Font by Mehr Nastaliq Web

पहाड़ों की होली : रंग नहीं थे, रंगीनियाँ पूरी थीं

मेरे पास होली की स्मृतियों में रंगों की कोई स्मृति नहीं है। शोर में डूबे इस शहर में जब रंगों में डूबी हुई होली देखता हूँ, तो सोचता हूँ कि कितनी बेरंग थी मेरे बचपन की होली। थोड़ी बहुत जो स्मृतियाँ हैं भी वे भी पहाड़ों में टेलीविज़न की धमक के बाद की हैं। नब्बे के दशक के आख़िरी सालों की।

सिनेमाघरों में फ़िल्में देखने की सुविधा हासिल नहीं थी हमें। इसलिए हमने दूरदर्शन पर बहुत देर में फ़िल्में देखी। और इन्हीं फ़िल्मों के बाद शामिल हुए हमारी संस्कृति में करवाचौथ या रंगों वाली होली जैसे त्यौहार।

लेकिन यादों की परतों को जब कुछ ज़ोर देकर कुरेदने की कोशिश करता हूँ, तो पाता हूँ कि एक पौराणिक कहानी (होलिका की कहानी) की धुँधली-सी एक याद है तो सही। लेकिन आंचलिकता के प्रभाव में बिगड़े उच्चारण के कारण, कहानी के किरदारों के नाम भी बिगड़ गए थे, जिन्हें बहुत बाद में हमने पुराणों को पढ़कर दुरुस्त किया।

मिथकीय क़िस्सों वाली और रंगों वाली इस होली के अलावा मेरे पास बचपन की होली की वे स्मृतियाँ ज़्यादा हैं जो लोक व प्रकृति के बेहद क़रीब थीं।

मसलन! होली की रात हम अपने बैलों के कानों में ज़ोर से यह कहते—“शुण मेरे धौंलेया बैला, ह्यूँद गो ते बसंद आ”

मतलब मेरे धवल बैल सुनो सर्दियाँ चली गई हैं और बसंत आ गया है; अब आराम के दिन ख़त्म हुए।

दरअस्ल, सर्दियों के आख़िरी पायदान पर पड़ने वाला होली का यह त्यौहार ऋतु परिवर्तन का सूचक था। सर्दियों में पहाड़ों पर घरों की सफ़ाई लगभग स्थगित रहती थी। होली का मतलब था सर्दियों के ढलान का वक़्त, महीनों बाद घरों की साफ़-सफ़ाई का वक़्त; होली मतलब यह कि यह रुत अब सर्दी की ठिठुरन से आज़ाद होकर बसंती रंगों के साथ खिली-खुली होकर मुस्कुराने के लिए तैयार है।

घर से जाले निकाले जाते। कोनों कूचों में जमी धूल झाड़ दी जाती। दरवाज़ों की चौखटों पर दिवाली पर टांगी गईं गेंदे के फूलों की फूलमालाएँ उतारी जाती। आँगनों के किनारों पर उगे झाड़–झंखाड़ों को उखाड़ जाता। और इस सारे कूड़े का ढेर एक नियत स्थान पर लगा दिया जाता होली में जला देने के लिए।

हम बच्चे उस ढेर में और अतिरिक्त कूड़ा करकट जमा करते, अतिरिक्त झाड़ियाँ, बेकार बचे सख्त चारे के टोटे। और इस तरह हम बच्चों के बीच सबसे ऊँची होली बनाने की एक अघोषित प्रतियोगिता शुरू हो जाती।

त्योहारों को अपनी भाषा में इंसानों की तरह बरतने का एक अजब-सा चलन था पहाड़ों में। यहाँ होली कभी विधवा हो जाती तो कभी सुहागिन। होली जब फागुन में आती तब सुहागिन कहलाती और जब चैत में तो विधवा। कोई वाजिब कारण नहीं जान पाया कि क्यों? दरअस्ल साल में तीन महीने काले महीने कहलाते हैं पहाड़ों पर। चैत, अश्विन और पौष। बाबा कहते थे—ये महीने देवताओं के निजी महीने हैं। इनमें नहीं होते कोई शुभ काज, न शादी-ब्याह, न पूजा-पाठ। देवता आराम करते हैं इन दिनों। शायद इसीलिए चैत में विधवा कहलाती होली और बिन पूजा-पाठ के ही जला दी जाती।

जब विधवा होती तब होली को सरसों के फूल पहनाए जाते और जब सुहागिन होती तब दूब से बनाई हुई नथ। उन दिनों टूटे हुए समान इस्तेमाल करना क्या ख़ूब जानते थे हम लोग। घड़े जब टूट जाते तो बड़े वाले टुकड़े को संभाल के रखकर उसे कड़ाही के विकल्प के रूप में इस्तेमाल करते थे। होली वाले दिन उसमें छोटे-छोटे कंटीले ख़ास तरह के मक्की के दाने जो चटककर खिल जाते थे; बाहर आँगन में जलाई गई आग पर उन्हें भूनते थे हम लोग।

‘पॉपकॉर्न’ यह नाम भी शायद टीवी विज्ञापन के बाद ही सीखा हमने। वरना दाने—जो चटककर खिल गए वो ‘खड्डे’, जो भुनकर ठोस रह गए वो ‘रोड़े’।

रात में जब होली जलती तो प्रसाद के रूप में यही खड्डे ही फेंककर चढ़ाए जाते होली में। और पता नहीं उस जलती हुई होली को कूदकर लाँघने का रिवाज क्यों था?। लेकिन था! और इस चक्कर में हम बच्चों ने दसियों बार अपनी देह झुलसाई और कई बार तुड़वाई पैरों की हड्डियाँ फिर भी यह कूदना-फाँदना जारी रहा।

होली केवल धार्मिक अनुष्ठान या प्रकृति में ऋतु परिवर्तन की तैयारी मात्र ही नहीं था; बल्कि साल भर के सबसे बड़े सामूहिक मनोरंजन का जरिया भी था। और इसी कड़ी में निकलता था एक जत्था या जुलूस जिसे हम ‘हरण’ कहते थे। हरण माने हिरण। जी हाँ वही हिरण जंगलों में पाया जाने वाला।

लेकिन यह वाला हरण असल हरण नहीं होता था बल्कि एक बहरूपिया होता था; जो सर पर नकली सींग लगाकर हिरण के रंग वाली चितकबरी पोशाक ओढ़कर मशाल की तेज़ पीली रोशनी में आगे-आगे चलता—जत्थे का नेतृत्व करता हुआ और उसके पीछे-पीछे चलती थी युवाओं की एक टोली, 

“ए हरनोटा भला हो, बरसे दिने आया।
बाहर निकल घरमोइया हरणे सिंग डाया”

गाते हुए।

(यह हिरण एक बरस बाद आया है। मेज़बान घर से बाहर निकलो और देखो कि हिरण ने दरवाज़े पर सींग गड़ा दिया है)

आधी रात के अँधेरे में मशाल की रोशनी में युवाओं का एक झुंड गाजे-बाजे के साथ निकलता; ढोलक की तान पर सुर मिलाती हुई बीन या ट्रंपेट और कोरस में गाते हुए लोग—

“आना दुआना न लैणा
लैणा बीये दा नोट”

(आना दो आना नहीं लेंगे, पूरे बीस का नोट चाहिए)

पूरी रात यही गाना गाते हुए यह टोली आस-पड़ोस के सब दरवाज़ों पर दस्तक नहीं धावा बोलती और अनाज और नक़दी इकट्ठी करती रहती सुबह हो जाने तक। यह सिलसिला तीन रातों तक चलता रहता लगातार।

इस ‘हरण’ को शुभ माना जाता था पता नहीं क्यों? बाबा बताते थे कि ‘हरण’ के रूप में होली देवी आती है जिससे सुख-शांति बनी रहती है घर में। अब यह होलिका को देवी मानते थे या कुछ और कारण था यह तो स्पष्ट नहीं हो पाया कभी। लेकिन जो बच्चे बीमार रहते थे उन्हें उस ‘हरण’ की पीठ पर स्वास्थ्य लाभ के इरादे से सवारी कराई जाती थी अतिरिक्त दक्षिणा देकर।

हरण के आने को शुभ मानने का रिवाज था। तीन दिनों तक जुटाया गया अनाज और नक़दी दरअस्ल एक बड़े आयोजन की तैयारियाँ होती थीं। जिसमें होती थी एक दावत जिसमें वे सब लोग आमंत्रित होते जिन्होंने ‘हरण’ को दान दिया होता।

साथ में जुटते कुछ कलाकार जो स्वांग रचने के महारथी माने जाते थे उन दिनों। ये बत्ती के आने से पहले के दिन थे। एकदम घने अँधेरे के दिन। न मंच, न बिजली की चकाचौंध न भारी-भरकम कॉस्ट्यूम्स। बस बीच मैदान में जलती हुई आग, उसके घेरे में बैठे दर्शक और आग के इर्द-गिर्द चल रहा स्वांग। जिसमें बालकृष्ण की कुछ नटखट कहानियाँ, कुछ स्थानीय हास्य-विनोद के क़िस्से, कुछ लोकगीत और पूरी रात। भले ही मेरी स्मृति में होली के रंगों की कोई स्मृति हो न हो लेकिन होली की रंगीन स्मृतियाँ ढेर सारी हैं।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं

बेला लेटेस्ट