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रविवासरीय : 3.0 : ‘चारों ओर अब फूल ही फूल हैं, क्या गिनते हो दाग़ों को...’

• इधर एक वक़्त बाद विनोद कुमार शुक्ल [विकुशु] की तरफ़ लौटना हुआ। उनकी कविताओं के नवीनतम संग्रह ‘केवल जड़ें हैं’ और उन पर एकाग्र वृत्तचित्र ‘चार फूल हैं और दुनिया है’ से गुज़रना हुआ। गुज़रकर फिर लौटना हुआ। लौटकर फिर गुज़रना हुआ...

• विकुशु हमारे प्रेम का संसार हैं... कुछ इस प्रकार के प्रेम का, जिसमें कुछ भी अप्रिय नहीं प्रतीत होता।

• विकुशु के दुहराव भी अप्रतिम हैं।

‘केवल जड़ें हैं’ में विकुशु की एक कविता को दो बार पढ़ना अनुपम और सुंदर है—एक बार बाईं तरफ़ कवि की हस्तलिपि में और दूसरी बार दाईं तरफ़ उसके टाइप्ड स्वरूप में :

|| यह कहकर ||

यह कहकर कि परिस्थितियाँ 
हमें अलग करेंगी
तुम ख़ुद अलग हो गईं
तुमने तो परिस्थितियों को 
अलग करने का मौक़ा ही नहीं दिया।

बरस बीत गए
कि परिस्थितियाँ हमें मिला देंगी के रस्ते पर  
मैं खड़ा रहा।

~ विनोद कुमार शुक्ल
14 अक्टूबर 1963, जगदलपुर

• विकुशु-शैली स्वयं विकुशु ही रूढ़ कर सकते हैं, अन्य नहीं। इस बीच इस शैली के अभ्यासकर्ता बढ़ते जाते हैं—परिस्थितियाँ हमें मिला देंगी के रस्ते पर...

• || हम अब कुछ देर ||

हम अब कुछ देर चुप रहें
और सुनें हम क्या नहीं कहते
आँखें भी बंद कर लें
और देखें हम क्या नहीं देखते

क्या हम कुछ देख और सुन सकेंगे!

~ विनोद कुमार शुक्ल

‘केवल जड़ें हैं’ विकुशु का नवीनतम कविता-संग्रह ज़रूर हैं, लेकिन उसमें उनके युवा दिनों की असंकलित कविताएँ हैं—ज़्यादातर 1959-60 की। इन कविताओं से एक-एक करके गुज़रते हुए इस सत्य को पाया जा सकता है कि एक सहज भाषा पाना सबसे दुर्निवार संघर्ष है।

• हिंदी में अब मुक्तिबोध के वास्तविक वंशज वे ही कवि प्रतीत होते हैं; जिन्हें उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ, वे नहीं जो सब्र-संकोच खोकर अहर्निश मुक्तिबोध-मुक्तिबोध करते रहते हैं।

• ‘केवल जड़ें हैं’ से गुज़रने के बाद मैं अपने आस-पास अँधेरा करता हूँ और एक ठंडे बिस्तर पर सीधे लेटकर सोचता हूँ : मैं विकुशु से प्रथमतः कब परिचित हुआ था! वह कौन-सी पंक्ति थी! मुझे याद की तरह कुछ आता है—‘सब कुछ होना बचा रहेगा’।

मेरे जीवन में यह विकुशु की कविता के आगमन से बहुत पूर्व की बात है। मैं इस संसार की बहुत सारी पुस्तकों में से कुछ ही पुस्तकें पढ़ पाया था, और उसमें भी विकुशु के कविता-संसार से अपरिचित था। मैं अपनी जड़ों से निर्वासित था। मैं वृक्ष से छूटे हरे की तरह था—एक रोज़मर्रा के भटकाव में क्षण-क्षण रौंदा जाता हुआ... मैं अपना रंग खो रहा था। मैं सूखी लकड़ी के रंग का हो गया था, या कहें मैं लकड़ी हो गया था।

मैं पुस्तकों में पुनर्वास दूसरों के बहाने उन छूट चुकीं स्थानीयताओं में पुनर्वास चाहता था जिनके विषय में मैं प्राय: सोचता रहता था और जहाँ अब लौट सकना संभव नहीं था।

मैं नई स्थानीयताओं में पुनर्वासित होकर अपने वास्तविक पड़ोस को खो रहा था। इस तरह पुनर्वास में पड़ोस होते हुए भी अनुपस्थित था। वहाँ आवाजाही नहीं थी। सुख-दु:ख थे, लेकिन उनकी पूछताछ नहीं थी। वहाँ सब रोग अकेलेपन से शुरू होते थे और मेरे भाग की व्यथा देकर मेरे अकेलेपन से विदा हो जाते थे। मेरी व्यथा का आकार चाहे आकाश हो जाए, पड़ोस को मेरे संदर्भ में दृश्य में नहीं आना था तो नहीं आना था।

मैं इस दृश्य में और अधिक पुस्तकों में रहने लगा था। इस प्रकार रहते हुए आस-पास का शोर और आत्महीनताएँ, अन्याय, अविवेक... मुझे कुछ भी अनुभव नहीं होता था। मैं पुनर्वास की प्रत्यक्ष के साथ कोई संगति स्थापित नहीं कर पाता था। यह भी कह सकते हैं कि इसमें मेरी कोई रुचि नहीं थी। मैं एक सुघड़ स्मृतिलोक में स्वप्नवत् रहता था। हालाँकि इसके समानांतर जो मूल यथार्थ था, वह बहुत हिंस्र और भयावह था!

मैं पुनर्वास में अपने अध्यवसाय से जो स्मृतिलोक रच रहा था; उसमें उन छूट चुकीं स्थानीयताओं की कल्पना थी, जहाँ एक ही रोज़ में कई-कई सूर्योदय और सूर्यास्त थे। मैं गर्म दुपहरों को अपने तलवों के नीचे अनुभव करता था और यह गर्म एहसास मेरे कपड़ों से नमक की तरह लिपटा रहता था। मेरे सिर पर सतत एक बोझ होता था और आगे हत्या की आशंकाएँ। यह भयावह के समानांतर भयावह था। इस समानांतरता में सतत जीते हुए मैं एक रोज़ विकुशुक्ल की कविता से परिचित हुआ :

इस मनुष्य होने के अकेलेपन में
मनुष्य की प्रजाति की तरह लोग थे।

और...

लोगों तक पहुँचने की कोशिश में 
दो चार लोगों ने मुझे सबसे अलग किया 
मुझको सुनसान किया 
बड़ा नुक़सान किया 
लोगों की बात करने की कोशिश में 
एकदम चुपचाप किया।

मैं इस कविता-सृष्टि में उतरा तो उतरता ही चला गया। मैं कुछ तैरा और फिर डूब गया। मैंने पाया कि मैं छूट चुकी स्थानिकताएँ पा चुका हूँ। मेरा अनुभव अपेक्षा से कुछ अधिक और अनिर्वचनीय पा लेने के भयभीत जैसा था। मैं इस आस्वाद के बाद बहुत वक़्त तक चुपचाप रहा। बस...

मानुष मैं ही हूँ इस एकांत घाटी में 
यहाँ मैं मनुष्य की आदिम अनुभूति में साँस लेता हूँ 
ढूँढ़कर एक पत्थर उठाकर 
एक पत्थरयुग का पत्थर उठाता हूँ।  
कलकल बहती नदी के ठंडे जल को 
चुल्लू से पीकर पानी का प्राचीन स्वाद पाता हूँ।   
मैं नदी के किनारे चलते-चलते 
इतिहास को याद कर भूगोल की एक पगडंडी पाता हूँ। 
संध्या की पहली तरैया केवल मैं देखता हूँ। 
चारों तरफ़ प्रकृति और प्रकृति की ध्वनियाँ हैं 
यदि मैंने कुछ कहा तो अपनी भाषा नहीं कहूँगा 
मनुष्य ध्वनि कहूँगा।

एक प्रदीर्घ मौन के बाद मैंने पाया कि मैं पृथ्वी में सहयोग और सहवास का अर्थ पा चुका हूँ। मैं एकांत का अर्थ और एक स्थानीयता में सार्वभौमिक विस्तार पा चुका है। मैंने कुछ संसार स्पर्श कर बहुत संसार स्पर्श कर लेने की चाह का वरण कर लिया है और अब मैं घर और संसार को अलग-अलग नहीं देख पा रहा हूँ। यह सृष्टि मुझे बहुत संभावनापूर्ण लग रही है। हालाँकि हिंसा बहुत है :

ऐसे छोटे बच्चे से लेकर 
जिसके हाथ साँकल तक नहीं पहुँचते 
घर का कोई भी दौड़ता है दरवाज़ा खोलने 
जिसे सुनाई देती है दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़। 
थोड़ी देर होती दिखाई देती है तो चारपाई पर लेटे-लेटे 
घर के बूढ़े-बूढ़ी चिंतित हो सबको आवाज़ देते हैं 
कि दरवाज़ा खोलने कोई क्यों नहीं जाता? 
पर ऐसा होता है कि दरवाज़ा खुलते ही 
स्टेनगन लिए हत्यारे घुस आते हैं 
और एक-एक को मारकर चले जाते हैं। 
ऐसा बहुत होने लगता है 
फिर भी दरवाज़े के खटखटाने पर कोई भी दौड़ पड़ता है 
और दरवाज़ा खटखटाए जाने पर 
दरवाज़े बार-बार खोल दिए जाते हैं।

पहाड़ों, जंगलों, पेड़ों, वनस्पतियों, तितलियों, पक्षियों, जीव-जंतु, समुद्र और नक्षत्रों से अपरिचय रखने के बावजूद मैंने पाया कि मैं धरती को जानता हूँ। मैंने पाया कि अपरिचित भी आत्मीय हैं। मैंने पाया कि सब आत्मीय हैं और सब जान लिए जाएँगे मनुष्यों से। मैंने पाया कि मैं मनुष्य को जानता हूँ।

यहाँ तक आते-आते मैं विकुशु का तब तक शाया सब कुछ पढ़ चुका था और इस दरमियान लगातार नई-नई स्थानीयताओं में पुनर्वासित होता रहा था। मैं इन नई स्थानीयताओं से पहले छूट चुकीं स्थानीयताओं को दूसरों के बहाने पुस्तकों में पाता था और मूल यथार्थ से कटकर एक सुघड़ स्मृतिलोक में स्वप्नवत् रहता था। पर अब मैं बदल चुका था। मैं अब संसार को स्मृतिलोक-सा बनाना चाहता था और इसके लिए जो अवयव चाहिए थे, मैं उन्हें इस संसार से ही पाना चाहता था। मैं अब पुस्तकों में कुछ कम और संसार में कुछ ज़्यादा रहने लगा था। यह दृष्टि विकुशुक्ल के कविता-संसार से गुज़रने के बाद प्राप्त हुई थी :

बहुत कुछ कर सकते हैं ज़िंदगी में का काम बहुत था 
कुछ भी नहीं कर सके की फ़ुर्सत पाकर 
मैं कमज़ोर और उदास हुआ। 
ऐसी फ़ुर्सत के अकेलेपन में दु:ख हुआ बहुत 
पत्नी ने कातर होकर पकड़ा मेरा हाथ 
जैसे मैं अकेला छूट रहा हूँ उसे अकेला छोड़। 
बच्चे मुझसे आकर लिपटे अपनी पूरी ताक़त से 
मैंने अपनी ताक़त से उनको लिपटाया और ज़ोर से 
पत्नी बच्चों ने मुझे नहीं अकेला छोड़ा 
फिर भी सड़क पर गुज़रते जाते मैं 
हर किसी आदमी से अकेला छूट रहा हूँ 
सबसे छूट रहा हूँ 
एक चिड़िया भी सामने से उड़कर जाती है 
अकेला छूट जाता हूँ 
चूँकि मैं आत्महत्या नहीं कर रहा हूँ 
मैं दुनिया को नहीं छोड़ रहा हूँ।

• मुझे अपने पिता की स्मृति नहीं है। मैं इस स्मृतिहीनता में इधर कुछ वर्षों से एक चीज़ स्वयं के लिए दर्ज करता चलता हूँ। मैं उन पुत्रों से मिलते हुए, [जिनके पिता भी मेरे ख़ासे परिचित हैं] उनके बहुत कुछ की तुलना उनके पिता से करने लगता हूँ। इस प्रक्रिया के परिणाम मुझे रोमांचित कर देते हैं। पुत्र अपने पिता से कितने एकरूप हैं, जबकि उनके बीच से न जाने क्या-क्या गुज़र चुका है! अचल मिश्र निर्देशित वृत्तचित्र ‘चार फूल हैं और दुनिया है’ में शाश्वत गोपाल को सुनना-पाना भी कुछ इस प्रकार का ही अनुभव रहा। इस पर स्वयं कुछ और अधिक कहने के बजाय कवि-लेखक सोमप्रभ को उद्धृत करना उपयुक्त होगा :

‘‘हमारे सबसे प्यारे, सबसे सुंदर लेखक पर बनी इस फ़िल्म में विनोद जी को देखने-सुनने का सुख तो है ही, उनके बेटे शाश्वत गोपाल जी को सुनकर लगता है कि वह भी एक विनोद जी हैं। कभी-कभी अन्य ढंग के विनोद जी हैं और कभी-कभी हूबहू विनोद जी।’’

• पिता-पुत्र-समानताएँ—मैं जानता हूँ कि यह कोई इतनी असाधारण-असामान्य बात नहीं है। यह सहज-स्वाभाविक है। पर न जाने क्यों ये समानताएँ मुझ पर शुद्ध अचरज की भाँति खुलती हैं!—काश मैं स्वयं अपने पिता को देखकर उनसे अपनी तुलना करना पाता, मैं उनमें अपनी मिलावट पकड़ पाता, समानताएँ निहार पाता...

• विकुशु के साहित्य को पढ़ते हुए, मैं प्राय: उसमें स्वयं को पाता रहा हूँ; लेकिन इधर बीच उन्हें देखने-सुनने के क्रम में, मैं उनमें पिता को पाने लगा हूँ—एक कवि-कथाकार पिता!

विकुशु दुर्लभ हैं!
विकुशु अद्वितीय हैं!!
विकुशु हैं और रहेंगे!!!

•••

इस स्तंभ में प्रस्तुत कविता-पंक्तियाँ विनोद कुमार शुक्ल के नवीनतम कविता-संग्रह ‘केवल जड़ें हैं’ [हिन्द युग्म प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 2025] और तीसरे कविता-संग्रह ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ [राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 1992] से ली गई हैं। सोमप्रभ की टिप्पणी उनकी फ़ेसबुक टाइमलाइन से उठाई गई है। ‘विकुशुविषयक’ के शीर्षक के रूप में प्रस्तुत मिस्रा’ सफ़दर मीर [1923-1998] का है। अन्य रविवासरीय : 3.0 यहाँ पढ़िए — गद्यरक्षाविषयक | पुष्पाविषयक | वसंतविषयक | पुस्तकविषयक | प्रकाशकविषयक | प्रशंसकविषयक | भगदड़विषयक | रविवासरीयविषयक

 

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