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रपट : ‘अर्थात्’ की शुरुआत

देश की राजधानी दिल्ली की हवा अपने पुराने ढर्रे पर लौट चुकी है। अब खाँसते-छींकते लोग अगर सड़क पर अधिक दिखें तो हैरान मत होइये। हैरान इस बात पर भी नहीं होइये कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में (अक्टूबर 2025 में) दिल्ली-एनसीआर में केवल ‘ग्रीन क्रैकर्स’ (कम प्रदूषण वाले पटाखे) के इस्तेमाल को सीमित समय (अस्थाई रूप में) के लिए अनुमति दे दी है। इसके विपरीत, वर्ष 2024 के अंत में दिल्ली सरकार ने पूरे साल के लिए पटाखों की बिक्री, उपयोग, निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था।

लोगों से पटे पड़े दिल्ली के आस-पास के बस अड्डे और रेलवे स्टेशन अब धीरे-धीरे ख़ाली हो रहे हैं। ज़्यादातर लोग दीवाली पर घर जा चुके हैं। यहाँ अब आपको मेरे जैसे कुछ प्रवासी ही बचे हुए दिखेंगे। इस सबके बीच बीती शाम हुए कार्यक्रम के लिए ठीक-ठाक युवाओं की उपस्थिति ने ज़रूर हैरान किया। दीपक जायसवाल ने अपने घर की खुली छत पर कविता-केंद्रित एक गोष्ठी का आयोजन किया। यह आयोजन एक संवाद-शृंखला का पहला पड़ाव है। ‘अर्थात्’ के नाम से इस गोष्ठी की परिकल्पना की गई है। ‘अर्थात्’—बातचीत का खुला मंच, विभिन्न साहित्यिक विषयों पर संवाद का एक प्रयास।

यह पहला कार्यक्रम मूलतः समकालीन कविता पर केंद्रित था। लोग इसी के इर्द-गिर्द अपने विचार प्रस्तुत कर रहे थे। साथ ही समकालीन कवियों की कविताओं का पाठ भी किया गया। विश्वविद्यालय और उससे इतर भी युवाओं की उपस्थिति कार्यक्रम में बनी रही।

समकालीन कविता को लेकर जो द्वंद्व हिंदी आलोचना में दिखलाई देता है, कमोबेश वैसा ही इस बातचीत में भी झलकता रहा। मसलन समकालीन कविता का प्रस्थान बिंदु क्या है? क्या ये अद्यतन चली आ रही परिपाटी है? समकालीन कविता को किस तरह देखा-समझा जाय?

हिंदी आलोचना के सामने ये मुश्किल रही है कि बीते 40-45 वर्षों की हिंदी कविता की कोई एक केंद्रीय प्रवृत्ति नहीं तलाश पाई है। शायद कोई केंद्रीय प्रवृत्ति है भी नहीं। सारी अस्मिताएँ और विमर्श इसी दौर की उपज हैं। एक स्वर प्रतिरोध की कविता का भी है। तो मुश्किल लगातार बनी हुई है।

अपनी तमाम जिज्ञासाओं और सहमतियों-असहमतियों के साथ लोगों ने अपनी बात रखी। आत्मविश्वास के साथ बोलते युवाओं को देखकर आश्वस्ति हुई। सबसे सुखद लड़कियों की भागीदारी देखकर हुई। उनकी सक्रिय उपस्थिति देखकर अच्छा लगा।

विश्वविद्यालय परिसर में संवाद लगातार कम होता जा रहा है। विद्यार्थी-शोधार्थी-प्रोफ़ेसर के बीच एक किस्म की दूरी है। इन सबका नकारात्मक असर दिखता रहा है। इस दूरी को पाटने के लिए ये संवाद-शृंखला एक प्रयास है।

आओ बैठें पास-पास
हम हास और परिहास करें!
एक-दूसरे को निहार के
जीने का अभ्यास करें।

केदारनाथ अग्रवाल

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