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ज़ेन ज़ी का पॉलिटिकल एडवेंचर : नागरिक होने का स्वाद

जय हो! जग में चले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को।
जिस नर में भी बसे हमारा नाम, तेज को, बल को।

दिनकर, रश्मिरथी | प्रथम सर्ग

ज़ेन ज़ी, यानी 13-28 साल की वह पीढ़ी, जो अब तक मीम, चुटकुलों और रीलों में अगंभीर कारणों से चर्चा में रहती थी। इसे एक ग़ैरज़िम्मेदार पीढ़ी के तौर पर भी देखा जाने लगा था—जिसे ‘कमिटमेंट’ और ‘अटिट्यूड प्रॉब्लम’ की वजह से कंपनियाँ नौकरी पर रखना नहीं चाहती थीं; जिन्हें अपनी दुनिया में रहना और अपने तरीक़े से जीना पसंद था; जो अपने में मगन, ऐसी पीढ़ी के रूप में चिह्नित की जाने लगी थी, जिसे लगता था कि आटा खेत से नहीं, ‘ब्लिंकिट’ से आता है; और दोस्तों से मिलने के लिए उनके घर नहीं, इंस्टा पर ऑनलाइन जाना होता है। हेडफ़ोन लगाए न जाने क्या सुनती, एक बबल में रहती इस पीढ़ी की अपनी ही दुनिया है। यह दुनिया ऑनलाइन गेमिंग की है, यह दुनिया के-पॉप और कोरियन ड्रामों से बनी है—जिनकी फ़ैमिली ‘बीटीएस’ है, जिनका प्रधानमंत्री ‘किम नमजून’, और जिनकी समझदारी कोरियन हार्ट जितनी छोटी और प्यारी है।

लेकिन, लेकिन, लेकिन... इतिहास गवाह है कि समय की यात्रा में ऐसे निर्णायक मोड़ आते ही हैं, जहाँ साझा हितों के लिए लोग एक झटके में अपने ‘कंफ़र्ट ज़ोन’ से निकल आते हैं और इतिहास के अगले कुछ अध्याय उन पर मुग्ध रहते हैं। पड़ोसी मुल्क नेपाल की ज़ेन ज़ी क्रांति एक तरफ़ स्वागत योग्य है तो वहीं दूसरी ओर इसके अराजकता में बदलने का ख़तरा भी दिख रहा है। आप कह सकते हैं—व्हाट्सऐप-फ़ेसबुक-इंस्टा बैन होने पर आहत हुई इस पीढ़ी के विरोध को इतना महत्त्व मत दीजिए। लेकिन मैं कहूँगा—इतिहास में अक्सर ऐसी ही छोटी-छोटी बातों से क्रांतियाँ शुरू हुई हैं।

मुझे बचपन में पढ़ी एक कहानी याद आती है—एक सनकी राजा अपने महल की छत से देखता है कि लोग दुपहर में बैठे ऊँघ रहे हैं, वह ऊँघने पर प्रतिबंध लगा देता है। राज्य में कोई विरोध नहीं होता। कुछ दिन बाद वह देखता है कि लोग काम पर गए हैं, तो वह लोगों का काम पर जाना भी प्रतिबंधित कर देता है। राज्य में तब भी कोई विद्रोह नहीं होता। फिर वह देखता है कि राज्य के लोग एक मैदान में इकट्ठा होकर गुल्ली-डंडा खेल रहे हैं, उसे यह भी पसंद नहीं आता। वह पहले लगाए गए सारे प्रतिबंध हटा लेता है, लेकिन जब देखता है कि लोग फिर भी गुल्ली-डंडा ही खेल रहे हैं, तो खिसियाकर वह गुल्ली-डंडा पर प्रतिबंध लगा देता है—और राज्य में क्रांति हो जाती है।

अक्सर सबसे कमज़ोर और ‘हार्मलेस’ लगने वाले लोग ही क्रांति की पहली पंक्तियों में रहे हैं। 1857 की क्रांति किसी रजवाड़े ने शुरू नहीं की थी, वह आम सिपाहियों ने शुरू की थी—वह भी एक अफ़वाह के आधार पर। हमने देखा है कि कैसे एक छोटी-सी अफ़वाह ने इतिहास के पन्नों में सोना भर दिया था।

नेपाल की यह नाराज़ किशोर-युवा पीढ़ी संसद भवन को घेर लेती है। आँसू-गैस, वॉटर कैनन सहती है और अपनी माँगें मनवाकर ही मानती है। सरकार को बैन हटाना पड़ता है, गृहमंत्री और प्रधानमंत्री को इस्तीफ़ा देना पड़ता है। हालाँकि अभी यह सिर्फ़ शुरुआत लग रही है और घटनाक्रम बहुत तेजी से बदल रहा है फिलहाल पूरे काठमांडू पर प्रदर्शनकारियों का कब्ज़ा है । देखना है यह विरोध कहाँ तक पहुँचेगा। लेकिन सवाल है कि इसके बाद यह पीढ़ी क्या करेगी? फिर से व्हाट्सऐप और इंस्टा में व्यस्त हो जाएगी? शायद हाँ। लेकिन इसने नागरिक होने का स्वाद चख लिया है, सफल होने का स्वाद चख लिया है। यह स्वाद इनकी स्मृति में सदैव रहेगा—और सरकारों की स्मृति में भी।

बहुत संभव है कि अब सरकारें इंटरनेट पैक सस्ते करके इस पीढ़ी को उसके ‘कंफ़र्ट ज़ोन’ में सीमित करने का प्रयास करें, क्योंकि यह क्रांति भले सोशल मीडिया बैन से शुरू हुई थी, लेकिन इसमें एक बड़ा मुद्दा सरकारी भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और नेपोटिज़्म का भी था। सरकारें चाहेंगी कि इस मुद्दे से लोग दूर ही रहें—जैसा कि सरकारें हमेशा चाहती रही हैं। रोम के स्टेडियम इसी का प्रमाण हैं—जहाँ ग्लैडिएटरों को एक-दूसरे का ख़ून बहाते देखकर लोग अपने असल मुद्दे भूल जाते थे। यही तो शासक चाहते हैं—लोगों को मनोरंजन में फँसा दो, वे अपने असल मुद्दे भूल जाएँगे और यही होता भी आया है।


ज़रूरी नहीं कि नेपाल की इस ज़ेन ज़ी क्रांति से कोई महान् नेता या महान् परिवर्तन हो, लेकिन साझा हितों के लिए मुट्ठी तानकर खड़े होने का, समवेत स्वर में नारे बुलंद करने का यह सामूहिक संस्कार बचा रहे। इसकी याद बची रहे। किसी भी क्रांति की सबसे बड़ी देन यही समूह-बोध होता है। अपनी किताब ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहासबोध’ में प्रो. लाल बहादुर वर्मा लिखते हैं—“क्रांतियों का अधूरा रह जाना इतिहाससिद्ध है, पर उनका अमर रहना भी।”

नेपाल के दोस्तों को बहुत-बहुत बधाई!

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