपर मातृसम स्नेह लुटाती है। जैसे हर बार किसी शहर की ओर जाते हुए झाँसी शांति से विदा देती है कि अपनी इच्छा की करो। जाओ! जिस शहर जाना है जाओ। जो काम करना है, करो। जिससे मिलना है, मिलो। जो उठापटक करना है, कर लो सब प्रयास। जब थक जाओ तो आ जाना। झाँसी जैसे कहीं जाते हुए अनुमति देती है कि जाओ दुनिया भर की सैर करो। और जैसे एक आश्वाशन देती है कि जब घूम लो तो वापस आ जाना। तुम कभी भी लौट सकते हो। लगता है जैसे किसी शहर से, जिसे तुमने मिथ्याभास में कभी अपना मान लिया था, से तिरस्कृत होकर, लज्जित होकर, प्रताड़ित होकर, बहिष्कृत होकर या असफल होकर जब तुम वापस लौटो तो झाँसी तुम्हें संशय या निंदा की दृष्टि से नहीं देखती। बल्कि जैसे आसन बिछाती है। भोजन परोसती है। तुम बैठकर खाते हो और वो तुम्हारे बगल में पँखा झुलाते हुए कहती है कि यही नियति है। यही प्रारब्ध है। यही जीवन है।

झाँसी के पास जैसे मेरे लिए भरपूर धैर्य है। जैसे झाँसी कहती हो, “मुझे तुम्हरी फ़ितरत मालूम है। तुमको क्या भाता है, यह भी मालूम है। जाओ दुनिया के अनुभव लो। जाओ दिल्ली में जाकर अमृतसरी छोले-कुल्चे को खाकर उछल लो। जाओ पूर्व की ओर जाकर लिट्टी-चोखा खाकर उसकी तारीफ़ें करते न थको। जाओ ब्रज में जाकर बेड़ई के गुण गाओ। जाओ मालवा के पठार पर पोहे की प्रशस्तियाँ लिखो। जब सब तरह का झूठ फैला लो तो घर आ जाना। यहाँ के समोसों से ही आत्मा तृप्त हो सकती है तुम्हारी।”

झाँसी ने जैसे मुझसे कभी झाँसी में होने का कारण नहीं पूछा। झाँसी में बिना कारण के, बिना उद्देश्य के, बिना तर्क के उपस्थित रह सकता हूँ। जैसे ऐसा करना न झाँसी को खटकता हो। न ही मुझे खटकता हो। यह जैसे किसी और शहर के साथ संभव नहीं है। बनारस में मैंने कई वर्ष बिताए हैं। मुझे लगने लगा था कि बनारस जैसे मेरा शहर हो। पर कॉलेज ख़त्म होने के बाद जब मैं बनारस गया तो लगा जैसे बनारस मुझसे सीधा-सीधा सवाल कर रहा हो, “यहाँ क्यों आए हो? क्या है अब यहाँ तुम्हारा? जो काम करने आए हो करो और निकलो यहाँ से। इसके पहले कि मैं तुम्हें अपमानित करूँ।” झाँसी के साथ मेरा ऐसा कोई अनुबंध नहीं है कि एक समय सीमा ख़त्म होने के बाद झाँसी एकदम से संबंध विच्छेद की घोषणा कर दे।

और बनारस ही क्यों, अन्य शहर भी अपने सवाल सामने रखते हैं। दिल्ली जाओ तो दिल्ली अपने अहंकार में कहती दिखती है, “तुम यहाँ क्यों हो? तुम यहाँ शोभा नहीं देते। मैं अतिमहत्त्वपूर्ण हूँ। मैं महान् लोगों के लिए हूँ। सबकी कामनाओं का केंद्र। सबकी वासनाओं का लक्ष्य। तुम जैसे लोग यहाँ शोभा नहीं दे रहे।” लखनऊ जाओ तो वो अपने खोखले शिष्टाचार में कहता दिखता है, “जनाब! आए हो तो बढ़िया किया। आओ। मेरा सौंदर्य देखो। खाओ-पियो। जो काम हो करो। और उसके बाद अलविदा हो।” बस झाँसी को मेरे झाँसी में होने से कोई समस्या होती नहीं दिखती। क्योंकि अपने शहर में होने के लिए किसी कारण की आवश्यकता नहीं होती है।

मैं प्रायः रात का सफ़र करता हूँ। अक्सर ऐसा होता है कि कभी किसी यात्रा से वापस हुआ। बड़े सवेरे झाँसी में उतरा। सारी दुकानें बंद। रास्ते गाड़ी-घोड़ों से मुक्त। कोलाहल नदारद। कुछ चाय की दुकानें, दूध ले जाते हुए ग्वाले और ढेर लगाकर बैठे अख़बारवालों के अलावा सब नींद में। सारा शहर सोया हुआ। ऐसे में झाँसी मेरे कान में उस प्रातःकाल की सुरीली और शीतल हवा के जरिए कह रही हो—आओ। स्वागत है। घर वापस आ गए हो। एक बालक को जैसे माँ की गोद में सबसे सुरक्षित महसूस होता है। जैसे चिड़िया को अपने घोंसले में आकर महसूस होता है। एक लंबी यात्रा के बाद मुझे भी उसी किस्म का झाँसी में सुबह-सुबह आसमान को देखते हुए महसूस होता है।

झाँसी के प्रति यह अपनत्व इसीलिए भी है कि झाँसी में सहजता है। झाँसी को रोमांटीसाइज नहीं किया गया है। न ही उसके लिए प्रशस्तियाँ लिखीं गईं हैं। न धार्मिक स्तुतियाँ झाँसी की उपासना के लिए रचित की गईं। झाँसी न पौराणिक है। न ही अति प्राचीन। झाँसी जिस व्यक्तित्व के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध है, वह महान् रानी तक झाँसी में न पैदा हुईं, न ही स्वर्ग सिधारीं। झाँसी में कुछ ऐसा नहीं है कि जो झाँसी को अति विशिष्ट, अति महान् या अति रोचक की श्रेणी में रख दे। ऐसे में जब आप किसी से स्नेह रखते हैं तो वो स्नेह बड़ा सौम्य होते हुए भी बड़ा सघन होता है। किसी अपने में कुछ भी विशेष न हो तब भी हम उसे प्रेम करते हैं क्योंकि वो हमारा अपना है। आख़िरकार तर्क की उपस्थिति में प्रेम नहीं होता।

फ़िराक़ गोरखपुरी साहब ने लिखा है—

पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था
वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी

•••

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