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शरणार्थी शिविरों में समाए तिब्बती जीवन का दुख

सेयरिंग यांगजोम लामा तिब्बती लेखक हैं। ‘वी मैज़र द अर्थ विथ ऑर बॉडिज़’ उनका पहला उपन्यास है। उनका जन्म और पालन-पोषण नेपाल के एक तिब्बती शरणार्थी समुदाय में हुआ।

आपको कैसा महसूस होगा अगर आपको आपके घर से बाहर कर दिया जाए? आप अपने माँ-बाप से इस जीवन में, एक पल के लिए भी दुबारा नहीं मिल पाएँ। आपके दोस्त, आपकी पसंदीदा जगहें, घर की छत से दिखता ढलता सूरज, आपके बाज़ार, आपका गाँव, आपका देश और आपकी पहचान से आपको दूर कर दिया जाए तो आप के ऊपर कैसा असर होगा? आप कैसे सब भूलकर दुबारा जीएँगे? कैसे ख़ुश रह पाएँगे? क्या आपको उस क्षण भी दुनिया एक रहने लायक़ जगह महसूस होगी!

सेयरिंग यांगजोम लामा का उपन्यास—‘वी मैज़र द अर्थ विथ ऑर बॉडिज़’ ऐसे ही सवालों से घिरा है और संघर्षों के बीच रह रहे ऐसे लोगों की कहानी कहता है। इनके जवाब में आपको मालूम चलता है कि ज़िंदा रहना बईमानों की दुनिया में जुआ खेलने जैसा है। जहाँ आपकी हार पहले से तय होगी और हर क़ायदा-क़ानून आपके लिए बनाया गया होगा। 
यहाँ संघर्ष आप करेंगे, मुश्किलें का बोझ आपके कंधों पर होगा, त्याग के लंबे रास्ते पर आपको चलना होगा, ताक़त के सामने झुकना ही विकल्प होगा, भेदभाव-गालियाँ आपको थाली में परोसी जाएँगी, आपके मन को छीला जाएगा और इस सब की सारी नैतिक ज़िम्मेदारी भी आपकी ही होगी। ...ज़िंदगी उस समय एक घिनौने विकल्प से ज़्यादा कुछ नहीं होगी।

सेयरिंग यांगजोम लामा का यह उपन्यास—1950 के दशक की शुरुआत में, तिब्बत पर हुए चीन के आक्रमण के साथ और बाद की कहानी कहते हुए शुरू होता है। यह इतिहास में वह समय था, जब पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (चीनी लाल आर्मी) तिब्बत में घुस आई थी और चीन की सरकार के दबाव में, तिब्बत के आध्यात्मिक गुरु चौदहवें दलाई लामा को 1959 में भारत आना पड़ा था। उस समय तिब्बत में अनगिनत परिवारों ने भी पलायन करना शुरु कर दिया था। विरोध प्रदर्शनों में शामिल तिब्बती लोगों को चीनी सैनिकों के ग़ुस्से और निर्ममता का शिकार होना पड़ रहा था। चीनी सरकार उनके रहन-सहन से लेकर उनके सोचने तक पर नकेल कसना चाहती थी। उपन्यास-कथा में ल्हामो, उसकी छोटी बहन टेन्की और उनका परिवार ऐसे ही हालात में—भविष्य में आने वाले बुरे समय से बचने के लिए—अपने घर से भागने को मजबूर हो जाता है। उनका पूरा परिवार, तिब्बत से बाहर निकलकर नेपाल के एक शरणार्थी शिविर में शरण लेने के लिए निकल जाता है। हालाँकि दोनों बहनें हिमालय की मुश्किल यात्रा में बचकर निकल आती हैं, लेकिन उनके माता-पिता नहीं बच पाते।

यह उपन्यास घर छोड़कर शरणार्थी शिविरों में जाते हुए तिब्बती शरणार्थियों के संघर्ष, डर और क्षोभ को बख़ूबी उजागर करता है। अपनी मातृभूमि से दूर जाने को मजबूर और नए देश में रहते, ख़ुद से लड़ते, वहाँ के लोगों की नज़रों से बचते ये तिब्बती शरणार्थी अपने परिवार के लिए जीना चाहते हैं, एक आशा के साथ की कभी तो दुबारा लौट पाएँगे। संघर्षों के बीच रहते ये तिब्बती लोग शरणार्थी शिविरों को आशा से, प्यार-भाईचारे और दोस्ती से रहने लायक़ बनाए रखते हैं। यह तिब्बती लोगों की शक्ति, सहनशीलता और उनकी अटूट जड़ों को दर्शाता है।

यह पुस्तक आपको तिब्बती शरणार्थियों के खुरदुरे जीवन की झलक तो देती ही है, साथ ही इसमें आपको उनकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, आध्यात्मिक प्रथाओं और उनके लोक-संसार का ब्यौरा भी मिलता है। इससे यह भी मालूम चलता है कि कैसे अपनी ज़मीन और अपनी परंपराओं के दूरी के चलते, तिब्बती लोगों में अपनी मातृभूमि, अपने देवताओं और परंपराओं के प्रति लगाव समय के साथ और गहरा होता गया है।

उपन्यास कथा में—नेपाल के पोखरा में शरणार्थी शिविर में रह रहीं बहनें ल्हामो और टेन्की का जीवन धीरे-धीरे पुराने घावों को भरता हुआ आगे बढ़ रहा है। वे अब आगे जीवन की तैयारी कर रही हैं। तिब्बत से नेपाल आते हुए, इन्हें एक धार्मिक चिह्न—कू (ku), द नेम्लस सेंट (The Nameless Saint) दिया गया था, जिसकी रक्षा दोनों ख़ुद से ज़्यादा करती हैं। वे मानती हैं कि इस ‘कू’ की वजह से ही वे तिब्बत से यहाँ तक सुरक्षित पहुँच पाई हैं। पूरे उपन्यास में यह धार्मिक चिह्न ‘कू’ और बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस चिह्न की ख़ास बात यह है कि यह गायब होता है और जब लोगों को इसकी ज़रूरत होती है, वापस आ जाता है। इसके प्रभाव से लोगों की बीमारियाँ सही हो जाती हैं, बुरा वक़्त कट जाता है और यह बिछड़े लोगों को भी मिला देता है। यह ‘कू’ उपन्यास के मुख्य पात्रों टेन्की, डोल्मा, ल्हामो और सैमफ़ाल के जीवन को भी जोड़ता है।

छोटी बहन टेन्की शरणार्थी शिविर की एक प्रतिभाशाली लड़की है, जिसे कहानी में आगे पढ़ने के लिए दिल्ली आना पड़ता है, जिसके बाद वह आगे की के सफ़र में टोरंटो चली जाती है। कुछ समय बाद ल्हामो की बेटी डोल्मा भी तिब्बत की संस्कृति और इतिहास से की पढ़ाई के लिए अपनी मौसी टेन्की के पास जाती है।

डोल्मा तिब्बत के लोगों की कहानियाँ जानना-समझना-कहना चाहती है। उसकी माँ और मौसी उससे तिब्बत को लेकर बहुत कम बात करते हैं और जानकारी देते हैं। डोल्मा के लिए तिब्बत ऐसा देश है जिसे उसने कभी नहीं देखा। वह अपनी ज़मीन, अपने लोगों के लिए संघर्ष करना चाहती है।

इस उपन्यास को पढ़ते हुए, सबसे ख़ूबसूरत के चित्र तब बनते हैं—जब तिब्बतियों की प्रकृति के प्रति श्रद्धा और उनकी आध्यात्मिक प्रथाओं का ब्यौरा दिया जाता। उदाहरण के लिए उपन्यास का पात्र अशंग मिंगमार जो कि ल्हामो और टेन्की के मामा हैं—एक पहाड़ को उनके लोक-परंपरा में दिए गए नाम (Deity's Name) के अलावा किसी भी अन्य नाम से पुकारना नहीं चाहता। वह पहाड़ उसके लिए केवल एक प्राकृतिक संपदा नहीं, उससे भी बढ़कर है।

आध्यात्मिक प्रथाओं के प्रति उनका आदर तब और दिखता है, जब ल्हामो और टेन्की के पिता तिब्बती रीति-रिवाज़ों से जुड़ी वस्तुओं को धरती में दफ़न करते हैं, आगे बढ़ते हैं। ये वस्तुएँ उनके लिए संपत्ति से भी बढ़कर होती हैं, ये उनकी आध्यात्मिक विरासत के पवित्र प्रतीक होते हैं। कहानी में कई मौक़े आते हैं, जब पात्रों का दर्द असहनीय होता है। ल्हामो के परिवार को गाँव से बाहर जाते हुए, अपने कुत्ते को छोड़ना पड़ता है। वहीं दूसरे को पत्थर पर बाँधकर आगे बढ़ना पड़ता है। केवल इस डर से कि यात्रा में कुत्ते के भौंकने से ध्यान उन लोगों के ऊपर जा सकता है। वहीं अपनी बहन से दूर होने के डर से ल्हामो अपने परिवार से अपनी मौसी का पत्र छुपा लेती है और यात्रा के दौरान अपने दोस्त के मर जाने पर अशंग उसे नहीं छोड़ता। वह उसे लेता हुआ आगे चलता है, जिससे सही तिब्बती रीति रिवाज में उसका अंतिम संस्कार किया जा सके। लामा के उपन्यास ये हिस्से आपको द्रवित करते हैं और सुन्न हो रहे समाज में आपको फिर से महसूस करना सिखाते हैं।

पाँच दशकों की कथा कहते इस उपन्यास का गद्य सुंदर है। इसके पहले भाग की कथा, बेटियों—ल्हामो और डोल्मा—के दृष्टिकोण से चलती है। इसके दूसरे भाग में कथा बहनें— ल्हामो और टेन्की कहती हैं। वहीं तीसरे भाग की कहानी लवर्स—ल्हामो और सैमफ़ाल जारी रखते हैं। कहानी ख़त्म होती है—ल्हामो की बेटी डोल्मा से।

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