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उर्फ़ी जावेद के सामने हमारी हैसियत

हिंदी-साहित्य-संसार में गोष्ठी-संगोष्ठी-समारोह-कार्यक्रम-आयोजन-उत्सव-मूर्खताएँ बग़ैर कोई अंतराल लिए संभव होने को बाध्य हैं। मुझे याद पड़ता है कि एक प्रोफ़ेसर-सज्जन ने अपने जन्मदिन पर अपने शोधार्थी से एक कार्यक्रम आयोजित कराया और उसमें अपने मित्रों को बतौर वक्ता आमंत्रित करवाया। कार्यक्रम का दिन आया, तो वह बड़े सकुचाते हुए साहित्यकार के रूप में वहाँ पहुँचे। उनका अंदाज़ ऐसा था कि जैसे इस कार्यक्रम को उनके शोधार्थियों ने उनके सम्मान में आयोजित किया हो। इस मौक़े पर उनके वक्तारूपी मित्र आए और उन्होंने उन्हें उनके जन्मदिन की शुभकामनाएँ देते हुए, उन पर बड़ी-बड़ी डींगें हाँकीं और समोसा-चाय उदरस्थ कर लौट गए। 

इसके बाद जैसा कि अवश्यंभावी था : फ़ेसबुक पर तस्वीरें अपलोड की गईं और सबने ‘लव-रेड हार्ट-रिएक्शन’ देने के बाद कमेंट-बॉक्स में एक स्वर से कहा, ‘‘सर! आपने वाक़ई हिंदी साहित्य को बहुत कुछ दिया है। आप न होते तो हिंदी साहित्य यहाँ तक न पहुँचता।’’ इसमें दूसरा वाक्य सच भी था! 

‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ में तिग्मांशु धूलिया के किरदार रामाधीर सिंह का एक डायलॉग था—सच के संबंध में—जो भारतप्रसिद्ध है। यहाँ उसे उद्धृत तो नहीं किया जा सकता, मगर आप समझ सकते हैं कि इशारा उस तरफ़ ही है।

रामाधीर सिंह के उस संवाद से याद आता है कि एक ज़रूरी, लेकिन हाशिए से ग़ायब आदमी का क़िस्सा यहाँ लिखा जाना चाहिए... 

एक बस्ती के किसी मुहल्ले में एक पान की दुकान थी, जिसे रफ़ी मियाँ चलाते थे। सारी बस्ती उन्हें रफ़ड़ू पनवाड़ी के नाम से जानती थी। रफ़ड़ू नाम के पीछे, उनकी पान लगाने के बाद ठेक के नीचे बिछी बोरी से हाथ रगड़ने की आदत थी। इसी रगड़ूपन की वजह से उनका नाम बिगड़कर पहले रगड़ू, फिर रफ़ी के मिलान पर रफ़ड़ू हो गया। 

रफ़ी मियाँ शाइरी और पान खाने-खिलाने के बहुत बड़ेवाले शौक़ीन थे। तत्कालीन सैयदज़ादों और नवाबों के यहाँ पान उनकी ही दुकान से जाया करते थे। लोग अक्सर पान का गुल्ला मुँह में दाबे भीड़ की शक्ल में उनकी दुकान पर मौजूद होते और शे’रगोइयाँ होती रहतीं। एक दिन इसी भीड़ में से किसी साहब ने उनसे कहा, “मियाँ! आप पान खिलाते हैं, पान लगाते हैं, शे’र कहते हैं और शाइरी पंसद करने वाले आदमी हैं, मगर फिर भी आपकी रसाई यहीं तक रही। आप उम्र भर पान ही लगाते रह गए, आप पाये के शाइर नहीं हो पाए। अदब में आपकी कोई हैसियत नहीं है।” 

रफ़ड़ू इस बात पर तप गए और बोले, “मियाँ! अदब में आपके कहे की हैसियत बाल बराबर भी नहीं है।” उन्होंने अपने पजामे के भीतर के पटेदार कच्छे का नाड़ा ढीला किया और अंदर हाथ डालकर एक बाल निकाला और उन साहब के हाथ में रख दिया... फिर बोले, “अदब में हमारी हैसियत ये है कि इस बाल को शहर में ले जाकर किसी नवाब या सैयदज़ादे की हथेली पर, यह बताते हुए रख दीजिएगा कि ये रफ़ड़ू पनवाड़ी की शर्मगाह का बाल है। इसे भी शे’र तस्लीम कर लिया जाएगा।”

गाली और साहित्य का बहुत गंभीर अंतर्संबंध है। कनिष्ठ वरिष्ठों को गाली देते हैं और वरिष्ठ उनसे वरिष्ठों को। वे जो किसी को गाली नहीं दे पाते, कविता-टविता करते-वरते रहते हैं।

...तो यहाँ बात हिंदी साहित्य से संबंधित कार्यक्रमों की हो रही थी। इस संबंध में इन दिनों ख़बर गर्म है कि इस मुल्क की ही नहीं हिंदी साहित्य की भी राजधानी दिल्ली में होने वाले एक बड़े साहित्यिक जलसे में प्रख्यात स्त्री-कवि और काफ़ी शोहरतयाफ़्ता उर्फ़ी जावेद साहिबा को बुलाया जा रहा है। इस मुद्दे पर हिंदी के फ़ेसबुकिए काफ़ी कुछ लिख-बोल रहे हैं। वे भी इस पर लिख रहे हैं, जिनको बुलावे की इतनी चाह है कि आयोजकों की लटकन बनने से भी उन्हें परहेज़ नहीं। वे भी इस बात की आलोचना कर रहे हैं, जो पुस्तक-रॉयल्टी आदि के मुद्दे पर अपने प्रकाशक से एक शब्द भी नहीं बोल पाते। वे भी टिप्पणियाँ कर रहे हैं, जो ज़लील होकर भी दरियागंज के कीचड़ में लगातार लिपटम-लिपटाई करते रहते हैं। 

ख़ैर, यहाँ मेरा उर्फ़ी को कवि कहकर पुकारने का औचित्य इसलिए भी बनता है, क्योंकि बड़े-बूढ़े कहते हैं—''नंग बड़ा परमेश्वर से...'' ये नंग कपड़ों से संबंधित नहीं है, ये नंग है ईमानदारी का नंग। जो नंग हो जाए, वो परमेश्वर है! अब परमेश्वर से बड़ा कवि भला और कौन हो सकता है! इस हिसाब-लिहाज़ से देखिए तो उर्फ़ी जावेद से बड़ी कवि इस वक़्त और कोई नहीं है!

दरअस्ल, उर्फ़ी के विरोध से पहले उर्फ़ी की काफ़ी तारीफ़ की जानी चाहिए, क्योंकि वह हमारे हिंदी-कवियों से सैकड़ों दर्जा बेहतर हैं। कम से कम वह जो करती हैं, उसमें ईमानदार तो हैं। 

हमारे यहाँ कवि कभी ख़ाकी निकर पहन लेते हैं, तो कभी स्त्री-विरोधी हो जाते हैं। जब उन्हें कोई नहीं देख रहा होता है, तो वे क्रांतिकारी भी हो जाते हैं। जब उन्हें सब देख रहे होते हैं, तो वे और घटिया हो जाते हैं। कभी वे चंदे की रसीद लिए सामने आते हैं, तो कभी अपनी प्रतिक्रियावादी फ़ेसबुक-पोस्ट लिए। जब लगता है कि गली के लौंडे तक उनकी बात नकारने की हैसियत रखते हैं, तो वे आलोचक बन जाते हैं। जब वे बहुत कुछ लगते हैं, तब वे किसी बड़े साहित्यकार के पैर का उतरा हुआ जूता हो जाते हैं—वो जूता जो किसी भी अज्ञात समय में वही ‘बड़ा साहित्यकार’ उन्हीं के मुँह पर रसीद कर देगा। 

बहरहाल, इस प्रसंग से संबंधित-संदर्भित कथित साहित्य-उत्सव के कार्यक्रम की सूची देखें; तो वहाँ उर्फ़ी जावेद से इतर भी कई ऐसे लेखक-अलेखक मौजूद हैं, जिन पर बात की जानी चाहिए। ये हिंदी के हों या उर्दू के; लेकिन ये वही लोग हैं, जिनकी प्रतिबद्धता बहुधा हैरत में डालती रही है और अब यही वे लोग हैं, जिनका पारा इतना गिर गया है कि शर्म की कोई हरारत तक महसूस नहीं हो रही। कवि अमिताभ की पंक्तियाँ हैं :

बाहर से ज़्यादा 
अब कवियों के भीतर अँधेरा है 
और शासकों को प्रिय हैं 
अँधेरे में भटकते कवि 

इस शिकवे से इतर समझदारों की हैरत इस पर भी बढ़ती है कि शोषक की खिल्ली उड़ाती व्यंग्यात्मक कविता—‘कहो नरेंदर मज़ा आ रहा...’—लिखने वाले भी इस सूची में मौजूद हैं। यहाँ उनके अलावा और दूसरे उर्दूवालों पर कुछ नहीं कहना ही ठीक है, क्योंकि उन लोगों का इस तरह के कार्यक्रमों में जाने का पुराना इतिहास रहा है। वे कितनी बार भगवा झंडे को सलामी देते नज़र आए हैं। चाहे उनके सिर पर हरी पगड़ी हो, मगर उनके कंधे पर कैपिटलिज़्म का रजनीगंधामय गमछा सदैव रखा रहा है। 

गीत चतुर्वेदी की कविता-पंक्तियाँ हैं : 

एक बच्चे की जाँघ के पास से 
अमर चिउँटियों के दस्ते में से 
कोई दिलजली चिउँटी 
निकर के भीतर घुसकर काट जाती है

ये वही चिउँटियाँ हैं—दिलजली चिउँटियाँ जो साहित्य के निकर में घुसी हुई हैं और एक दिन पीड़ा के चरम पर पहुँचने पर इनका मसला जाना तय है। 

वहीं दूसरी तरफ़, इस कथित साहित्य-उत्सव में तमन्ना भाटिया भी वक्ता के रूप आमंत्रित हैं। तमन्ना भाटिया ‘आज की रात मज़ा हुस्न का आँखों से लीजिए...’ नाम के आइटम नंबर में केंद्रीय नृत्यांगना हैं। उनके इस योगदान के चलते अगर इस साहित्यिक कार्यक्रम में तमन्ना भाटिया को नहीं बुलाया जाता, तो हिंदी के साहित्यिक जनों को घोर आपत्ति होती। ये साहित्यिक जन वही हैं, जो आपको अक्सर साहित्य से किसी न किसी रूप से संबंधित स्त्रियों के इनबॉक्स में अपनी कुंठाएँ ज़ाहिर करते मिल जाएँगे।

वैसे तो हिंदी साहित्य की ओर से तमन्ना को सामूहिक धन्यवाद दिया जाना चाहिए और उसके लिए किसी लेखक संघ-संगठन-मंच-संस्था-अकादेमी के बैनर तले ‘हिंदी साहित्य और तमन्ना भाटिया : एक समकालीन विमर्श’ शीर्षक से एक कार्यक्रम आयोजित किया जाना चाहिए, जिसमें हिंदी के बड़े-बड़े ‘लार-चुआऊ साहित्यकारों’ का फ़ोटो उनके नाम के साथ हो। इस प्रोग्राम को हिंदी साहित्य के नामचीन प्रकाशकों को स्पॉन्सर करना चाहिए। इसके साथ ही हिंदी की सेवा करने वाले फ़ेसबुक-इंस्टाग्राम-एक्स के पेज बतौर मीडिया-पार्टनर इस कार्यक्रम से जुड़ें और रील्स बनाकर इसका प्रचार करें। अपार भीड़ न जुटे, तो कहिएगा! आपके सारे जश्न-उत्सव-महोत्सव धरे के धरे रह जाएँगे। इसी भीड़ का फ़ायदा उठाकर लगे हाथों छपने से पहले ही बेस्टसेलर हो चुकीं या होने वाली पुस्तकों का विमोचन भी किया जा सकता है। 

प्रतिवर्ष दीपावली के बाद आने-जाने पर बहस करना हिंदी के उत्सवख़ोरों का प्रिय शग़्ल है। हर साल रजनीगंधा के बैनर तले हो रहे ‘साहित्य-उत्सव’ को देखकर सुगबुगाहटें शुरू हो जाती हैं। वे जो इस कार्यक्रम में जाना चाहते हैं, उन्हें बुलाया नहीं जाता। कुछ बुलाए गयों को बाद में याद आता है कि उन्हें नहीं जाना। कुछ बुलाए गए, ऐसे जाते हैं कि फिर हर बार जाएँगे और कुछ ऐसे कि फिर कभी उन्हें नहीं बुलाया जाएगा। बचे वे जो जाना भी नहीं चाहते और उन्हें बुलाया भी नहीं जाएगा। इस कोटि के लोग जगह-जगह लिख रहे हैं कि उर्फ़ी को बुलाया जा रहा है, तमन्ना को बुलाया जा रहा है... 

यह सर्वविदित है कि बुलावे सभ्यता-संस्कृति का एक अहम हिस्सा रहे हैं। एक बुलावा था—कूफ़ा से हुसैन के लिए और एक बुलावा था—जलालुद्दीन ख़िलजी का निज़ामुद्दीन औलिया के लिए। एक बुलावा था—कर्णावती का हुमायूँ के लिए और एक बुलावा था—अकबर का कुम्भनदास के लिए। यहाँ रूमी भी क्यों न याद आएँ! उनके नाम से कथित तौर पर मंसूब यह चीज़ देखिए :

Come, come, whoever you are. Wanderer, worshiper, lover of leaving. It doesn't matter. 
Ours is not a caravan of despair. come, even if you have broken your vows a thousand times. Come, yet again, come, come.

आप बुलावों का फ़र्क़ जानते हैं, पढ़े-लिखे लोग हैं। कमल का बुलावा हो या पूँजी का बुलावा... फ़ैसला आप नहीं कर सकते कि कौन जाएगा, कौन नहीं। ये बुलाए जाने वाले का विवेक तय करेगा, क्योंकि... 

रफ़ड़ू पनवाड़ी ने कहा था कि अदब में आपकी हैसियत...

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