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जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से-4

जेएनयू क्लासरूम के क़िस्सों की यह चौथी कड़ी है। पहली और तीसरी कड़ी में हमने प्रोफ़ेसर्स के नामों को यथावत् रखा था और छात्रों के नाम बदल दिए थे। दूसरी कड़ी में प्रोफ़ेसर्स और छात्र दोनों पक्षों के नाम बदले हुए थे। अब चौथी कड़ी में फिर से प्रोफ़ेसर के नाम को यथावत् रखा है और छात्रों के नाम बदल दिए हैं। मैं पुनः याद दिला दूँ कि इसका उद्देश्य न तो किसी का स्तुतिगान करना है और न ही किसी के चरित्र को गिराना है, बल्कि क़िस्सों की यह शृंखला विश्वविद्यालय-जीवन के सुंदर दिनों को स्मृत करने का एक प्रयास भर है।

प्रो. गोबिंद प्रसाद भारतीय भाषा केंद्र में कविता की समझ रखने वाले और कविता पढ़ाने वाले अंतिम प्रोफ़ेसर थे; जेएनयू से पढ़े हुए मेरी पीढ़ी तक के विद्यार्थियों की यह धारणा है, जो संभवतः कभी खंडित नहीं होगी। उनके व्यक्तित्व में कई विरोधाभास थे। वह विचार से मार्क्सवादी थे, लेकिन काव्य-शिल्प के स्तर पर कलावाद के समर्थक थे। 

वह दलित समाज से संबद्ध थे, लेकिन साहित्य को जाति के आधार पर बाँटने के पक्ष में नहीं थे। उनका समय और ज्ञान सबके लिए उपलब्ध था, लेकिन पैसा ख़र्च करने में बहुत अनुदार थे। वह शानदार अध्यापक थे, लेकिन कृपण-वृत्ति उनके व्यक्तित्व का नकारात्मक पक्ष थी। हम मज़ाक़ में कहते थे कि नोट का कोना देखकर हम पहचान जाते हैं कि यह सर के हाथ से होकर निकला है। 

वह घरेलू सामान के लिए भी अगर किसी को पैसे देते थे तो इस आशंका से कि चिपककर दूसरा नोट न चला जाए, नोट के कोने को इतना रगड़ते थे कि उसका रंग उतार देते थे। 

हिंदी और उर्दू—दोनों भाषाओं के छात्र उन्हें पसंद करते थे और उनका बहुत सम्मान करते थे। नामवर सिंह के बाद भाषा केंद्र में यही अध्यापक थे, जो हिंदी और उर्दू दोनों केंद्रों में लोकप्रिय रहे और छात्रों के गुरुवत् सम्मान का पात्र बने। आज भी पुराने छात्र उन्हें बहुत आदर के साथ याद करते हैं।

एक

हमारे पाठ्यक्रम में निराला की कविता ‘स्फटिक शिला’ शामिल थी। सर पढ़ाने आए, लेकिन उस दिन उनकी तबियत ख़राब थी। उन्हें नींद भी आ रही थी। उन्होंने कविता की आरंभिक पंक्तियाँ पढ़ीं—

स्फटिक-शिला जाना था।
रामलाल से कहा।
उमड़ पड़े रामलाल। 
बोले, ‘कुछ रुकिए, फ़िलहाल 
गाड़ी तैयार नहीं; 

इतना पढ़ते ही उन्हें नींद आ गई। वह फिर जागे और यही पंक्तियाँ पढ़ीं, फिर सो गए। ‘गाड़ी तैयार नहीं’ तक का यह क्रम पाँच-सात बार चला।

अंततः खीझकर कामेश्वर नाम के विद्यार्थी ने कहा—“सर, गाड़ी तैयार है, आप हाँको तो सही!”

इस खीझ पर सर को भी हँसी आ गई और अपनी ग़लती स्वीकार कर अगले दिन के लिए क्लास रखी। अगले दिन उन्होंने वही कविता बहुत शानदार ढंग से पढ़ाई। कामेश्वर ने क्लास ख़त्म होते ही कहा—“कल रामलाल जी थके हुए थे, लेकिन आज रामलाल जी की गाड़ी सरपट दौड़ रही है।”

दो

प्रो. गोबिंद प्रसाद संगीत के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने अपने छात्रों को संगीत सुनने की तमीज़ दी। वह क्लासिकल संगीत सुनते थे, लेकिन उनके कान नए और चालू गानों पर भी थे। एम.फिल के दौरान एक पेपर भारतीय कविता का शामिल था, जो स्वैच्छिक था। 

बांग्ला कवि जीवनानंद दास, रवींद्रनाथ ठाकुर और उर्दू के फ़ैज़-फ़िराक़ जैसे विख्यात कवियों से हमारा पहला परिचय प्रो. गोबिंद प्रसाद ने ही करवाया।

हम तीन लोगों ने यह पेपर लिया। फ़ैज़ पढ़ाने के क्रम में ‘मौला’ शब्द आया। सर ने बताया कि ‘मौला’ का शाब्दिक अर्थ ‘दोस्त’ होता है। हम तीनों का उर्दू शाइरी में हाथ तंग था, इसलिए उन फ़िल्मी गानों को याद करना शुरू किया जिसमें ‘मौला’ शब्द का इस्तेमाल हुआ है। 

‘चक दे इंडिया’ के गाने ‘मौला मेरे ले ले मेरी जान...’ के बोलों में मेरा साथी कंफ़्यूज़ हो गया और उसने ‘मौला तेरी ले ले तेरी...’ जैसे कुछ अस्पष्ट बोल गुनगुनाए। 

सर ने मुस्कुराते हुए कहा—“तुम्हारे मन में ‘लैला तेरी ले लेगी तू लिखकर ले ले...’ गूँज रहा है। मौला का इससे कोई वास्ता नहीं है।” 

अंत में उन्होंने उर्दू के कई शे’र सुनाकर अपनी बात को पुष्ट किया।

तीन

हमारी एक क्लासमेट सोफ़िया थीं—सौम्य और सुंदर। उस पर हमारे एक सहपाठी जगरूप का मन आ रखा था। फ़्रेशर-पार्टी का आयोजन था। परंपरानुसार फ़्रेशर पार्टी में प्रोफ़ेसर्स को भी आमंत्रित किया गया था। उस दिन सोफ़िया सूट पहनकर आई थीं, सर ने उसे देखा।  संभावना तलाशते जगरूप पर भी सर की नज़र पड़ी। 

अगले दिन ‘कविता में बिंब-विधान’ पर बात करते हुए सर ने कहा—“हालाँकि कविता में बिंब का कॉन्सेप्ट आधुनिक काल का है, लेकिन हमारे प्राचीन साहित्य में ऐसे-ऐसे बिंबों का प्रयोग हुआ है कि उनके सामने बड़े-बड़े बिंबवादी पानी भरें।” उदाहरण के रूप में उन्होंने कबीर का एक दोहा सुनाया। प्रसंगवश कबीर की पुत्री कमाली का ज़िक्र हो आया। 

हमारे उसी साथी ने अपने सहपाठियों की ओर आँख मारते हुए शरारतवश पूछा—“सर, कबीर की बेटी भी थी?”

उसकी शरारत भाँपकर मुस्कुराते हुए सर ने कहा—“थी न वो पतली-सी। ब्लैक प्रिंटेड सूट और बड़े-बड़े इयररिंग्स पहने उसे कल ही मैंने फ़्रेशर पार्टी में देखा था।”

उस दिन क्लास में लाज से दो लोगों के गाल लाल हो गए थे।

चार

प्रो. गोबिंद प्रसाद को सैकड़ों कविताएँ याद थीं। कविता की पंक्ति में एक शब्द भी फेरबदल करना उन्हें मंज़ूर न था। नागार्जुन के काव्य-संसार पर हमारा सेमिनार पेपर था। हमारा क्लासमेट रायबहादुर अवधी भाषी था, इसलिए वह कई बार हिंदी की क्रियाओं का अवधी में रूपांतरण कर देता था। 

सेमिनार पेपर की प्रस्तुति में सर ने उससे ‘अकाल और उसके बाद’ कविता की दो पंक्तियाँ सुनाने के लिए कहा। उसने पहली पंक्ति पढ़ी—

‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की भई उदास’

‘रही’ की जगह ‘भई’ का इस्तेमाल सर को अखर गया। उन्होंने लगभग खीझते हुए कहा—“माना कि अवधी भाषा के सारे कवि तुम्हारी रिश्तेदारी में आते हैं, लेकिन और लोग भी हुए हैं जिनका साहित्य के विकास में योगदान है। यह आधुनिक कविता का पेपर है, यहाँ ‘भई-भई’ नहीं चलता। 

रायबहादुर ग़लती स्वीकारता तो नंबर कटते और बहस करता तो भी नंबर कटते। एक लड़की ने उसकी हालत देखकर ‘भई’ का प्रयोग लोकोक्ति में किया—“भई गति साँप छछूंदर केरी।” 

सर ने रायबहादुर से मुस्कुराते पूछा—“अब समझ में आया कुछ!”

रायबहादुर ने स्वीकृति देते हुए पुनः अवधी की ही चौपाई दुहराई—“समुझि गियान हिये मति भई।”
 
रायबहादुर के अवधी बोलते ही पूरी क्लास हँस पड़ी।

पाँच

एक दिन वह शमशेर बहादुर सिंह की कविता ‘सौंदर्य’ पढ़ा रहे थे। पढ़ाने के क्रम में एक विद्यार्थी लेखराज ने कविता समझ में नहीं आने का कारण पूछा। साथ ही प्रश्न किया कि कविता को कैसे पढ़ें कि उसका निहितार्थ समझ में आ जाए।

सर ने उत्तर देते हुए कहा—“किसी कविता का एक अर्थ हो ही नहीं सकता। उसे धीरे-धीरे पढ़ो तो मालूम होगा कि प्रत्येक कविता में कई चोर दरवाज़े होते हैं। कविता एक पाठक से इतनी योग्यता की उम्मीद करती है कि वह उस दरवाज़े को चिह्नित करके उसमें प्रवेश करे। अयोग्य व्यक्ति को कविता अपनी देह पर उँगली रखने का अधिकार भी नहीं देती, उसके सामने अपना मन खोलना तो दूर की बात है। इसलिए कविता समझने के लिए योग्य बनो।”

लेखराज गद्य का विद्यार्थी था, कविता का कोर्स यूँ ही ले लिया था। उसे यह लक्षणात्मक भाषा समझ में नहीं आई। देह, दरवाज़ा और उँगली की त्रिवेणी में उस दिन का फँसा लेखराज आज तक नहीं निकल पाया। कविता की चर्चा होने पर लेखराज आज भी देह, दरवाज़ा और उँगली का बेतरतीब रूपक गढ़ता है। आजकल वह उत्तर प्रदेश में अध्यापक है।

~~~

अगली बेला में जारी...

पहली, दूसरी और तीसरी कड़ी यहाँ पढ़िए : जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से | जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से-2 | जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से-3

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