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क्या मैं एक आदिवासी नहीं हो सकता!

...बादल बरस रहे हैं। बारिश मतलब क्या—पकौड़े या परेशानी? निर्भर करता है—आप बैठे कहाँ हैं। मैं गाँव के घर में बैठा हूँ। सबसे बाहर वाले मकान में। फ़िलहाल मेरे लिए ‘बारिश’ का मतलब ‘परेशानी’ है। इस बारिश में मुझे फ़ोन पकड़ा दिया गया है। दूसरी तरफ़ से कोई रिश्तेदार बोल रहा है। ऐसे रिश्तेदार, जिनसे मैं बरसों पहले शायद किसी एक बोरियत भरे कार्यक्रम में मिला था। मैं तो उन्हें अधिक नहीं जानता, पर उनकी बातों से लगता है जैसे वह इस बार के पीएचडी इंटरव्यू में मुझे ही अपना विषय बनाकर पैनल के समक्ष प्रस्तुत होंगे। मैं बात नहीं करना चाहता, मगर कर रहा हूँ। शहरों में रहकर आप ‘विष’ पाए ना पाए, मगर अपने अस्ल भावों पर मीठी और रसीली बातों की परत लगाना सीख ही जाते हैं। मीठी-मीठी बातों के साथ फ़ोन तो कट गया, लेकिन मेरा कनेक्शन स्मृति में कहीं और जुड़ गया। बहुत दूर नहीं—बस दो महीने पहले‌। आठ सौ किलोमीटर दूर।

अरावली से छिटके मगरों पर बसा यह इलाक़ा ‘भाखर’ कहलाता है। भाखर में बसे हैं—धरती के कुछ प्यारे मिनख, जिन्हें हम और आप ‘आदिवासी’ कहते हैं। बीते मई-जून की झुलसाती दुपहरों में मैं इन मगरों पर बसी फलियाँ गाह रहा था। मुझे काम मिला था कुछ समझाने का—मगर मैं चाहता था समझना। समझना—सदियों के हिसाब-किताब को। शोषण-प्रताड़ना के इतिहास को। पहाड़ों को चीरते हुए किसी रेल-लाइन की शक्ल में गुज़रते विकास को। मगर सब वो नहीं होता, जो आप सोचें। कई बार उससे बेहतर भी हो जाता है। मेरे साथ यही बेहतर घटा।

वह रोज़ के जैसा ही एक दिन था। मुझे क़स्बे से ऑटो पकड़कर एक गाँव पहुँचना था। मैं पहुँचा। आज बैठकों का एक लंबा सिलसिला चला। बैठक कहिए या संवाद—राशन, पेंशन, मनरेगा और वनाधिकार पर।

ठीक ऐसी ही एक बैठक पूरब की फली के बड़े महुआ तले हुई। योजनाओं के फ़ायदे से शुरू हुआ यह संवाद ‘लाभार्थी’ का तमगा पाने के रस्ते में पड़ने वाली परेशानियों तक पहुँचा। किसी का नाम आधार और भामाशाह में अलग-अलग है। किसी का मोबाइल नंबर बैंक के खाते से नहीं जुड़ा है। किसी के पहचान पत्र और आधार कार्ड की जन्मतिथियों में सात साल का फ़ासला है।

मैं बड़े ध्यान से सब नोट कर रहा था। नाम, परेशानी, आधार नंबर, भामाशाह कार्ड की डिटेल्स—ताकि इन समस्याओं के निस्तारण के प्रयास किए जा सके। लिखना ख़त्म हुआ। मैंने सोचा कि शायद चर्चा का सूर्य अस्त होने को है। मगर यहाँ रुकने की बजाय यह संवाद अचानक हँसी-मज़ाक़ का बॉर्डर लाँघ गया। असली महफ़िल तो अब जमी। मज़ाक़ों के विस्तृत दायरे ने चूल्हे-चौकियों, गाँवों और उनके चारों ओर फैले मगरों तक को छोटा कर दिया। किसने-क्या कहा-क्या पूछा-क्या बताया—मिनटिंग संभव नहीं। ख़ैर,अच्छा ही था। गंभीरता का लबादा ओढ़कर शुरू हुई ऐसी बैठके जब चित्त पर चढ़ी चिंता को बिसार कर हँसी पर ख़त्म होती है तो सुख देती है।

यही सुख लिए मैं बाइक के पीछे बैठा। जब हम गली को नापकर सड़क चढ़ रहे थे, तो एक महिला ने भागकर बाइक रुकवाई।‌ मैंने ध्यान सँभाला‌। यह तो ‘भूरी बाई’ हैं। अभी-अभी तो बैठक में इनसे पूछा था कि “शादी के वक़्त आपकी उम्र क्या रही होगी?” कहीं ग़ुस्सा तो नहीं हो गईं। संभव है। मैं माफ़ी माँगने के लिए अंदर से स्थानीय भाषा इकठ्ठा कर ही रहा था कि उन्होंने जामुन से भरी थाली आगे बढ़ा दी। मेरा ध्यान माफ़ी से तब हटा, जब बाइक चला रही साथी ने मुझे बताया कि “भूरी बाई चाहती है कि आप उनके घर जाएँ।” मैं सुख वाले आश्चर्य में था। भूरी बाई ने मुस्कुराते हुए मुझे अपने घर का रास्ता बताया। हम घर पहुँचे। पीछे-पीछे इसी गाँव के दो दोस्त और आ पहुँचे। हम बैठे-बैठे जामुन खा रहे थे। मेरा ध्यान भूरी बाई की तरफ़ गया। वह आस-पास नहीं थी। शायद, अंदर चूल्हे पर काली चाय पका रही थी।‌ मैं आश्चर्य में था। यह मुझे पढाई गई शिष्टाचार की किताब में लिखी पहली ही पंक्ति के विरुद्ध था कि आप किसी को बुलाकर लाए और फिर ख़ुद अंदर जाकर कुछ करने लगे।

मैं बाहर से उठकर सीधा अंदर चला गया। भूरी बाई ने बिल्कुल रोक-टोक नहीं की। ना ही उन्होंने केळू की छत से ढके उस मकान में इधर-उधर बिखरे पड़े सामान को इधर-उधर व्यवस्थित करने की झूठी चेष्टा की। मैं जाकर उनके पास बैठ गया। हम बतियाने लगे। मैं पूछता चला गया। बचपन के बारे में। पीहर के बारे में। मेहनत-मज़दूरी से भरे जीवन पर। जंगल की स्मृतियों के बारे में। मगरों के भविष्य के बारे में। वह बताती चली गईं। बिना किसी अलंकार के। बिना किसी फ़िल्टर के। बिना किसी मिर्च-मसाले और अतिरिक्त भावुकता के। अपने सरकारी नौकरी पा चुके पहले बेटे, ड्राइविंग करने वाले दूसरे और बाहर रहकर पढ़ाई कर रहे तीसरे बेटे के बारे में बता चुकने के बाद वह मुझे बाहर ले गई। सामने खेत में लगे—जामुन, अनार, आम और पपीते के पेड़ दिखाएँ। घर में पाली भैंस के बारे में बताया। ख़ाली पड़े ‘ठाण’ को दिखाते हुए बताया कि गाय मगरों पर चरने गई है। शाम को अपने-आप लौट आएगी। मैं वहीं केळू की तीखी छत की मुंडेर पर बैठ गया। वह भी। मुझे लगा कि जितना मैंने पूछा—संभवतः उनके बताए गए से बहुत कम था। मैं वापिस अंदर गया। वह वहीं बैठी रहीं। मैंने देखा बड़े से बर्तन में अभी ‘करबा’ पका है। ताजी छाछ में। मैंने माँगा। थाली भरकर मिल गया। एक साथी ने टोका कि ‘लेट हो रहा है।’ मैंने करबा पीते हुए वही सवाल ‘भूरी बाई’ की तरफ़ बढ़ा दिया कि “आप कभी लेट हुई हैं?” उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया—सिवाय खिलखिलाकर हँस देने के। हमने फ़ोटो ली। एक चुटकुला सुनाया। हँसी भरी विदाई ली। अगले कुछ दिन मैं सोचता रहा कि—मेरी माँ से बहुत बड़ी और दादी से कुछ छोटी भूरी बाई का ‘लेट वाले’ सवाल पर हँसने का अर्थ क्या था? क्या उन्हें मेरा सवाल समझ नहीं आया? क्या वह कभी लेट नहीं हुई‌? या फिर वह कहीं लेट होने पर ऐसे ही सहज रहती हैं, जैसी मेरे साथ थीं।

बारिश की बढ़ती रफ़्तार में—एक बिजली ज़ोर से कड़कड़ाई है। कनेक्शन कट गया है। मैं वर्तमान में लौट आया हूँ। सोच रहा हूँ कि क्या मैं किसी से बात करते, मिलते और कहते-सुनते इतना सहज नहीं हो सकता—क्या मैं भूरी बाई नहीं हो सकता—क्या मैं एक आदिवासी नहीं हो सकता।

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