गाँव पर बेला
महात्मा गांधी ने कहा
था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। आधुनिक जीवन की आपाधापी में कविता के लिए गाँव एक नॉस्टेल्जिया की तरह उभरता है जिसने अब भी हमारे सुकून की उन चीज़ों को सहेज रखा है जिन्हें हम खोते जा रहे हैं।
मेरे पुरखे कहाँ से आए!
गोलू का कॉल आया। उसने कहा कि चाचा मिलते हैं। “कहाँ मिलें?” “यमुना बोट क्लब।” वह मेरा भतीजा है। वह यमुना पार महेवा नैनी में रहता था। हम अपने-अपने रास्ते से होते हुए पहुँच गए यमुना बोट क्लब। उ
पहाड़ों की होली : रंग नहीं थे, रंगीनियाँ पूरी थीं
मेरे पास होली की स्मृतियों में रंगों की कोई स्मृति नहीं है। शोर में डूबे इस शहर में जब रंगों में डूबी हुई होली देखता हूँ, तो सोचता हूँ कि कितनी बेरंग थी मेरे बचपन की होली। थोड़ी बहुत जो स्मृतियाँ हैं
ड्रैगन फ़्रूट, कीवी के ज़माने में सिंघाड़ों का सुख
शीत की साग-सब्ज़ियों से अटी पड़ी सब्ज़ी मंडियों के बाहर अत्यक्त भाव से बिकते सिंघाड़ों को देखकर जी करुणा से भर आया। ऐसे सरस फल को कैसे इतनी जल्दी बीते दिनों की बात बना हम आगे बढ़ गए। कार्तिक महीने
क़स्बाई ज़िंदगी की तिकड़मों का लुत्फ़
हिंदुस्तान क़स्बों और नगरों से भरा देश है। अगर हिंदुस्तान से क़स्बे निकाल दिए जाएँ, तो बस धूल-खाते, मिलों के शोर से भरे इलाक़े, बजबजाते हुए नाले, एक दूसरे से उलझने को तैयार गाड़ियाँ और आसमान की कोख म
12 नवम्बर 2024
ज़िंदगी से ग़ायब आमों की महक
बारिश में पेड़ से टपका आम गद्द से ज़मीन में धँस जाए, आगे-पीछे मिट्टी में लिपटे हम, मिट्टी में छिपे आम को खोजने में मिट्टी में इधर-उधर झपट्टा मारते हुए; आम खोजते और बाल्टी, बोरा और खाँची सब भर डालते।
छठ, शारदा सिन्हा और ये वैधव्य के नहीं विरह के दिन थे...
मुझे ख़ूब याद है जब मेरी दादी गुज़र गई थीं! वह सुहागिन गुज़री थीं। उनकी मृत्यु के समय खींची गईं तस्वीरों में एक तस्वीर ऐसी है कि देखकर बरबस रोना आता है। पीयर (पीली) दगदग गोटेदार पुतली साड़ी में लिपटी
शारदा सिन्हा : ‘हमरा के कहाँ छोड़ले जाइछी रे गवनवा...’
‘अपने त जाय छी प्रभु देस रे बिदेसवा से, हमरा के...’ पर कहाँ जा पाएँगी इस देस से? काश ‘घोड़ा के लगमवा’ थाम के रोका जा सकता। काश ‘सँईया कलकतवा से’ आ सकते। किसे कहेंगे इस महादेस के मन की आवाज़ अब; ठीक
आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ : हमरेउ करम क कबहूँ कौनौ हिसाब होई
आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ अवधी में बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ की नई लीक पर चलने वाले कवि हैं। वह वंशीधर शुक्ल, रमई काका, मृगेश, लक्ष्मण प्रसाद ‘मित्र’, माता प्रसाद ‘मितई’, विकल गोंडवी, बेकल उत्साही, ज
जौनपुर भड़ैंती उर्फ़ नक़ल : एक ख़त्म होती नाट्य-विधा
कुछ वर्ष पूर्व तक पूर्वांचल के देहातों-क़स्बों-शहरों की दीवारों पर हिंदुस्तानी, अवधी या भोजपुरी में लिखे सूचना-पट्ट इस तरह के होते थे—कल्लू नक़्क़ाल, बिस्मिल्लाह भाँड, रमपत हरामी मंडली इत्यादि... कि
विषधारी मत डोल कि मेरा आसन बहुत कड़ा है
बचपन में पिता की टेबल पर जिन किताबों से मेरा साबका पड़ता था, उनमें शेक्सपियर के कंपलीट वर्क्स के साथ मुक्तिबोध की ‘भूरी-भूरी खाक धूल’, नामवर सिंह की ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के अलावा रामधारी सिंह दिनक
‘लापता लेडीज़’ देखते हुए
‘लापता लेडीज़’ देखते हुए मेरे अंदर संकेतों और प्रतीकों की पहचान करने वाली शख़्सियत को कुछ वैसा ही महसूस हुआ जो कोड्स की सूँघकर पहचान कर देने वाले कुत्तों में होती है। मुझे लगा कि इस फ़िल्म के ज़ाहिर किए
पिता के बारे में
पिता का जाना पिता के जाने जैसा ही होता है, जबकि यह पता होता है कि सभी को एक दिन जाना ही होता है फिर भी ख़ाली जगह भरने हम सब दौड़ते हैं—अपनी-अपनी जगहों को ख़ाली कर एक दूसरी ख़ाली जगह को देखने। वह जगह