कभी न लौटने के लिए जाना
शिवम चौबे
07 फरवरी 2025
![कभी न लौटने के लिए जाना कभी न लौटने के लिए जाना](https://hindwi.org/images/ResorceImages/blog/44c9ffed-5b62-4760-9768-004f634d8433_WebBanner.jpg)
6 अगस्त 2017 की शाम थी। मैं एमए में एडमिशन लेने के बाद एक शाम आपसे मिलने आपके घर पहुँचा था। अस्ल में मैं और पापा, एक ममेरे भाई (सुधाकर उपाध्याय) से मिलने के लिए वहाँ गए थे जो उन दिनों आपके साथ रहा करते थे। मैं अभी साहित्य की दुनिया से एकदम बाहर था, हालाँकि बीए के दिनों में थोड़ा बहुत साहित्य पढ़ा था और ऐसा मानता था कि लिखने वाले कुछ तो अलग कर रहे हैं। पहली मुलाक़ात में आप बहुत प्रेम से मिले। हाल-चाल पूछा, पिता से बातें कीं और अपने कविता-संग्रह ‘पत्थर पर वसंत’ की एक हस्ताक्षरित प्रति मुझे दी। फिर मैं इलाहाबाद के तुलाराम बाग़ में रहने लगा। चूँकि यहाँ बीएचयू जैसा न कैंपस था न ही वहाँ जैसा हॉस्टल जीवन, तो मैं अक्सर शनिवार-रविवार झूँसी की तरफ़ निकल लिया करता। इस आने-जाने में मेरी और आपकी घनिष्ठता बढ़ती गई।
मैं सीएमपी डिग्री कॉलेज से एमए कर रहा था, इलाहाबाद के नामी और वरिष्ठ साहित्यकार होने के नाते आप लगभग अध्यापकों और साहित्यकारों से परिचित थे। अक्सर हमारा मिलना-जुलना होता, बैठकी होती आप पुराने इलाहाबाद के क़िस्से सुनाया करते, जिसमें साहित्य, राजनीति, संस्कृति और इस शहर की तमाम जगहें बोलती थीं। तब के कुछ साल पहले लंबी बीमारी के बाद आपकी पत्नी का देहांत हो गया था, जो बालकृष्ण भट्ट जी के विद्यालय में लाइब्रेरियन थीं। तब से आप अकेले ही रहते थे। आपका मन और जीवन इलाहाबाद और बांदा का था। बीच में कुछ समय मेरे ममेरे भाई वहाँ रहने के लिए आये थे। सन् सत्रह से उन्नीस तक मैं आपसे मिलने लगातार आता था। आप निराला से मिलने के क़िस्से सुनाया करते थे, कैसे निराला के अंतिम दिनों में हर रविवार आप साईकिल से उनके पास जाया करते और उनको बस देखते रहते। नागार्जुन भी इन्हीं कहानियों का हिस्सा थे, नागार्जुन जब इलाहाबाद आते तो आपके घर ज़रूर रुका करते। केदारनाथ अग्रवाल से आपके घनिष्ठतम संबंध थे, उन्होंने ही आपको कहा था—बांदा से बाहर निकलो, यहाँ तुम्हारी प्रतिभा ख़त्म हो जाएगी। उन्होंने ही आपको गद्य लिखने के लिए प्रेरित किया था। ये सारी बातें मैं आपके साथ रहते हुए जान पाया। आपके समय का इलाहाबाद बहुत अलग था, थोड़ा ठहर-ठहर के चलता हुआ।
2019 में भाई के दिल्ली चले जाने के बाद आप फिर अकेले रहने लगे थे। आप दिल्ली जाना तो चाहते थे लेकिन वहाँ पहुँचते ही आपको इलाहाबाद खींचने लगता था; इसीलिए आप जल्द-से-जल्द यहाँ लौट आना चाहते थे। एमए पूरा होने के बाद मैं आपके साथ रहने के लिए आपके घर में चला आया था। आप मुझे परिवार के सदस्य की तरह मानते थे। लंबे समय से आप अल्पाहारी थे, बहुत कम में आपका पेट भर जाता था। मैं खाना बनाता तो आधी-एक रोटी मुश्किल से खाते, दाल पीते। सुबह टहलने जाया करते, आपके एक घोर भाजपाई मित्र आपके साथ टहलने जाते और रोज़ किसी-न-किसी बात पर आपकी बहस होती ही रहती। आप जल्दी सो जाया करते थे और रात के दो-ढाई तक आपकी नींद खुल जाया करती थी। यह मेरे सोने का समय होता था। आपके सिरहाने ‘सबद’ से लाई गई पत्रिकाएँ बिखरी रहतीं, लगभग समय में आप पढ़ा करते कभी-कभी टीवी भी देखते। मोबाइल चलाने की आपकी बहुत इच्छा थी, आप सीखना चाहते थे। कभी-कभी फ़ेसबुक पर कोई कथन या कविता पोस्ट करवाते तो कहते नीचे ‘प्रस्तोता’ में अपना नाम लिख दो, वरना लोग कहेंगे कि पोस्ट करते हैं, जवाब नहीं लिखते। मैं आपको सिखाने की कोशिश करता कि ऐसे गैलरी खुलती है, ऐसे फ़ोटो लेते हैं, ऐसे कमेंट के रिप्लाई करते हैं वग़ैरा-वग़ैरा। ये तमाम बातें आप एक छोटी डायरी में नोट करते जाते। टाइपिंग सीखना आपके लिए मुश्किल था लेकिन कुछ-कुछ चीज़ें आपने ज़रूर सीख ली थीं। मैं चाय बनाता हम साथ चाय पीने बैठते आप अख़बार पढ़ते हुए ख़बरें सुनाते जाते। कभी-कभी आप ख़ुद चाय बनाते, पीते हुए कहते तुम ज़्यादा अच्छी बनाते हो। इडली बड़े चाव से खाते, पहली बार मैंने आपके लिए ही इडली बनाई थी। चिल्ला बनाना मुझे आपने ही सिखाया था। एक बार मैंने ‘दाल का दुल्हा’ बनाने की कोशिश की थी आपको बहुत पसंद आया था।
सर्दियों के दिनों में कभी-कभी मैं भी आपके साथ झूँसी स्टेशन की तरफ़ टहलने निकलता था, तब यह जगह छोटी, सुंदर और सुनसान हुआ करती थी। अगर आप झूँसी लौट पाते तो यहाँ की स्थिति देखकर हैरान रहते। लगातार बोलना आपकी आदत में था, उम्र का तक़ाज़ा था या बोलने की पुरानी आदत आप हमेशा कुछ-न-कुछ बताते रहते, कई बार रात में जागने के बाद आपको कोई बात याद आती और मैं सुनते-सुनते सो जाया करता। आपके साथ एक लंबा समय बीता। पहली बार वागर्थ में मेरी कविताएँ छपने की ख़बर मिली तो मैं आपके साथ स्टेट बैंक में था, आपको बताया तो आप ख़ुश हुए। फिर मिलने वाले लोगों से उन कविताओं के बारे में बताया करते। आपके साथ की तमाम स्मृतियाँ मेरे हिस्से आईं। मैं आपको नए कवियों-कथाकारों के विषय में बताता रहता, आप उन्हें भी पढ़ते। हम कुछ एक बार साथ ‘सबद’ गए। आपको मीरा स्मृति सम्मान मिला तब आप आख़िरी बार एनसी जेड सीसी गए थे। आपके साथ मेरे प्राध्यापक रहे नीरज खरे जी और आलोचक खगेंद्र ठाकुर जी को भी यह सम्मान मिला था। सम्मान मिलने के पहले आप परेशान थे कि अगर चेक मिला और उस पर इक़बाल बहादुर श्रीवास्तव (आपका मूल नाम) न लिखा रहा तो चेक बाउंस हो जाएगा। परंतु उसमें कोई सम्मान राशि नहीं मिली।
5 मार्च 2021 को मैं आपको आख़िरी बार कॉफ़ी हाउस लेकर गया था, कॉफ़ी हाउस आपकी स्मृतियों में अपने पुरानेपन के साथ जीवित था। आप फ़िराक़ की कहानियाँ सुनाते रहे, नाटकीयता आपमें थी ही। फ़िराक़ साहब की बड़ी-बड़ी आँखों का ज़िक्र करते हुए उनकी नकल करना मुझे अभी भी याद है। वहाँ आप कालिया दंपत्ति से लेकर कमलेश्वर, दूधनाथ सिंह, भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, अमरकांत, उपेन्द्रनाथ अश्क़, ओमप्रकाश मालवीय, कैलाश गौतम और बहुत से साहित्यकारों के क़िस्से सुनाते रहे। इलाहाबाद के अंतिम दिनों में आपका बाहर निकलना बहुत कम हो गया था। कोविड की एक लहर ने सबके भीतर डर पैदा कर दिया था, आप भी डरे हुए थे। आप में जीने की इच्छा बहुत थी, खाना कम खाते थे लेकिन अंजीर, खजूर आदि चीज़ें नियमित थीं, दूध पीते। आयुर्वेदिक दवाओं के ठीक-ठाक जानकर हो गए थे। अपनी समस्याओं के लिए ख़ुद ही दवाएँ ले आते। यहाँ रहते-रहते तंबाकू खाने की आदत नहीं छूटी थी। कभी-कभी खाँसी बढ़ती तो मैं तंबाकू छोड़ देने को कहता तो मुस्कुराने लगते। बीच-बीच में दिल्ली जाते और जल्दी-जल्दी वहाँ से भाग आने की कोशिश करते। कहा करते—शिवम इलाहाबाद में दोस्त हैं, यहाँ के रास्ते याद हैं अपनी मर्ज़ी से घूमने-टहलने निकल सकता हूँ। वहाँ नीलम बहुत ध्यान रखती है लेकिन अकेलापन लगता रहता है।
एक बार बहुत मज़ेदार घटना हुई, आप दिल्ली से परिवार के साथ लौटे थे और आते ही आपका आधार कार्ड घर में ही कहीं गिर गया था, आपने उसी समय से खोजना शुरू किया और खोजते ही रहे पर नहीं मिला। मैंने और बाक़ी लोगों ने भी खोजा जब एक दो दिन तक नहीं मिला तो आपने प्रार्थना की कि हे प्रभु मिल जाए तो लड्डू चढ़ाएँगे और हैरानी की बात कि अगली दोपहर आधारकार्ड एक कोने में ज़मीन पर पड़ा हुआ था। पता नहीं चूहे ने इधर-उधर किया था या आप ख़ुद पास वाले बैग में रखकर भूल गए थे। ख़ैर मिल गया तो आपने मुझे पैसे दिए और कहा—जाओ लड्डू लेकर चढ़ा देना और बाक़ी हम लोग खाया जाएगा। मैंने मन-ही-मन सोचा कैसे प्रगतिशील बनते हैं। ख़ैर मैंने एक पाव लड्डू लेकर एक पेड़ के नीचे एक लड्डू रख दिया और एक गाय को खिलाकर लौट आया और आते ही आपसे पूछा—“पहले ये बताइये कि कैसे प्रगतिशील बनते हैं आप लोग...? आपने कहा— हम लोग जैसे परिवारों से आते हैं उनमें ये मानताएँ बहुत गहरे तक धंसी हुई हैं। किसी भी कठिन परिस्थिति में हम लोगों के परिवारों में ऐसी मानताएँ माँगना स्वाभाविक है, उसी संस्कार ने मेरे भीतर भी काम किया। बाक़ी मानने से देखो मिल भी गया और अपनी बात पे नहीं रहता तो बेईमानी होती, बस यही कारण है।” मैं आपको समझता था, आपका लिखा उस बीच थोड़ा-बहुत पढ़ चुका था। आपकी ख़रीदी बहुत-सी किताबों से मैं साहित्य का पाठक बना। आपको कुछ-कुछ कविताएँ सुनाता था। आपको सुनता था इसी वजह से धीरे-धीरे आपका इलाहाबाद मुझमें भी रहने लगा था।
कोविड के दूसरे लॉकडाउन के पहले अप्रैल में मैं आपको दिल्ली छोड़कर आया। इस बार इलाहाबाद से जाना आपके लिए कभी न लौटने के लिए जाना था। कुछ समय बाद पता चला कि बारिश में फिसल के गिर जाने से आपके कूल्हे की हड्डी में फ़्रैक्चर हो गया है। उसके बाद आपका ऑपेरशन हुआ फिर लगातार लंबे समय तक आप बिस्तर पर ही रहे। ज़िद्दी थे ही, उम्र और बीमारी ने आपको और ज़िद्दी बना दिया था। अक्सर खाना-पीना छोड़ना आपकी आदत थी। दांत की समस्या भी थी, धीरे-धीरे सुनने की क्षमता भी क्षीण होने लगी। बाद के सालों में भाभी (आपकी बहू नीलम श्रीवास्तव—जिन्हें मैं भाभी कहा करता) ने आपका बहुत ध्यान रखा। इलाहाबाद के अंतिम दिनों में आप चौथी राम यादव की किताब—‘लोक और वेद आमने-सामने’ पढ़ा करते। मनीषा कुलश्रेष्ठ की किताब— ‘मल्लिका’ पढ़ रहे थे और किसी की लिखी ग़ालिब की जीवनी पढ़ने की इच्छा थी। इलाहाबाद में आपके बहुत से मित्र थे। दिल्ली में रहते हुए भी आपका जीवन यहाँ अटका हुआ था। दिल्ली में यहाँ जैसा घूमना-फिरना संभव नहीं था। बिस्तर पे जाना और खाना-पीना छोड़ देना आपको लगातार चिढ़-चिढ़ा बनाता गया।
मैं लगातार दो सालों से आपकी स्थिति से परिचित था। कई बार सोचता था कि अब आपको मुक्त हो जाना चाहिए। पहली फरवरी की रात को भाभी ने बताया कि पापा नहीं रहे। मैंने एक लंबी साँस ली और सोचा कि आप अपने सुख-दुख भोग कर अंततः इस चक्र से मुक्त हुए। आपकी किताबों और आपकी स्मृतियों के बीच मुझे लगा कि मैं सोने जाऊँगा और आप ‘शिवम’ कहकर कोई बात छेड़ देंगे, मैं सुनते-सुनते सो जाऊँगा। कुछ समय पहले एक गोष्ठी में आपके कुछ पुराने मित्र मिले थे, मैंने उन्हें बताया कि मैं आपके साथ काफ़ी समय तक रहा। उन्होंने आपके विषय में कुछ विशेष नहीं पूछा। इधर लंबे समय से न सुन पाने के चलते आपसे फ़ोन पर बातचीत संभव नहीं हो सकी। एक बार दीवाली पर आपसे बात हुई थी, आपने कहा था कि कभी-कभी याद कर लिया करो, अच्छे से पढ़ो। कभी-कभी आपकी याद आती थी, मैं सोचता था मिलूँगा तो वे पत्रिकाएँ दिखाऊँगा जिनमें मेरी कविताएँ छपीं। आप उन्हें देखकर ख़ुश होते। आप अक्सर कहा करते थे कि साहित्य भंडार ने जो कहानियों की पांडुलिपि रखी थी उसे छाप देते तो अच्छा रहता, लेकिन उन्होंने नहीं छापी। इधर लंबे समय से आपकी लगभग किताबें अनुपलब्ध हो गई थीं और आप भी हिंदी-साहित्य की दुनिया से बहुत दूर निकल गए थे। आजकल हिंदी साहित्य प्रचार के दम पर चल रहा है, ख़ूब कविताएँ छप रही हैं ख़ूब संग्रह आ रहे हैं। यदि आप जीवित होते तो इन सबको पढ़ने के लिए आपको एक जीवन और लगता। ख़ैर दो दिनों से लोग आपको दोबारा याद करने लगे हैं। मुझे पता है वे जल्दी ही फिर भूल जायेंगे, फिर भी कुछ लोग तो आपको याद करेंगे ही उनमें एक मैं भी रहूँगा। जब तक जीवन रहेगा कभी-कभी सोने से पहले आपकी आवाज़ सुनाई देती रहेगी। दिसंबर में दिल्ली आने से पहले सोचा था कि आपसे मिलने जाऊँगा लेकिन दूरी और समय के अभाव में नहीं आ सका। आपको पता चलता कि मुझे कविताओं के लिए सम्मानित किया गया है तो आपको कितनी ख़ुशी होती। मैं लोगों को महान् मानने में ज़रा भी भरोसा नहीं करता, आजकल जो महान् हो जाता है उसे लोग जल्दी ही पीछे धकेल देते हैं। आप बहुत साधारण से व्यक्ति थे। अपनी तमाम अच्छाइयों और बुराइयों के साथ आपने रंगमंच और हिंदी साहित्य को जितना कुछ दिया उम्मीद करता हूँ कि यह हिंदी समाज उसे भुलाने में जल्दबाजी नहीं दिखाएगा।
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अजित पुष्कल की कविताएँ यहाँ पढ़िए : अजित पुष्कल का रचना-संसार
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