Font by Mehr Nastaliq Web

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे हैं। उनकी कविताई रस के अजस्र सोते से जुड़ी होकर उसी तरह रससिक्त करती है, जैसे जल के अगाध स्रोत से जुड़ा हुआ पाताल कुआँ स्वतः ही, निरंतर पानी उपलब्ध कराता है।

• अर्थ खोजना मन का अभ्यास है। चारों तरफ़ जो हो रहा है, अर्थ उनसे ही लगकर आते हैं। जेठ में छाँह, आषाढ़ में हवा, सावन में साहचर्य और भादों में सुरक्षा खोजता मन; अपने अर्थ ही तो खोजता है। 

बिंदुघाटी में हर जगह पीड़ा है, अनर्थ है, अनौचित्य है। इसीलिए, बस इसीलिए ही बिंदुघाटीकार—कह उठता है :

‘सून मंदिर मोर...’—यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है। यह क्यों है, इसके लिए विद्यापति ने आगे यों कहा—‘कुलिस कत सत पात मुदित मयूर नाचत मातिया...

• विद्यापति ने  स्तुतियाँ लिखीं... और उन स्तुतियों में भी जिस तरह का बिंब-विधान है, वह मुग्ध कर देता है। देवी भैरवी की वंदना में वह लिखते हैं :

‘सामर बरन, नयन अनुरंजित, जलद-जोग फुल कोका’

[साँवली देह और तिस पर लाल रंग में रँगी आँखें—मानो बादल में लाल कमल फूले हुए दिख रहे हों...]

• रामवृक्ष बेनीपुरी कृत ‘विद्यापति पदावली’ की भूमिका में विद्यापति और उनके सहपाठी पक्षधर मिश्र के बीच एक रोचक प्रसंग दिया हुआ है। उसी प्रसंग में प्रकांड तर्कशास्त्री पक्षधर मिश्र ने यह श्लोकार्ध कहा : 

‘नहिं स्थूलधियः पुंस: सूक्ष्मे दृष्टि पर्यायते’

[स्थूलबुद्धि पुरुष को सूक्ष्म पदार्थ नहीं दीख पड़ता]

उक्त श्लोकार्ध के माध्यम से पक्षधर मिश्र ने विद्यापति के एक श्लोकार्ध का जवाब देते हुए तंज़ किया था, लेकिन यह आज भी काव्य-रचना में सक्रिय और अख़बारी विवरणों और ठस्स अमूर्तनों से भरे हुए स्थूलबुद्धि कवियों के लिए हितोपदेश की तरह है।

• किसी व्यक्ति का जीवन क्या है!—उसके जीवन में शामिल हुए लोगों के उससे जुड़े संस्मरणों का कुल सार। 

‘पूर्व-राग’ [अंतिका प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 2024] इसी शैली की एक पुस्तक है, जिसे सुपरिचित कथाकार अरुण प्रकाश [1948–2012] ने संभव किया है। यह विद्यापति पर एक जीवनी-उपन्यास है। इसमें कुछ तथ्य, कुछ कल्पना और रचनात्मक उत्कर्ष की ढेर सारी सामग्री है।

• ‘पूर्व-राग’ के विचित्र पात्र तिरपित पंडित विद्यापति की सर्वतोमुखी प्रतिभा के विषय में बात करते हुए कहते हैं : 

‘‘यह अर्धसत्य है विरंचि। अधिक प्रतिभा किसी सत्ता को स्वीकार्य नहीं होती। चाहे सत्ता पिता की हो या राज्य की। दोनों अधीन प्रतिभाएँ चाहते हैं। उनसे आगे जाने वाली, उनका आधिपत्य न मानने वाली प्रतिभाओं को वे बाध्य होकर ढोते हैं। लेकिन उसे कभी माथे पर टीके की तरह नहीं लगाया जाता।’’

इस प्रकार के मानीख़ेज़ कथ्य के तथ्य को अपने आस-पास तलाशते हुए मुस्कुराया जा सकता है।

• ‘चंदा जनु उग आजुक राति, पिया के लिखिअ पठाओब पाति’ 

मिलन के लिए अँधेरा ही भला है। विद्यापति की नायिका को चाँद की ज्योत्स्ना भी सही नहीं लग रही है। कितनी बड़ी बात है! जो रौशनी मिलन के बीच खिलेगी, उसके लिए कोई बाह्य-स्रोत बाधा ही होगा। दूषक ही होगा। 

इस स्थिति को  लाक्षणिक ढंग से वर्तमान में संभव होते मिलन के संदर्भ में देखें—बहुत रौशनियों में संभव होते मिलन क्या कोई आपसदारी की ज्योति उत्पन्न कर रहे हैं?

• भाग्य की मार सबसे अधिक प्रेम को ही झेलनी होती है। इस विडंबना को विद्यापति से अधिक रूपसी अभिव्यक्ति कौन दे सकता है! 

‘तेल बिंदु जैसे पानि पसारिअ ऐसे न मोर अनुराग।
सिकता जल जैसे छनहि सुखाए सखि, तैसन मोर सोहाग।।’

[तेल की बूँदे जैसे पानी पर फैलती जाती हैं, वैसे मेरा कृष्ण के प्रति प्रेम है। लेकिन इस मामले मेरा सौभाग्य वैसे देर तक साथ नहीं देता है, जैसे बालू में पानी लुप्त हो जाता है।] 

• ‘की हम साँझक एक सरि तारा भादव चौठिक ससी’

सावन बरखा का कैशोर्य है तो भादों है उसकी भरी-पूरी जवानी। इस समय तक बरखा के वैभव में जगत डूबा  रहता है। ताल-गड़हे-झील सब उफला रहे होते हैं। बाग़-बीरव-जंगल-झाड़ी सब अपनी सघनता और हरेरी को प्राप्त कर और रहस्यमय ढंग से आकर्षक और विराट दीखते हैं। 

क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि भादों के अँजोर पाख की चौथ का चाँद बरखा से भरे बादलों के बीच फीका-कुरूप दिखे! 

विद्यापति की नायिका ख़ुद के लिए ऐसे ही हो रहने की संभावना से दुःखी है। 

आज भी, भादों का यह बरखा-वैभव अपने समीप तलाशिए; क्या पता मिले, या न मिले!

• ‘नव जलधर-तर चमकए रे जनि विजुरी-देह’

नए-नए बादल हैं। झीने, बहुत भारी नहीं। अभी वे चढ़ रहे हैं, आवेशित हो रहे हैं। इसी बीच बिजली चमकती है और आँखों के सामने स्तम्भित करने वाला दृश्य उपस्थित हो जाता है—कँपा देने वाली सौंदर्य-छटा। 

ऐसा ही विद्यापति की नायिका की देह का सौंदर्य है—उघरते ही तड़ित जैसा प्रभाव। 

क्या हमारे पास सहज ही इतना अवकाश और ऐसा सम्मुख आसमान है कि हम ऐसी सौंदर्य-छटा देख सकें। देखिए-देखिए, यह बरखा ही है और बीती जा रही है...

• ‘साओन माह धन-बिंदु न बरिखब सुरतरु बाँझ कि छाँदे’

साहिबाबाद के सुंदर लोहिया पार्क में दो सुंदर-सलोने कल्पवृक्ष हैं। जो सबसे बड़ा और छतनार है, वह कई-कई हाथियों के खड़े-बैठे समूह की तरह विचित्र और विस्तृत है। उसमें हरी-हरी खोल में बंद चूहों की तरह अविकसित फूल लटकते हैं। फिर वे फूल बड़े आकार में खिलते हैं। यही मौसम है—उसके फूलित-फलित होने का। 

विद्यापति के उक्त पद में, वह कह रहे हैं कि सावन एक बूँद भी न बरसे तो क्या कल्पवृक्ष फलेंगे नहीं! 

अच्छे व्यजंन की सुगंध भूख बढ़ा सकती है, लेकिन भूख तो उनके बिना भी लगती ही है। है न! 

इसीलिए, न कुछ करें तो ख़ुद को मनोरंजनों का दास न समझ लें।

• ‘हृदयक बेदन बान समान!
आनक दुःख आन नहिं जान...’

मन की पीड़ा के लिए तमाम तरह की उपमाएँ दी जाती हैं। उसे किसी न किसी दैहिक पीड़ा या भौतिक अभाव के बराबर बताकर परिभाषित करने की कोशिशें की जाती हैं। भाषा चुक जाती है, लेकिन वह पीड़ा सही-सही कही नहीं जा सकती। 

कौन किस क्षण, किस भंगिमा से, कितना आहत हुआ, इसका क्या  परिमाण है! इसीलिए, विद्यापति कहते हैं कि किसी का दुःख कोई दूसरा नहीं समझ सकता।

• कवि-लेखक कृष्णमोहन झा ने ‘भनइ विद्यापति’ नामक मैथिली पदावलियों के संग्रह का संपादन किया है। इस पुस्तक की भूमिका में उन्होंने कविता और कवि के आग्रहों के बीच के संबंध पर अर्थपूर्ण टिप्पणी की है : 

‘‘कदाचित करती होंगी औसत दर्जे की कविताएँ अपने निर्माता के आग्रहों का अनुगमन, परंतु वैसी अवस्था में तब वे उस तप्त प्रकाश को अपनी बेध्यता से अनेक रंगों में परावर्तित करने की सामर्थ्य खो देती हैं, जो कविता को इस बनैले जीवन के गहन संपर्क में आने से पुरस्कार-स्वरूप मिलता है।’’

• कृष्ण मोहन झा उसी भूमिका में आगे विद्यापति की सौंदर्योपासना पर कहते हैं : 

‘‘जहाँ भी उन्हें सौंदर्य का आलोक दिखता है, वहाँ वह खिंचे चले जाते हैं। किसी भी क्षण और किसी भी रूप में आकर यह सौंदर्य उन्हें रोमांचित, आह्लादित और अवाक् कर जाता है। विह्वलता में जब उन्हें कुछ कहते नहीं बनता, तब वह ‘अपरूप’ को थाम लेते हैं। यह ‘अपरूप’ या सौंदर्य की अपूर्वता से साक्षात्कार उन्हें सभ्यता के आवरण से आज़ाद कर देता है; जिसके फलस्वरूप वह किसी बाहरी नैतिकता की परवाह नहीं करते, बल्कि सुंदरता को ही अपनी नैतिकता बना लेते हैं।’’

• उम्र बढ़ते-बढ़ते बीत जाती है।

विद्यापति कहते हैं : 

‘बयस, कतह चल गेला
ताहें सेवइत जनम बहल, तइयो न अपन भेला’

[जिस उम्र को सेवते हुए जीवन बीता वह उम्र भी अपनी न हुई]

इस सबसे बड़े सच में कितनी बड़ी विडंबना है! विद्यापति यह पद अपने बुढ़ापे में अपनी भरपूर नज़र से कह रहे हैं, जहाँ इतनी बढ़ गई है अपनी उम्र कि वह भी अपनी न रही। 

उर्दू कविता में भी ‘उम्र के हर वरक़ पर दिल की नज़र’ रही ही आई है।

• कवि के शब्द ही उसकी अस्मिता हैं। कवि किसका है, यह उसके उद्गार ही बताते हैं। 

‘कतसुख सार पाओल तुअ तीरे, छाड़इते निकट नयन बह नीरे’

किंवदंती है कि गंगा जब उन्हें शरण देने खुद चली आईं तो गंगा में समाधि लेते हुए उन्होंने उक्त गंगा-स्तुति की। देह तो गंगा में ही विलीन हो गई, लेकिन प्रेम की चेतना शब्द-निर्झरा बनकर फूट पड़ी और आज भी गंगा की धारा की तरह प्रवहमान् है।

• इस दौर के ‘मोर लव-मोर पॉवर-मोर उड़ानों’ जैसे आह्वानों के बीच, बिंदुघाटीकार आग्रह करता है कि विद्यापति को पढ़कर-गुनकर-गाकर-सुनकर मोर-रससिक्त महसूस करें। इस प्रसंग में अगर रुचि हो तो उषाकिरण ख़ान कृत ‘सिरजनहार’ भी पढ़ सकते हैं। इस उपन्यास में विद्यापति का जीवन और साहित्य अपूर्व ढंग से विन्यस्त है।  

इसके साथ ही अभिव्यक्ति के तीनों रूपों में कुत्तों से सावधान रहें!

•••

अन्य बिंदुघाटी यहाँ पढ़िए : बिंदुघाटी

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

28 नवम्बर 2025

पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’

28 नवम्बर 2025

पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’

ग़ौर कीजिए, जिन चेहरों पर अब तक चमकदार क्रीम का वादा था, वहीं अब ब्लैक सीरम की विज्ञापन-मुस्कान है। कभी शेविंग-किट का ‘ज़िलेट-मैन’ था, अब है ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’। यह बदलाव सिर्फ़ फ़ैशन नहीं, फ़ेस की फि

18 नवम्बर 2025

मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

18 नवम्बर 2025

मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

Men are afraid that women will laugh at them. Women are afraid that men will kill them. मार्गरेट एटवुड का मशहूर जुमला—मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं; औरतें डरती हैं कि मर्द उन्हें क़त्ल

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

मुझे ऐसा लगता है कि दुनिया में जितने भी... अजी! रुकिए अगर आप लड़के हैं तो यह पढ़ना स्किप कर सकते हैं, हो सकता है आपको इस लेख में कुछ भी ख़ास न लगे और आप इससे बिल्कुल भी जुड़ाव महसूस न करें। इसलिए आपक

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

मैं ख़ुद को ‘मिलेनियल’ या ‘जनरेशन वाई’ कहने का दंभ भर सकता हूँ। इस हिसाब से हम दो सदियों को जोड़ने वाली वे कड़ियाँ हैं—जिन्होंने पैसेंजर ट्रेन में सफ़र किया है, छत के ऐंटीने से फ़्रीक्वेंसी मिलाई है,

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

—किराया, साहब... —मेरे पास सिक्कों की खनक नहीं। एक काम करो, सीधे चल पड़ो 1/1 बिशप लेफ़्राॅय रोड की ओर। वहाँ एक लंबा साया दरवाज़ा खोलेगा। उससे कहना कि ऋत्विक घटक टैक्सी करके रास्तों से लौटा... जेबें

बेला लेटेस्ट