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रविवासरीय : 3.0 : हम आपके डिजिटल डिटॉक्स की कामना करते हैं

• 1 फ़रवरी से 9 फ़रवरी के बीच नई दिल्ली के प्रगति मैदान [भारत मंडपम] में आयोजित विश्व पुस्तक मेले की स्थिति जानने की उत्कंठा जैसे आप सबको है, वैसे ही धृतराष्ट्र को भी है। वह अपनी इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए संजय के सिवा भला और किसके पास जाते, अत:...

• धृतराष्ट्र बोले : हे संजय [चतुर्वेदी]! प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले के उद्घाटन के अवसर पर पुस्तक-विक्रेताओं और पुस्तक-प्रेमियों ने पुस्तक-संस्कृति के रक्षार्थ क्या-क्या किया?

संजय बोले : हे आचार्य! वह बताऊँगा, लेकिन इससे पूर्व मैं अपनी वह कविता सुनाना चाहूँगा जो मैंने आज ही फ़ेसबुक पर पोस्ट की है :

|| पुस्तक मेले ||

हुईं ज्ञान से बड़ी किताबें
अर्थतंत्र के पुल के नीचे रखवाली में खड़ी किताबें

जंगल कटे किताब बनाई
लेकिन चाल ख़राब बनाई
आदम गए अकील आ गए
आकर अजब शराब बनाई
श्रम की पूजा करते-करते मज़दूरों से लड़ी किताबें

जैसे अपना हक़ आज़ादी
ज्ञान हमारा हक़ बुनियादी
लेकिन उस तक जाने वाली
राह नहीं है सीधी-सादी
नीम फ़रेबी उनवानों की बद-आमोज़ गड़बड़ी किताबें

ये कैसी तालीम हो गई
अच्छी दवा अफ़ीम हो गई
जैसे-जैसे बढ़ी किताबें
दुनिया ही तक़सीम हो गई
जब दो क़ौमें मिलना चाहीं आपस में लड़ पड़ी किताबें

शब्दों के शौक़ीन झमेले
इस दुनिया के पुस्तक मेले
इसके बदले में तू दे दे
ख़ुदा हमें दो दर्जन केले
अगर मुदर्रिस ही खोटे हों क्या कर लेंगी सड़ी किताबें

नई किताबें नया आदमी बना सकें तो ठीक बात है
नया आदमी अधिक सभ्य हो ये थोड़ी बारीक बात है
नई किताबें मेहनत करके नए रास्तों को पहचानें
और उन्हें धनवान बनाएँ स्मृतियों में गड़ी किताबें
न हों ज्ञान से बड़ी किताबें।

• धृतराष्ट्र बोले : तुम्हारा नया कविता-संग्रह इस पुस्तक मेले में आ रहा है क्या संजय?

संजय बोले : उसकी छोड़िए आचार्य, इस पुस्तक मेले में इतने कविता-संग्रह आ रहे हैं कि कविता-प्रेमियों के कई जन्मों के लिए पर्याप्त ठहरेंगे।

• धृतराष्ट्र बोले : इस बार पुस्तक मेले का उद्घाटन किसने किया और इसके पश्चात् क्या-क्या हुआ?

संजय बोले : इस बार पुस्तक मेले का उद्घाटन देश की माननीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने किया। पुस्तकें राष्ट्र-निर्माण में सहयोगी हैं, यह समझाते हुए वह बोलीं : “पढ़ना सिर्फ़ शौक नहीं है, यह एक परिवर्तनकारी अनुभव है। जब आप किसी बच्चे को पढ़ने का आनंद देते हैं, तो आप राष्ट्र-निर्माण में योगदान देते हैं।”

पुस्तक मेले के इस उद्घाटन-सत्र की विशेष बात यह रही कि भारत में रूसी राजदूत डेनिस अलिपोव ने हिंदी में अपना संबोधन शुरू किया।

• धृतराष्ट्र बोले : उद्घाटन के बाद हिंदी पुस्तकों वाले हॉल का हाल सुनाओ वत्स?

संजय बोले : उद्घाटन के बाद पुस्तकों के प्रकाशन लिए पाठकों की उम्मीद खो चुके बहुत से साहित्यकार, साहित्यकारों में उम्मीद खो चुके बहुत से पाठक और इनके बीच ख़ुद को पुल समझने की ग़लतफ़हमी से दूर हिंदी के कई शूरवीर प्रकाशकों ने हॉल नंबर दो और तीन से अपने-अपने शंख बजाए।

राजकमल प्रकाशन समूह ने अपने अलग-अलग उपक्रमों से ‘जलसाघर’ और ‘किताब उत्सव’ जैसे शंख बजाए। वाणी प्रकाशन ने ‘साहित्यघर’ नामक शंख बजाया। इसके पश्चात् कई अन्य छोटे-बड़े प्रकाशकों ने भी अपने-अपने शंख, नगाड़े और ढोल बजाए। इससे बड़े भयंकर स्वर-शब्द उत्पन्न हुए।

हे धृतराष्ट्र! इसके बाद इस मेले में सजीं बहुत सारी हॉलजयी पुस्तकों के बीच अज्ञेय की कालजयी पुस्तक ‘शेखर : एक जीवनी’ से निकलकर शेखर वहाँ प्रगट हुआ। इस मेले में डटे हुए पुस्तक-पीड़ित और पुस्तक-अभिलाषी समुदाय को देखकर उसके अंग शिथिल होने लगे, मुँह सूखने लगा। उसे कँपकँपी और रोमांच-सा भी होने लगा। उसका फ़ोन उसके हाथ से गिर गया। उसकी त्वचा जलने लगी और मन भ्रमित-सा होने लगा। तभी उसे कृष्ण [कल्पित] नज़र आए...

• ‘‘तुम जैसे जल्दी-जल्दी शराब पीते हो, वैसे ही जल्दी-जल्दी इस पुस्तक मेले में कोई निर्णय मत लो। तुम धीरे-धीरे पुस्तकें उठाओ, धीरे-धीरे देखो, धीरे-धीरे...’’

श्रीकृष्ण के श्रीमुख से शेखर को प्राप्त इस उपदेश के पश्चात् धृतराष्ट्र इस सोच में बह गए कि शेखर बड़ा पाठक है या बड़ा शराबी। इस सोच में बहते हुए ही धृतराष्ट्र बोले : हे संजय! शेखर ने कृष्ण के प्रवचन-पश्चात् फिर क्या किया?

संजय उवाच : हे राजन्! कृष्ण के इस महत्त्वपूर्ण वक्तव्य के बाद शेखर के पूर्वग्रह नष्ट हो गए और वह धीरे-धीरे हिंदी पुस्तकों की ओर बढ़ने लगा। उसने कई ‘नई बहारें’ उठाईं-उलटीं-पलटीं और रख दीं।

कृष्ण उवाच : हे शेखर! बेहतर और बुरी पुस्तकें संसार में सुख और दुःख, लाभ और हानि, जय और पराजय की भाँति ही सत्य हैं। तू शोक न करने योग्य पुस्तकों के लिए शोक करता है, जबकि पंडित जन समकालीन साहित्य से बचते हैं। वे सदा उन पुस्तकों को उठाते हैं, जिनकी शास्त्रीयता असंदिग्ध है। जब तू नहीं था, तब भी इस पृथ्वी पर महान् पुस्तकें थीं, जब तू है तब भी इस पृथ्वी पर महान् पुस्तकें हैं और जब तू नहीं रहेगा तब भी इस पृथ्वी पर महान् पुस्तकें रहेंगी। पतनशील पुस्तकों से वीर पाठक मोहित नहीं होते। इस प्रकार की पुस्तकों को तू सहन कर वत्स! हिंदी के हाल और हॉल से निकल अँग्रेज़ी के हॉल में चल और विश्व के कालजयी साहित्य की परंपरा से पुस्तकें उठा। उन्हें पढ़। इस प्रकार की पुस्तकों को प्रिय बना जो अजर-अमर हैं, जिन्हें कोई चाह कर भी मार नहीं सकता। इस प्रकार की पुस्तकें केवल जन्मती हैं, मरती नहीं। महान् पुस्तकें केवल अपना आवरण बदलती हैं, अंतर्वस्तु नहीं। महान् पुस्तकों को न आलोचना काट सकती है, न कट्टरपंथ जला सकता है, न विचारधारा गला सकती  है, न अस्मिता-विमर्श सुखा सकता है और न संघ उड़ा सकता है। महान् पुस्तकें नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर और सनातन हैं।

हे शेखर! तेरे वैरी लोग इस मेले में ‘‘अभी तो हो न, मिलते हैं :-)’’—यह कहकर न पढ़ने-योग्य पुस्तकें तुझे ‘प्रिय शेखर के लिए, सप्रेम’ लिखकर दे देंगे। लेकिन कर्मयोग यह है कि इन पुस्तकों को किसी सहृदयी निश्चल [ओम नहीं] आलोचक के हत्थे मढ़ दिया जाए। इस प्रकार के आलोचक इस मेले में अज्ञातकुलशील लेखकों की पुस्तकें ढोते कहीं भी देखे-पाए जा सकते हैं—फ़ूड कोर्ट में भी, लॉन में भी और लॉन से मेट्रो स्टेशन की तरफ़ जा रहे रास्ते पर भी।

हे शेखर! ये सब प्रकार के भोगों में तन्मय हिंदी-पट्टी के क़िवामविहीन कत्था-चूना-सुपाड़ी आलोचक हैं। इनके पास न पत्ते हैं, न पदार्थ। मेलों में इन आलोचकों से वैसे ही बचना चाहिए, जैसे फ़ोटोखेंचवा से।

• शेखर उवाच : हे कृष्ण! एक अफ़वाह के दौर में जैसे माँएँ अपने बच्चों को मुँहनोचवा से बचाती थीं, वैसे ही आपने मुझे इस मेले में फ़ोटोखेंचवा से बचाया।

हे कृष्ण! जैसे भयंकर गर्दिश के दौर में पिता बचाते थे—तेज़ बारिश से एक ही छतरी में अपने तीन बच्चों को—आपने मुझे इस मेले में उन तीन निर्णायकों से बचाया, जो इस मेले के बाद एक बहुत बुरे कथाकार को पुरस्कृत करने वाले हैं।

हे कृष्ण! जैसे ‘हनुमान चालीसा’ बचपन में चुड़ैलों से बचाती थी; आपने मुझे इस मेले में उस लेखिका से बचाया, जो तीन हाथों और तीस उँगलियों से लिखती है।

हे कृष्ण! जैसे कानपुर में दूर के रिश्तेदार कटियाबाज़ों को बिजली-विभाग से बचाते थे, वैसे ही आपने मुझे उस विस्फोटक लेखक से बचाया जिसकी हिंदी में एक सौ एक पुस्तकें आ चुकी हैं और अँग्रेज़ी में इक्कीस अनुवाद। वह संसार की सारी भाषाओं में प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होता है।  

कृष्ण उवाच : हे शेखर! जैसे कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही पुस्तक मेले में इस प्रकार के सज्जनों [?] को देखकर इनकी दृष्टि में पड़ने से स्वयं को बचा लेना चाहिए।

हे शेखरनुमा धनंजय और धनंजयनुमा शेखर! मैं इस मेले में कल तुझे सेक्सी समीक्षाएँ लिखने वाले एक समीक्षक से भी बचाऊँगा। मैं कल ही तुझे अत्यंत विद्वतापूर्ण लेख लिखने वाले एक स्यूडो इंटेलेक्चुअल से भी बचाऊँगा। मैं कल ही तुझे कविता को सौ मीटर की दौड़ समझने वाली सौ कवयित्रियों से भी बचाऊँगा। मैं कल ही तुझे उन पवित्र पुस्तकों से भी बचाऊँगा; जो प्रतिवर्ष इस मेले में मुफ़्त में मिलती हैं और जिनकी पवित्रता बस तभी तक है, जब तक उन्हें छुआ न जाए।

पवित्र पुस्तकें मूल्य चुकाकर ख़रीदने वालों की भी वैसे यहाँ कोई कमी नहीं है। गीता प्रेस के स्टॉल पर उपस्थित स्थायी भीड़ इस तथ्य का ही संकेत है। धर्म अब भी सबसे अधिक आकर्षक वस्तु है शेखर—चाहे पुस्तक मेलों में देख लो या कुंभ मेलों में...

• धृतराष्ट्र उवाच : हे संजय! कृष्ण ने शेखर को कैसे बचाया?

संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! कृष्ण ने शेखर को यह कहकर बचाया :

‘‘हे शेखर! वह लेखक जो केवल रचता है और प्रकाशन की कामना को पूर्णतः त्याग कर; मात्र स्वयं के लिए ही रच कर संतुष्ट रहता है, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। नवातुरों, नौसिखियों, चैरकुट्यग्रस्त समवयस्कों, विचलित वरिष्ठों और समयख़त्म समादृतों की धड़ाधड़ आ रही पुस्तकों को देखकर जिसके उर में उद्वेग नहीं उपजता; जो प्रकाशन और उससे प्राप्त प्रलोभनों के प्रति निर्लिप्त रहता है, सृजन-सुख से जिसका क्रोध नष्ट हो गया है... ऐसे लेखक को स्थिरबुद्धि कहते हैं।’’

शेखर उवाच : हे कृष्ण! जब लेखन-कर्म प्रकाशन-विमुख होकर भी इतना श्रेष्ठ है, तब आप मुझे पाठक-कर्म में क्यों लगाते हैं? एक बात को निश्चित होकर कहिए, जिससे मेरा कल्याण हो।

कृष्ण उवाच : हे शेखर! भवानी बाबू की ये पंक्तियाँ तू अपने कमरे में नहीं, अपने मन-मस्तिष्क में कहीं लिखकर टाँग ले :

कुछ लिख के सो
कुछ पढ़ के सो
जिस जगह जागा सवेरे
उस जगह से बढ़ के सो।

हे शेखर! मैं नहीं चाहता कि तू वैसा पाठक हो जाए, जैसा अभी-अभी तुझसे हाथ मिलाकर गया है। वह जो बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के समग्र वांग्मय को केवल ढोने के लिए ढो रहा था। उसकी पूरी देह में अब कोई अन्य वांग्मय टिकाने की जगह नहीं थी। वह कह रहा था : ‘‘तीन चक्कर लगा चुका हूँ, बहुत भारी पड़ रहे हैं—अम्बेडकर! लेकिन मैं केवल दिल्ली विश्वविद्यालय से भारत मंडपम तक इसलिए आ-जा रहा हूँ, क्योंकि मुझे पता है—क्रांति का रास्ता यहीं से होकर कहीं जाएगा। प्रेम से बोलो—साथी! जय भीम!! लाल सलाम!!!’’

भीम उवाच : मैं बहुत भारी पड़ रहा हूँ, इसकी मुझे कोई प्रसन्नता नहीं है। नि:संदेह इतना भारी पड़ना ठीक नहीं। ये जड़मति शोधार्थी केवल मेरा वांग्मय ढोए जा रहे हैं। इन्हें और भी कुछ पढ़ाओ भाई! इतना बड़ा मेला है, इतनी सारी पुस्तकें हैं!

शेखर उवाच : हे भीम! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठाएँ बुद्ध-जनों ने कही हैं—एक मार्क्सनिष्ठा और दूसरी अम्बेडकरनिष्ठा। एक अरसे से दोनों को मिलाने पर बहुत ज़ोर है। लेकिन ‘दास कैपिटल’ ढोता हुआ कोई अम्बेडकरनिष्ठा वाला व्यक्ति किसी विश्व पुस्तक मेले में कहीं अब तक नहीं दिखा, संघनिष्ठा ढोते हुए अम्बेडकरवादी ज़रूर दिखे।

कृष्ण उवाच : हे शेखर! तू एक उदार-उन्मुक्त मन-मस्तिष्क वाला पाठक बन। संसार में जहाँ भी जो भी सुंदर रचना है, उसकी जय बोल! जिस भी मनुष्य ने साहस किया और अन्याय और अत्याचार से लड़ा, उसकी जय बोल! उसके बारे में खोज कर पढ़!

दरअस्ल, सारे महान् लेखक महान् पुस्तकों से पैदा होते हैं, सारी महान् पुस्तकें साहसिक जीवन जीवन जीने से पैदा होती हैं, साहसिक जीवन कर्म में निष्ठा से पैदा होता है और कर्म को तू प्रतिक्रिया से नहीं प्रगतिशीलता से उत्पन्न जान! कर्म की महिमा ही संसार के महान् साहित्य और कला में प्रतिष्ठित हुई है।

शेखर उवाच : हे कृष्ण! अगर यों हैं तब इस मेले में ऑथर्स लाउंज, ऑथर्स कॉर्नर, लेखक-मंच, जलसाघर, साहित्यघर में मँडराते ये प्राणी कौन हैं? क्या ये महान् होने की संभावनाओं-आशंकाओं-आशाओं से मुक्त हैं?

कृष्ण उवाच : हे शेखर! ये लेखक नहीं अहंकार और मूढ़ता से मोहित या कहें पीड़ित यशलोलुप पापायु हैं।

शेखर उवाच : हे कृष्ण! ये किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करते हैं?

कृष्ण उवाच : हे शेखर! छपरोना और पुरस्कारोविड सरीखे असाहित्यिक विषाणु और रोग से ग्रस्त होकर ये जन इस प्रकार का आचरण करते हैं। इसके फलस्वरूप इनके आस-पास बहुत सारा व्यर्थ काग़ज़-दफ़्ती, लोहा-लक्कड़, पीतल-पत्थर जमा हो जाता है। इस जमावट के ज्वर में ये जन आरंभ से लेकर अंत तक ख़ाली बनी रहने वाली कुर्सियों के सामने उपस्थित मंच पर भी कई घंटों तक बोलते रहते हैं।

इस कला में रमे हुए ये जन साहित्य में साहित्येतर कारणों से पापाचरण करते हैं। इसलिए हे प्रिय! तू सबसे पहले इन कारणों से स्वयं को सदा मुक्त रख। बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके तू वर्ग-शत्रु से अधिक साहित्य-शत्रु से दूर रह और साहित्य-सृजन के मार्ग पर चलकर कर्म में प्रवृत्त हो।

• धृतराष्ट्र बोले : हे संजय! इस पुस्तक मेले में हिंदी की सदाबहार पुस्तकों के क्या हाल हैं?

संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! खड़ी बोली हिंदी में अब तक पाँच उपन्यास सदाबहार कहे गए हैं। साहित्य-पठन-संबंधी तमाम रुदन के बावजूद इन पाँच उपन्यासों के पाठक कभी कम नहीं होते। इन उपन्यासों की वजह से ही हिंदी में वह सदाबहारयोग निर्मित होता है, जिसके विषय में मेले में पाँच बजे के आस-पास कृष्ण ने शेखर को ज्ञान दिया।

कृष्ण उवाच : हे शेखर! मेले में आज भी हिंदी सहित्य के नाम पर जो पाँच उपन्यास सबसे ज़्यादा चाहे जा रहे हैं; उन्हें रचे आधी सदी से भी अधिक अवधि गुज़र चुकी है, लेकिन अब भी उनका होना ही उनका प्रचार है। आत्मप्रचार के इस भयावह युग में तमाम नई-नवेली पुस्तकों के बावजूद ये पाँच उपन्यास मिलकर हिंदी में एक सदाबहारयोग का निर्माण करते हैं। इनकी महिमा मैं तुझसे एक-एक करके कहूँगा...

गोदान : वर्ष 1936 में प्रकाशित प्रेमचंद के जीवन-काल में प्रकाशित उनका यह आख़िरी उपन्यास आज भी साहित्य पढ़ना शुरू करने वाले पाठकों की प्रथम प्राथमिकता बना हुआ है। यह मेले में कई स्टॉल्स पर उपलब्ध है।

त्यागपत्र : 1937 में प्रकाशित जैनेंद्र की इस तीसरी औपन्यासिक कृति को आज भी मनोभावनाओं और संवेदनाओं को आंदोलित करने में समर्थ पाया जाता है। भरपूर मात्रा में लिखने वाले जैनेंद्र की रचनाओं में सबसे ऊपर मानी जाने वाली यह पुस्तक एक बैठक में पढ़ने-योग्य है। यह अपने झकझोर देने वाले प्रभाव और कारुणिक अंत के कारण आज तक सदाबहार बनी हुई है।

शेखर : एक जीवनी : दो खंडों में प्रकाशित अज्ञेय के इस प्रथम उपन्यास का पहला खंड 1941 और दूसरा खंड 1944 में आया। अपने दौर की ख़ासी विवादित इस कृति को आज भी साहित्य के युवा पाठकों के लिए अनिवार्य माना जाता है।

मैला आँचल : 1954 में प्रकाशित फणीश्वरनाथ रेणु के इस प्रथम उपन्यास को हिंदी के प्रथम आंचलिक उपन्यास होने का गौरव प्राप्त है। इसे पढ़े बग़ैर भाषा का संगीत से क्या संबंध है या होता है, यह पता नहीं चल सकता।

राग दरबारी : 1970 में प्रकाशित श्रीलाल शुक्ल के इस उपन्यास को हिंदी का सबसे सदाबहार व्यंग्य उपन्यास होने का प्रसंग प्राप्त है। यह एक ऐसी पुस्तक है जिसे एक छात्र ख़रीदता है और पूरा हॉस्टल पढ़ता है और फिर वही छात्र इसकी बाइंडिंग कराकर अपने जूनियर को पढ़ने के लिए दे देता है और फिर वह जूनियर पुस्तक मेले में इसकी एक नई प्रति ख़रीदकर अपने जूनियर को।

हे शेखर! ये पाँच उपन्यास पढ़े बिना हिंदी साहित्य के विधार्थी और पाठक का निस्तार नहीं है। इसलिए ही ये सदाबहार हैं और प्रत्येक पुस्तक मेले की तरह इस पुस्तक मेले में भी ख़ूब चाहे जा रहे हैं। इसके बावजूद यह गंभीर सदाबहारयोग न बहुत लोकप्रिय के अंतर्गत है, न कम लोकप्रिय के अंतर्गत।

• शेखर उवाच : हे कृष्ण! यह मन बड़ा चंचल है। यह प्रचार, सम्मतियों-अनुशंसाओं-प्रशस्तियों-प्रशंसाओं-प्रतिक्रियाओं और परिचय के वशीभूत हो... ख़राब उपन्यासों को भी उठा लेता है। यह उन उपन्यासों को भी उठा लेता है, जिनके लेखक इस मेले में ही घूम रहे हैं।

कृष्ण उवाच : हे शेखर! निश्चय ही मन बड़ा चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। लेकिन यह अभ्यास और अध्ययन से वश में आ जाता है। ख़राब पुस्तकें समय को ही नहीं, चित्त को भी भ्रष्ट करती हैं। इसलिए अपनी रचनात्मकता की वजह से चर्चित रचनाओं से ही दिल लगाना चाहिए।

शेखर उवाच : हे कृष्ण! इन सदाबहार उपन्यासों के अतिरिक्त आपको हिंदी के हॉल में और कौन-सी पुस्तकें प्रतिश्रुत, प्रासंगिक और प्रिय नज़र आ रही हैं?

कृष्ण उवाच : हे शेखर! मैं स्वयं उत्कृष्ट उपन्यासों का मुख्य पात्र हूँ। मैं अद्भुत कहानियों का मार्मिक स्थल हूँ। मैं कालजयी काव्य का केंद्रीय संवेदन हूँ। मैं ही ‘नौकर की क़मीज़’ का संतू बाबू हूँ और मैं ही ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का रघुवर प्रसाद। मैं ही ‘खट्टर काका’ हूँ। मैं ही ‘मुझे चाँद चाहिए’ की वर्षा वशिष्ठ हूँ और मैं ही ‘काटना शमी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से’ का कालिदास। मैं ही ‘शक्ति-पूजा’ का राम हूँ और ‘सरोज-स्मृति’ का पिता। मैं ही ‘अँधेरे में’ के नायक का तप हूँ। मैं ही ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ की तिरछी स्पेलिंग हूँ। मुझमें ही ‘नदी के द्वीप’ हैं और ‘अपने अपने अजनबी’ भी। मैं ही ‘असाध्य वीणा’ हूँ। मैं ही ‘बाणभट्ट’ और ‘अनामदास’। मैं ही ‘झूठा सच’ और ‘गदल’। मैं ही ‘मानस का हंस’ हूँ और ‘खंजन नयन’ भी। मैं ही ‘बूँद और समुद्र’ और ‘अमृत और विष’ भी। मैं ही ‘सारा आकाश’। मैं ही ‘महाभोज’। मैं ही ‘ज़िंदगीनामा’। मैं ही ‘उसका बचपन’। मैं ही ‘रात का रिपोर्टर’ हूँ। मैं ही ‘अँधेरे बंद कमरे’। मैं ही ‘काला जल’। मैं ही ‘सूखा बरगद’। मैं ही ‘बारामासी’। मैं ही ‘काशी का अस्सी’। मैं ही ‘आवाँ’। मैं ही ‘कितने पाकिस्तान’। ‘वॉरेन हेस्टिंग्स का साँड़’ भी मैं ही हूँ और ‘मोहनदास’ भी। मैं ‘कठगुलाब’ और ‘चित्तकोबरा’। मैं ही ‘कलिकथा वाया बाईपास’ हूँ और ‘शेष कादम्बरी’ भी। मैं ही ‘अपराध’ और मैं ही ‘सूत्रधार’। मैं ही ‘सिरी उपमा जोग और ‘तिरिया चरित्तर’। मैं ही ‘बोसीदनी’ और ‘अधेड़ औरत का प्रेम’। मैं ही ‘चिट्ठी’ और ‘यक्षगान’। मैं ही ‘संगतकार’। मैं ही ‘रामसिंह’। मैं ही ‘बढ़ई का बेटा’। मैं ही ‘मर्सिया’। मैं ही ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’। मैं ही ‘प्रार्थना के शिल्प में नहीं’। मैं ही ‘अल्मा कबूतरी’ और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’। मैंने ही ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’... तू समग्र सृजन का सनातन बीज मुझको ही जान! मैं अध्येताओं का अध्ययन और उनके लिए ‘दोपहर का भोजन’ हूँ, और न पढ़ने वालों के भीतर पढ़ने की कामना भी मैं ही हूँ। मैं सेवानिवृत्त महानुभावों के लिए ‘लोकायत’ हूँ। मैं समालोचकों के लिए ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ हूँ और ‘निराला की साहित्य-साधना’ और ‘दूसरी परंपरा की खोज’। हे शेखर! जो मुझे जानते हैं, वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं—मेले में या मेले से बाहर—कहीं भी।

शेखर उवाच : हे कृष्ण! आगामी रविवार को यह मेला भी उजड़ जाएगा। हे सदा कालजयी साहित्य पढ़ने वाले! हे पाठकों के पाठक! हे साहित्यकारों के साहित्यकार! आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं। इसलिए आप ही अपनी उन दिव्य विभूतियों को समग्रता से कहने में समर्थ हैं; जिन विभूतियों के माध्यम से आप आएँ या न आएँ, परंतु प्रत्येक मेले में निरंतर उपस्थित रहते हैं। हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार आपको और जानूँ? आप अपने को और विस्तारपूर्वक कहिए?

कृष्ण उवाच : हे शेखर! मेरे विस्तार का अंत वैसे ही नहीं है, जैसे संसार में महान् पुस्तकों का अंत नहीं है। मैं सारी महान् पुस्तकों की आत्मा हूँ। उनका आदि, मध्य और अंत मैं ही हूँ। मैं वेदों में ‘वार एंड पीस’ हूँ। मैं देवों में दोस्तोयेवस्की हूँ। मैं समयों में ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ और इंद्रियों में ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ हूँ। मैं भूतपूर्व महानताओं में डिकेंस और लॉरेंस हूँ। मैं एकादश रुद्रों में शंकर की ‘चौरंगी’ हूँ। मैं राक्षसों में ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ हूँ और पुरोहितों में मुखिया शेक्सपियर तू मुझको ही जान!

हे शेखर! मैं सेनापतियों में गुंटर ग्रास और जलाशयों में ‘लाइफ़ ऑफ पाई’ हूँ। मैं अरण्यों में ‘अंतिम अरण्य’ हूँ। मैं महात्माओं में ‘गांधी’ और शब्दों में सत्य के साथ प्रयोग हूँ। मैं कविता और कहानी का ‘क’ और उपन्यास का ‘उ’ हूँ। मैं सब प्रकार के यज्ञों में ‘कुरु कुरु स्वाहा’ और प्रेम में ‘कसप’ हूँ। स्थिर रहने वाले पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता हुआ शमशेर भी मैं ही हूँ। मैं सब वृक्षों में ‘नीम का पेड़’ हूँ और सब गाँवों में ‘आधा गाँव’ हूँ। मैं देवियों में महादेवी, अख़्मातोवा, मरीना त्स्वेतायेवा, सीमोन द बोउवार, वर्जीनिया वुल्फ़, सुजान सौन्टैग, टोनी मॉरीसन, मार्जान सतरापी और हान कांग हूँ। मुनियों में मीर, मोपासाँ, मार्सेल प्रूस्त, मिर्ज़ा ग़ालिब, फ़्लाबेयर, चेख़व, काफ़्का, बोर्हेस और मुक्तिबोध भी मैं ही हूँ। मैं शस्त्रों में ‘फ़ेयरवेल टू आर्म्स’ हूँ। मैं शासन करने वालों में ‘किंग लियर’ हूँ। मैं देवताओं में ‘गुनाहों का देवता’, घोड़ों में ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ और युगों में ‘अंधा युग’ हूँ। मैं पवित्र करने वालों में ‘वोल्गा से गंगा’ हूँ। मैं मछलियों में ‘मरी हुई मछली’ हूँ। मैं नगरों में ‘काशी’, पत्रिकाओं में ‘पहल’, ऋतुओं में ‘निराला’, समासों में ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’, छंदों में ‘छंद छंद पर कुमकुम’ हूँ। मैं छल करने वालों में ‘गैम्बलर’, प्रभावशाली पुरुषों में ‘डोरियन ग्रे’ हूँ। मैं जीतने वालों में ‘मैक्सिकन’, दमन करने वालों में ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ हूँ। मैं शिखर वाले पर्वतों में ‘शेखर’ हूँ। 

हे शेखर! इस ब्रह्मांड में जो कुछ सुंदर और सार्थक एक साथ रचा जा चुका है, वह मैं ही हूँ; जो कुछ रचनात्मक हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ महान् होगा, वह भी मैं ही हूँ। दिव्य साहित्य का कोई अंत नहीं है। यहाँ ये सब तो मैंने बहुत-बहुत संक्षेप में कहा है। लेकिन इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन! तू तो इससे भी बहुत-बहुत संक्षेप में बस इतना ही जान कि एक श्रेष्ठ पुस्तक समाप्त होते-होते, तुझे यह बताकर समाप्त होगी कि अगली श्रेष्ठ पुस्तक तुझे कौन-सी पढ़नी है। इसलिए हे प्रिय! श्रेष्ठ रचनात्मकता में ही स्वयं को स्थित कर।

शेखर उवाच : हे कृष्ण! आपके इन वचनों से मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है। मैं आपके विराट अध्यवसाय को देख पा रहा हूँ।

कृष्ण उवाच : हे शेखर! मैं ख़राब साहित्य के लिए महाकाल हूँ। जब-जब श्रेष्ठ पुस्तकें संकट में होती हैं और सुंदर साहित्य की हानि होती है, मैं मीडियाकर-मंडल के सर्वनाश के लिए विश्व पुस्तक मेले में उत्पन्न होता रहता हूँ। 

• संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! कृष्ण के इस कथ्य को सुनकर शेखर भयभीत-सा हाथ जोड़कर कृष्ण के सम्मुख नतमस्तक हुआ और बोला :

‘‘हे कृष्ण! आप अपने पुराने स्वरूप में लौटिए, ताकि मैं इस विश्व पुस्तक मेले में आपके निर्देशन में ठीक से स्वयं को प्रगतिशील कर सकूँ।’’

हे राजन्! कृष्ण के उस अत्यंत असाधारण रूप-आकार-कथ्य को सोचकर, मैं बार-बार हर्षित, उत्साहित और रोमांचित हो रहा हूँ।

हे राजन्! जहाँ कृष्ण हैं और शेखर है, वहीं पर श्रेष्ठ रचनात्मकता और उसके स्रोत हैं—ऐसा मेरा मत है।

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30 दिसम्बर 2024

वर्ष 2025 की ‘इसक’-सूची

ज्ञानरंजन ने अपने एक वक्तव्य में कहा है : ‘‘सूची कोई भी बनाए, कभी भी बनाए; सूचियाँ हमेशा ख़ारिज की जाती रहेंगी, वे विश्वसनीयता पैदा नहीं कर सकतीं—क्योंकि हर संपादक, आलोचक के जेब में एक सूची है।’’

16 दिसम्बर 2024

बेहतर गद्य लिखने के 30 ज़रूरी और जानदार नुस्ख़े

16 दिसम्बर 2024

बेहतर गद्य लिखने के 30 ज़रूरी और जानदार नुस्ख़े

• जल्दी-जल्दी में लिखी गईं गोपनीय नोटबुक्स और तीव्र भावनाओं में टाइप किए गए पन्ने, जो ख़ुद की ख़ुशी के लिए हों। • हर चीज़ के लिए समर्पित रहो, हृदय खोलो, ध्यान देकर सुनो। • कोशिश करो कि कभी अपने

25 दिसम्बर 2024

नए लेखकों के लिए 30 ज़रूरी सुझाव

25 दिसम्बर 2024

नए लेखकों के लिए 30 ज़रूरी सुझाव

पहला सुझाव तो यह कि जीवन चलाने भर का रोज़गार खोजिए। आर्थिक असुविधा आपको हर दिन मारती रहेगी। धन के अभाव में आप दार्शनिक बन जाएँगे लेखक नहीं।  दूसरा सुझाव कि अपने लेखक समाज में स्वीकृति का मोह छोड़

10 दिसम्बर 2024

रूढ़ियों में झुलसती मजबूर स्त्रियाँ

10 दिसम्बर 2024

रूढ़ियों में झुलसती मजबूर स्त्रियाँ

पश्चिमी राजस्थान का नाम सुनते ही लोगों के ज़ेहन में बग़ैर पानी रहने वाले लोगों के जीवन का बिंब बनता होगा, लेकिन पानी केवल एक समस्या नहीं है; उसके अलावा भी समस्याएँ हैं, जो पानी के चलते हाशिए पर धकेल

12 दिसम्बर 2024

नल-दमयंती कथा : परिचय, प्रेम और पहचान

12 दिसम्बर 2024

नल-दमयंती कथा : परिचय, प्रेम और पहचान

“...और दमयंती ने राजा नल को परछाईं से पहचान लिया!” स्वयंवर से पूर्व दमयंती ने नल को देखा नहीं था, और स्वयंवर में भी जब देखा तो कई नल एक साथ दिखे। इनके बीच से असली नल को पहचान लेना संभव नहीं था। 

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