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बिंदुघाटी : ‘ठीक-ठीक लगा लो’—कहना मना है

• मैं भ्रम की चपेट में था कि फ़ेसबुक और वहाँ के विमर्शों की दुनिया ही अब एकमात्र रह गई है। इसमें जो कुछ छूट गया है—वह भी धीरे-धीरे इसका ही हिस्सा हो जाएगा। जब गत चार साल से मेरे फ़ेसबुकिया संक्रमण में कमी आई और गाँवों में मेरा आना-जाना ज़्यादा बढ़ा, तब मुझे लगा कि बाहर दुनिया अपने तरीक़े से आबाद-बर्बाद है। वह फ़ेसबुकिया नहीं है। पहले मुझे इस बात का उत्साह होता था कि अपनी ‘सटीक और सबसे तेज़ सूचनाओं’ से भरी फ़ेसबुकिया झौं-झौं-शैली से मैं बाहर के लोगों को पटक दूँ।

मैं साहित्यिक आदमी हूँ तथा फ़ेसबुक पर मोदी/राहुल/इज़राइल/नेहरू/सिमोन/मार्क्स और मरकज़/निराला और निरहू सबकी समीक्षा किया करता। तुम क्या हो!—यह इल्यूज़नल आवाज़ मुझे भीतर से धक्के मारती थी। पर अब ऐसा नहीं होता। अब जब भी ऐसी आवाज़ उठने को होती है, एक लाचारी घेर लेती है। एक हीनताबोध आ जाता है। मेरी हालत मूसलधार बारिश में तबाह और कमतर हुए क़नात जैसी हो जाती है!

• बीसवीं सदी के अंत में जो कवि-समय तैयार हुआ; वह मुसलसल जारी है, बल्कि मुँहदेखी और संबंधसाधक हिंदी आलोचना के इस काल में वह उसी तरह पोसी जा रही है, जैसे धान को गीले बोरे के नीचे ढाके-ढाके पूरा चौमासा बिता दिया जाए और बेरन करने या पौध रोपने जैसे कर्म में प्रवृत्त ही न किया जाए।

• कवि-समयों के दोषों को चिह्नित करे ऐसा कोई शूरवीर अभी हिंदी में तेजोमय नहीं है। न कहीं टेक्स्ट पर बात है और न ही किसी काव्य औचित्य पर। 

किसी कवि को विद्रोही कहा जा रहा है तो किसी को प्रस्थानकारी। जबकि ‘सत का अनिबंधन’ काव्य के विकास के लिए बाधक है। 

• कहाँ तो यह दिखाना था कि कृष्ण पक्ष में भी चाँदनी होती है और शुक्ल पक्ष में भी अँधेरा... 
‘कृष्णपक्षे सत्या अपि ज्योत्स्नाया:, शुक्लपक्षे त्वन्धकारस्य।’ 

लेकिन... तमाम क्लीशे प्रस्तावनाओं पर तमाम क्लीशे भंगिमाओं के साथ कवियशःसेवी होने की छीना-झपटी में लगे लोग एक ओर केवल कृष्ण पक्ष के अँधेरे पर शिल्प-विद्रूप रुदन करते हैं, तो दूसरी ओर शुक्ल पक्ष के यशोगान में सारी रौशनी का  ठेका ले लेते हैं।

• सौ गज़ ज़मीन दो तरह से बढ़ाई जाती है। एक—घर के सामने स्लैब बनाकर, दो—हर फ़्लोर से ज़्यादा चौड़े छज्जे लटकाकर। 

यह स्थिति सड़कों और गलियों को सँकरा कर देती है। इससे हवा, पानी, धूप और वाहनों का आवागमन बाधित होता है। यह वायरल दृश्य है। एक के करने से दूसरे करने लगते हैं और फिर सारी कॉलोनी में यही हो जाता है। 

आप सोच रहे होंगे कि मैं आर्किटेक्चर और उसकी सोशियोलॉजी की बात कर रहा हूँ, जबकि आपको सोचना चाहिए कि मैं सिर्फ़ साहित्य की बात कर रहा हूँ। 

• एक साधारण-सा दृश्य ही एक रूपक बनता है। एक रूपक से एक कविता, एक कहानी और एक उपन्यास बन सकता है। एक भी रूपक ख़राब न होने दीजिए। सुंदर दृश्यों से संवेदन सुंदर होगा, सुंदर संवेदन से अच्छी प्रवृत्तियों का विकास होगा, अच्छी प्रवृत्तियाँ ही सुंदर दृश्य बचाएँगी और सुंदर दृश्य ही तो होगा—सुंदर रूपक...!

यही साहित्य का पैम्फलेट होना चाहिए।

• एक सुख-संवाद...

वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने ‘अल्मा कबूतरी’ की तस्वीर लगाई। 

इस पर अतिकनिष्ठ-लेखक अनंत विजय ने फ़रमाया :

‘आपकी सबसे अच्छी कृति!’

इस पर मैत्रेयी पुष्पा : 

‘इस दौरान ही तुमसे मिली थी।’ 

यह सुख-संवाद साहित्यिकों की आपसी मानदारी और सौजन्यता का परिचायक है, हालाँकि थोड़ा विचित्र ज़रूर है।

• राहुलोवाद-सुत्त में बुद्ध राहुल को संबोधित करते हैं। लोटे की विभिन्न स्थितियों की तुलना ‘जानबूझकर झूठ बोलने वालों’ से करते हुए वह कहते हैं, ‘‘राहुल! जिसे जानबूझकर झूठ बोलने में कोई लज्जा नहीं है, उनके लिए कोई भी पापकर्म अकरणीय नहीं है। इसीलिए हँसी में भी झूठ नहीं बोलूँगा—यह सीख लेनी चाहिए। 

फिर कहते हैं : राहुल! दर्पण किस काम के लिए है?

राहुल : भंते! देखने के लिए। 

बुद्ध : ऐसे ही राहुल ! देख-देखकर काया से काम लेना चाहिए, देख-देखकर वचन से काम करना चाहिए, देख-देखकर मन से काम करना चाहिए।

बुद्ध के यह संवाद ‘बहुत दिखने और देखने के अंधकार’ से भरे समय में स्मरणीय है। 

• कच्चा घड़ा किसी वस्तु को दीर्घकाल सुरक्षित नहीं रख सकता। उसकी पात्रता कमज़ोर होती है। उसी प्रकार प्रवक्ता बनते-विचरते कच्चे लोग शब्दों का क्षय कर डालते हैं। कच्चे घड़े को ‘पकाने’ से ही अर्थ मिलता है। 

पके घड़े जब प्रदूषित हो जाएँ; तब उन्हें शुद्धि के लिए फिर से पाक-क्रिया से गुज़ारना चाहिए, जैसा कि याज्ञवल्क्य स्मृति कहती है : 

‘पुनः पाकन्महीमयम...’

• संसार राउंड-फ़ीगर में चलने लगा है। अब दो-चार रुपए—फ़ुटकरिया ज़िंदगी जी रहे लोगों के बीच में बोझ की शक्ल में पड़े रहते हैं। उन्हें ख़र्च करने में आफ़त होती है। दो-चार, उन्नीस, सत्ताईस, उनासी-नवासी... जैसे शब्द-संख्याएँ अब बोझिल हैं। इन्हें खींचकर किसी राउंड में पहुँचा देना सुविधाजनक लगता है। 

हर संख्या में इकाई का महत्त्व गौण हो रहा है। 

• रात भयंकर होती थी। कहा भी गया : ‘बहु दोष: हि शर्वरी...’ फिर रातें रौशन रहने लगीं। दोष मिटने लगे। 

लेकिन अब अपनी नींद, अपनी भूख, अपनी प्यास, अपनी सुबह, अपना शौच देखिए! 

अरे अपना ज़ेहन टटोलिए! 

रातें क्या अभी कम भयंकर हैं? 

• बाज़ार जाइए। दुकानों की दीवालों पर चेतावनी की तरह कहीं-कहीं मिलता है—‘आज नगद, कल उधार...’, ‘उचित दाम, एक दाम’, ‘यहाँ मोल-भाव नहीं होता...’ 

यहाँ भाषा का सरल संवाद नहीं है। यहाँ एक चेतावनी है, ज़ोर है, बरज है। 

सख़्त मुद्राएँ, प्राधिकारी की मुद्राएँ हैं।

अब से सब दुकानों पर यही लिखा होना चाहिए :

‘ठीक-ठीक लगा लो’—कहना मना है।

• बिंदुघाटी में विचरते हुए साहित्य-समीक्षक आशीष मिश्र की टाइमलाइन पर निगाह गई। जहाँ उन्होंने ‘नीम के फूलों’ के इर्द-गिर्द दो कवियों के कवितांशों के हवाले से कुछ बातें रखी थीं। बातें देखिए :

‘‘नीम आजकल ससज्ज खड़ा मिलता है। इस मौसम में हर बार मुझे नीम पर दो कविताएँ कौंधती हैं। पहली केदारनाथ अग्रवाल की है और दूसरी कुँवर नारायण की। इनकी शुरुआती पंक्तियाँ देखें : 

नीम के फूल 
दूध की फुटकियों-से झर

~ केदारनाथ अग्रवाल 

साबुन के बुलबुलों-से 
हवा में उड़ते हुए सफ़ेद छोटे-छोटे फूल

~ कुँवर नारायण 

कुँवर नारायण की यह कविता कहीं सिलेबस वग़ैरा में है और चर्चित है। मैंने पहले यही कविता पढ़ी थी। पढ़ते समय भी इन पंक्तियों में कुछ खटका, लेकिन समझ नहीं आया कि क्या? बाद में कहीं केदारनाथ अग्रवाल की कविता मिली और दोनों कविताएँ एकाएक अपनी काव्य-शक्ति और सीमाओं के साथ खिल उठीं। 

कवि के भावबोध को समझने में कथ्य से ज़्यादा प्रामाणिक चीज़ उसकी अप्रस्तुत योजना होती है। केदारनाथ अग्रवाल के ‘फुटकियों’ पर ध्यान दीजिए। ‘फ’ पर ह्रस्व ‘उ’ किसी लघुतर चीज़ का एहसास पैदा करता है। अस्ल में मुझे कविता में ‘फूल’ शब्द से चिढ़ है। हर रंग और आकार के लिए कामचलाऊ ढंग से यह जातिवाचक संज्ञा चिपका दी गई है—फूल। इससे न रंग-वैशिष्ट्य पैदा होता है, न आकार-वैशिष्ट्य। आप सोचकर देखिए कि अगर महुआ के कूचों, आम के बौर या मेहँदी के झौर की जगह—आम का फूल, महुआ का फूल और मेहँदी का फूल कहा जाए तो कैसा अटपटा लगेगा! 

मुझे तो लगता है कि नीम के फूलों को ‘नीम की फुटकियाँ’ कहना ज़्यादा व्यंजक है। दूध की फुटकियाँ कहने से सिर्फ़ निर्भार उजलेपन का ही नहीं, नीम के संजीवनी गुणों की व्यंजना भी पैदा होती है।  

कुँवर नारायण के ‘साबुन के बुलबुलों’ से सिर्फ़ उसके हल्केपन का बोध पैदा होता है, इसमें कोई और व्यंजना मुश्किल है। 

कुँवर नारायण को प्रकृति में और कोई उपमान मिला ही नहीं। वह फूल की उपमा एक उपभोक्ता वस्तु—साबुन के झाग—से देते हैं। 

साबुन और कास्टिक से जलीय पारितंत्र पर कैसा भयानक असर पड़ा है, इसे आप थोड़े-से रिसर्च से जान लेंगे। लेकिन प्रश्न यह है कि कवि में यह अंतर्विरोध क्यों है? यह अंतर्विरोध मध्यवर्गीय भावबोध का है, उसकी अनंत उपभोग-कामनाएँ प्रकृति को भी उपभोग्य वस्तु बना देती हैं। 

(ऊपर उद्धृत) सिर्फ़ ये चार कविता-पंक्तियाँ दोनों कवियों के भावबोध के बारे में बताने के लिए पर्याप्त हैं—एक जनवादी है और दूसरा कुलीनतावादी।’’

पोस्ट और पोस्टरों के समय में स्टेटमेंट जारी करने से कोई भी कहीं भी कभी भी चूकता नहीं है। आशीष मिश्र की ऐसी ही स्थिति को देखकर, बिंदुघाटीकार का मन भी कुछ कहने के लिए दहल-मचल रहा है। ऐसे में कहना न होगा कि कुँवर नारायण के यहाँ नीम और उसकी विभिन्न कलाएँ ‘याद के शिल्प’ में आती हैं। यानी वह नीम वहाँ है नहीं। वहाँ सब कुछ याद के शिल्प में है। वहाँ नीम की कड़वी-मीठी गंध है। इसी तरह नीम के बहाने उस कविता में तमाम कड़वी-मीठी बातें हैं। एक निपट गँवई दृष्टि नीम को इसी तरह देखती है—कड़वा और हितकारी। इस कविता में भी नीम इसी तरह है, बल्कि कवि ने तो उसे और थोड़ा संस्कारित अभिप्राय दे दिए हैं। ‘साबुन के बुलबुले’ का प्रयोग भी इसी याद-शैली के कारण हुआ होगा। यादें—बुलबुलों की तरह ही होती हैं। लेकिन पानी के सामान्य बुलबुले उड़ते नहीं हैं। उड़ सकें, इतना तनाव और निर्भार साबुन के बुलबलों में ही होता है। वही निर्भार नीम के फूलों में भी है... वे उड़ते हुए ही झरते हैं।

नीम के फूल के झरने के लिए ‘दूध की फुटकियों’ के प्रयोग में ध्वनि-व्यंजकता अच्छी लग रही है। लेकिन दूध की फुटकियाँ किस प्रकार झरेंगी? उनमें गति और निर्भार की वह उपस्थिति कहाँ है? केदारनाथ अग्रवाल की कविता में नीम के फूल महज़ मुलायमियत के अर्थ में आए हैं। दूध की फुटकियाँ भी मुलायम-गिलगिली होती हैं। शायद इसीलिए उन्होंने यहाँ उसका प्रयोग कर मारा है। एक अन्य बात यह है कि केदार के यहाँ ‘झरे हुए नीम के फूल’ उपमेय हैं, जिसके लिए पड़ी हुईं दूध की फुटकियाँ प्रयुक्त हुई होंगी। संभवतः यही उपयुक्त भी है, लेकिन कुँवर नारायण के यहाँ उपमेय हैं—‘झरते हुए नीम के फूल’... जिसके लिए उड़ते हुए साबुन के बुलबुले प्रयुक्त हुए हैं। यहाँ उपमेय एक ही वस्तु है, किंतु उनमें अवस्था-भेद है। 

अगर टेक्स्ट महत्त्वपूर्ण है तो केदारनाथ अग्रवाल का जनवाद नीम के फूल में केवल मुलायमियत का मज़ा देख पाया है, जबकि कुँवर नारायण के यहाँ नीम के फूल की अनगिन अर्थच्छवियाँ हैं। 

उपभोक्ता सामानों में भी कुछ चीज़ें बुनियादी हैं, कुछ विलासिता वाली। अगर रेल या अन्य अनेक जीवन के साधन अब पुरातन और बुनियादी होकर कविता में सहज लगते हैं तो साबुन में कैसा अटपटापन! साबुन का जलीय परितंत्र पर बुरा असर पड़ता है, लेकिन वह ख़ारिज कैसे हो सकता है! उसके विवेकपूर्ण इस्तेमाल (उदाहरणार्थ जैव अपघट्य साबुन जैसे कि डिटर्जेंट) की बात हो सकती है। पर इस तर्क से तो मनुष्य के साँस छोड़ने से भी वायुमंडल पर बुरा असर पड़ता है! 

यहाँ कुलीनतावाद और जनवाद का खाँचा आशीष मिश्र ने इतने Naive ढंग से  बनाया है, जैसे कि बी.ए. का प्रश्नपत्र हल करते हुए समय आगे भाग रहा हो, क़लम लाचार हो रही हो, समझ पीछे छूट रही हो।

• वर्ष 2025 के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार विजेता कृति ‘हार्ट लैंप’ की रचयिता बानू मुश्ताक़ के बारे में इस कृति की अनुवादक दीपा भास्ती अपने अनुवादकीय नोट में लिखती हैं : ‘‘उनके लिए कन्नड़ का एक शब्द कहा जाए तो वह है : ‘बंदाया’, जिसका अर्थ है विद्रोही, असहमत आदि।’’ वह आगे कहती हैं, ‘‘दरअसल, ‘बंदाया’ सत्तर और अस्सी के दशक में कन्नड़ का एक साहित्य आंदोलन रहा है, जोकि उच्च जाति पुरुष लेखन के वर्चस्व के बरअक्स हुआ। इस आंदोलन ने विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों, दलितों, स्त्रियों की कहानियों को जगह दी।’’ 

बानू मुश्ताक़ के बारे में दीपा यह भी कहती हैं कि ‘‘इस आंदोलन से जुड़कर उनका लेखन—‘लड़का-लड़की मिले’ टाइप रोमांटिक साहित्य से दूर ही रहा और उसने समाज में पितृसत्ता और ढोंग को अपना विषय बनाया।’’

दीपा ने अपने अनुवादकीय नोट के लिए छह पृष्ठ ख़र्च किए हैं। उनका अनुवाद वाक़ई काफ़ी अच्छा है और इतना बड़ा पुरस्कार लेकर आया है तो इससे ज़्यादा पृष्ठ भी वह ख़र्च कर सकती थीं। लेकिन अपना वक्तव्य देते समय उन्हें ख़ुद को ऐसे उज़ागर नहीं होने देना चाहिए। क्या उनके हिसाब से कन्नड़ साहित्य में केवल दो ही तरह के मॉडल हैं? एक—‘लड़की-लड़का मिले’ टाइप और दो—‘बांदाया आंदोलन’? कमाल है! 

ऐसा तो किसी भाषा में नहीं होता है। 

बहरहाल, दीपा भास्ती के इस नोट को पढ़कर बानू मुश्ताक़ का कहानी-संग्रह पढ़ते वक़्त मेरे ज़ेहन में जो ख़याल आ रहे थे, वे कुछ स्पष्ट हुए :

बानू मुश्ताक़ अच्छा लिखती हैं—सीधा-सरल, स्त्रियों, ख़ासकर मुस्लिम स्त्रियों के जीवन के प्रति सरोकारयुक्त, पढ़ी जाने लायक़ कहानियाँ। लेकिन अपनी पुरस्कृत पुस्तक की कहानियों की क़िस्सागोई में वह कहीं-कहीं बेहद जल्दबाज़ और अख़बारी हो जाती हैं। इसके अलावा संवाद-स्तरीयता, भाषा, कथानक, मनोवैज्ञानिक जटिलता और साहित्य की अन्य सूक्ष्मताओं की कसौटी पर देखें तो वह इतनी भी विशिष्ट नहीं हैं कि हिंदी के समकालीन श्रेष्ठ बीस-तीस कथाकारों की सूची में आ सकें। हिंदी की वरिष्ठ लेखक नासिरा शर्मा का लेखन मुझे मुश्ताक़ बानू से कहीं अधिक गहरा लगा।

• यह साल दूसरा है...

बसें चिंचियाती हुई, उछलती हुई, खिड़की से गर्म हवाएँ सोखती हुई चली जा रही हैं... और अल्ताफ़ राजा अपना बारहमासा गाते हुए ऊपर उद्धृत नुक़्ते से गुज़र रहे हों तो पसिंजर कोई भी परेशानी झेल सकते हैं। 

अल्ताफ़ राजा के गाने स्मृति-उद्दीपक गंध की तरह हैं, जो एक झोंके में ही आपको झिंझोड़कर यह बता देते हैं कि आप कुछ दशक पहले भी थे और अभी भी हैं।

• पहलगाम की घटना के बाद यूट्यूबर्स ने कुछ क़ीमती कपड़े और पंद्रह से बीस-पच्चीस हज़ार रुपए की रेंज के जूते ख़रीदे—पहनने के लिए!

• उनके फ़ॉलोवर्स जितने बढ़ने थे, बढ़ गए। वे किसी और वबा पर, कोई और टारगेट लिए फिर हाज़िर होंगे और आपकी व्यस्तता में हिस्सा लेंगे। 

कौन?
और कौन! वही यूट्यूबर्स।

•••

अन्य बिंदुघाटी यहाँ पढ़िए : कविताएँ अब ‘कुछ भी’ हो सकती हैं | क्या किसी का काम बंद है!

 

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