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अपने माट्साब को पीटने का सपना!

इस महादेश में हर दिन एक दिवस आता रहता है। मेरी मातृभाषा में ‘दिन’ का अर्थ ख़र्च से भी लिया जाता रहा है। मसलन आज फ़लाँ का दिन है। मतलब उसका बारहवाँ। एक दफ़े हमारे एक साथी ने प्रभात-वेला में पिता को जाकर कह दिया कि पिताजी आज आपका दिन है। मुबारक हो। अनपढ़ पिता दो घड़ी तो रुके, लेकिन तीसरी घड़ी बेटे पर बिफर पड़े, ‘‘मुझ जीवित का दिन मना रहा, शर्म नहीं आती—लक्ख’ज लानत!’’

आज शिक्षक दिवस है। माने मास्टर लोग का दिन। लेकिन यह केवल मास्टरों का दिन नहीं है। आपने पहले भी ध्यान दिया होगा और आज भी दे ही रहे होंगे कि आज आपके ग्रामीण और क़स्बाई, कुछ महानगरीय साथियों के व्हाट्सएप-स्टेटस पर अलग-अलग तरह के माट्साओं को जश्न चल रहा है; मसलन—‘‘मेरे प्रथम शिक्षक मेरे पिता, माता, चाचा, ताऊ, लौकी-लहसुन इत्यादि।

‘‘शिक्षक ये होता है और शिक्षक वो होता है’’ टाइप उद्धरणों में बँधा शिक्षक क्या-क्या होता है? इस सवाल के जवाब में सरलीकरण क़तई नहीं है। लेकिन जातीय-स्मृति से वह कुछ-कुछ विचित्र होता है। तिस पर भी अगर वह सरकारी शिक्षक हो तो उसका जीवन काफ़ी रोचक नहीं जान पड़ता। मेरे इलाक़े में वह कैसा होता है, इसका विवरण कुछ इस तरह है कि वह नौकरी लगते ही अमूमन एक स्प्लेंडर लेता है। पाँच साल नौकरी में रहते ही वह तीन कमरों का मकान बना लेना चाहता है। जब सब कुछ सुंदर चलने को आतुर हो तो माट्साब ब्याज का धंधा शुरू कर देते हैं। वह यहीं नहीं रुकता। ब्याज और मूलधन को मिलाकर वह फिर नज़दीकी क़स्बे में एक प्लाट ख़रीद लेना चाहता है। 

सरकारी स्कूल का यह पारंपरिक शिक्षक आस-पास की कोई शादी नहीं छोड़ना चाहता। प्लेन शर्ट और काली पैंट में सामान्य सज्जा के साथ स्प्लेंडर लिए गुरुदेव हर सामाजिक कार्यक्रम में पाए जाते रहते हैं। नौकरी लगते ही वह समाज के व्हाट्सएप-समूह में जुड़ जाता है और अगर पाँच वाक्य शुद्ध लिख दे तो समूह का एडमिन बना लिया जाता है। इन व्हाट्सएप-ग्रुप्स की भी एक सामाजिकी है। समाज का अभिन्न सूचनांग बन चुके इन समूहों में स्त्री-उपस्थिति नगण्य रहती है। ‘शत-शत नमन!’ और ‘जन्मदिन की बधाई!’ जैसी ज़रूरी सूचनाओं से लदा-फदा यह व्हाट्सएप-समुदाय दिन-प्रतिदिन बौद्धिक हुआ चाहता है। 

ख़ैर, आप यहाँ तक आए हैं; इससे प्रतीत होता है कि आप शिक्षक दिवस के बारे में कुछ पढ़ना चाह रहे हैं। तो इस दिवस पर मुझे हमारे इलाक़े के एक माट्सा की याद आ रही है। उनका नाम हुआ सूरतदान।

सन् इकहत्तर में मास-माइग्रेशन से जब हम सिंध छोड़ भारत आए, तब वह माट्सा बाड़मेर में एक गाँव में मेरे पिता के शिक्षक थे। पुनर्विस्थापित हो 1995-2000 के आस-पास जब हमारे लोक के कुछ परिवार बीकानेर आए, तब वह भी हमारे गाँव के पास आ जमे। यह आठवें दशक का उत्तरार्द्ध रहा होगा। हम विस्थापित लोगों की आपा खोई नज़र के आगे एक विचित्र धुंध थी जो छँटना नहीं चाहती थी। लोगों ने कुछ नहीं देखा था। संघर्षरत थे। उस समय उन माट्सा की बड़ी इज़्ज़त थी। माट्सा बारीकी से गप्प गढ़ते थे। चूँकि उन्होंने कराची और दिल्ली दोनों शहर देखे थे, इसलिए उन्हें देखकर अनपढ़ बूढ़े उनकी बातों पर यक़ीन तो नहीं करते थे, लेकिन सुन लिया करते थे। उनकी मृत्यु के समय विस्थापितों ने काफ़ी कुछ देख लिया था, लेकिन उनकी गप्पें यथावत् थीं। एक-दो क़िस्से उनके आप भी सुनिए—मैं शैली में... 

मैं, सोनिया, मनमोहन और मुशर्रफ़; तीनों उस दिन कराची से रवाना हुए। राहुल तब छोटा था—दुधमुँहा। रास्ते में राहुल रोने लगा, बोला दूध पीऊँगा। अब सोनिया बोलीं सूरताजी मैं इसे चुप कैसे कराऊँ? मैंने पायलट से कहा कि तू जहाज़ को इस्लामाबाद रोक। भला था वह, रोका उसने। मैं नीचे उतर का दूध का एक डिब्बा लाया और दूध को कटोरी में डाला। राहुल रोता ही रहे, रुकने का नाम नहीं ले। बहुत परेशान होकर सोनिया जी ने कहा कि बेटा दूध पी ले नहीं तो मुशर्रफ़ अंकल पी जाएँगे। जैसे-तैसे मामला शांत हुआ। 

गप्पों से इतर एक शिक्षक का समाज में सम्मान हमेशा स्तरीय रहता है। आपने देखा होगा कि सरकारी स्कूल के बच्चे किस क़दर अपने सर के लिए दूध, मौक़ा-विशेष पर बना विशिष्ट व्यंजन ले जाते रहे हैं। लेकिन इतना सम्मान और प्रेम पाने के बाद भी उसका ईगो-स्खलन बड़ा तुच्छ क़िस्म का रहता है। आज उनके दिवस पर याद करिए कि जब आप उनके सामने पलट के जवाब देते थे; तब उनका ग़ुस्सा कितना छिछला हुआ करता था (है), उस समय वह मास्टर आपको कच्चा चबा जाने की हद तक पीट लेना चाहता है। इस स्थिति में आप एक भविष्यकालीन वाक्य बोलते थे कि इस मास्टर को बड़ा होकर बहुत पीटूँगा। 

मास्टरों के पीटने की क्रूरता के क़िस्से जगप्रसिद्ध हैं। वह आपको सांगोपांग सज़ा देना चाहता रहता है। वह दिन में एक बार किसी विद्यार्थी को नहीं पीटे तो उसका उपापचय गड़बड़ा जाता है। मैं एक लंबे समय तक हॉस्टल में रहा हूँ। यह एक निजी विद्यालय का हॉस्टल था। हमारे निर्देशक साब आज तक अपने विद्यालय के बच्चों को ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने को बोलते हैं। जब कभी लड़के चुप हो जाते, उनकी आवाज़ आती—‘‘आवाज नहीं आ रही, नानी चली गई क्या?’’ इसी हॉस्टल में एक पहाड़ी शिक्षक थे, जो मजूरी के चक्कर में इस उष्ण धरती पर उग आए थे। वह गणित पढ़ाते थे और बहुत पीटते थे। जब उनका डंडा पुराना पड़ जाता या किसी कठोर कूल्हे पर पड़ने के कारण टूट जाता तो वह किसी डे-स्कॉलर से कहते थे कि कल खेत से नया डंडा ले आना। उनका जीवन डंडे से सरोबार था। उनके समीप तरह-तरह के डंडे हुआ करते थे। उनके ख़ौफ़ के कारण कई बच्चे तीन-तीन कच्छे पहनकर आते थे। इस प्रसंग में दुखद यह है कि यह बात उन्हें पता चल जाती थी। वह ब्लैक-बोर्ड पर हाथ रखवाकर, कूल्हों पर डंडे बरसाते थे। इस दृश्य की कल्पना से भी आज सिहरन होती है पीड़ित की पीठ के पीछे उसकी क्रश बैठी होती थी... यह समय बड़ा अपमानजनक हो जाता था।

एक ज़माने में एक बड़ा शिक्षक समुदाय बंगाल में सीपीआई (एम) का कार्ड-होल्डर हुआ करता था। पार्टी-पॉलिटिक्स तो नहीं, लेकिन राजस्थान में भी तमाम तरह के शिक्षक संघ हैं; जो किसी ज़माने में कमाल की सक्रियता रखते थे, लेकिन जब से तनख़्वाहें बढ़ी हैं; वे काफ़ी कूल हो गए हैं। अब वे साल में एक बार दो दिन की आचमन-गोष्ठियों के बहाने मिल लेते हैं। इस सूबे में तमाम तरह के शिक्षक संघ हैं—प्रगतिशील शिक्षक संघ, सेमीप्रगतिशील शिक्षक संघ... रूटा, राटा, टाटा, फाटा... ये सब इन संघों के लघुरूप हैं। 

बीते एक दशक से कोचिंग के माट्सा लोग बड़े चमक गए हैं। चमकते-चमकते वे इतिहासकार हो गए, दार्शनिक भी। वे कभी-कभी लोक-मर्मज्ञ भी हुए जा रहे हैं। यह एक अध्ययन-योग्य उद्योग है। आप यक़ीन मानिए कि इन मास्टरों के पास आज बीएमडब्ल्यू और पोर्स्च जैसी महँगी गाड़ियाँ हैं। इनका चेला-परिसर इनके वीडियो व्हाट्सएप-स्टेटस पर टोचन करके चलता है। ये कोई रद्दी बात को रोमैन्टसाइज़ करके कहेंगे और लास्ट में इनका चेला इनकी आँखों में लेजर लगा देगा और पार्श्व में एक तड़कता-भड़कता गीत। लगभग सत्ता-परस्त प्रतिरोधहीन ये शिक्षक कितने भौंडे और अश्लील लगते हैं, यह इन्हें भी नहीं मालूम। ख़ान सर इन सबका एक आदर्श उदहारण है। 

जाते-जाते एक सुना हुआ क़िस्सा उद्धृत कर रहा हूँ...

एक रामद्वारे में एक गुरु के पास एक बालक कई दिनों से शिष्य बनने को आता रहा। गुरु ने उसे स्वीकार न करने के लिए तमाम प्रयत्न किए, लेकिन वह नहीं माना। थक-हारकर गुरु ने उसे स्वीकारा। वह ख़ुश हुआ। लेकिन जो भी उस रामद्वारे में आए, हरेक गुरु के धोक लगाए। शिष्य बड़ा परेशान हुआ। कई दिन माजरा देख वह एक दिन गुरु के पास गया। कसकर पैर पकड़ लिए। गुरु ने कहा भई अब क्या चाहता है? शिष्य बना लिया तुझे। शिष्य हाथ जोड़ कर बोला कि गुरूजी छोटा-मोटा गुरिया ही बना दो, इससे पार नहीं पड़ रही।

सो इस ज़माने में हर कोई शिक्षक हुआ चाहता है। राह चलते हुए किसी को भी ज्ञान देने की उसकी अभिलाषा न जाने किस रोज़ ख़त्म होगी। 

~~~

राजेंद्र देथा के अन्य लेख यहाँ पढ़िए : मोटरसाइकिलों का लोक वाया इन्फ़्लुएंसर | सरकारी नौकर, टीका और अन्य कहानियाँ | ‘बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला...’

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