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ज़िंदगी से ग़ायब आमों की महक

बारिश में पेड़ से टपका आम गद्द से ज़मीन में धँस जाए, आगे-पीछे मिट्टी में लिपटे हम, मिट्टी में छिपे आम को खोजने में मिट्टी में इधर-उधर झपट्टा मारते हुए; आम खोजते और बाल्टी, बोरा और खाँची सब भर डालते। 

ऐसा नहीं था कि वहाँ आम के अलावा कोई और पेड़ नहीं था, कुल 20 या 25 पेड़ थे लेकिन गाँव-गिराव के पट्टीदारी में एक अनकही हिस्सेदारी होती है ना, वैसा ही वह बग़ीचा भी दो हिस्से में बँटा हुआ था। हमारे हिस्से में आए हुए जो पेड़ थे, उनमें आम के पेड़ों की संख्या ज़्यादा थी। यूँ तो सभी पेड़ पापा और बड़े पापा ने बचपन में लगाए थे क्योंकि उन्हें बग़ीचा बनाने का शौक़ था। आम के अलावा बग़ीचे में कटहल, महुआ, शीशम और जामुन के पेड़ भी थे।

कटहल का पेड़ ऐसा था, जिस पर हर साल बमुश्किल चार, छह, दस कटहल ही लगते थे। कटहलों की संख्या भले कम हों, लेकिन वज़न में पाँच से सात किलों के आस-पास होते थे। बग़ल वाले बग़ीचे में कटहल का एक ही पेड़ था, जिस पर कटहल तने से ही ऊपर तक लद्द जाता, उसे कटहली कहते, ऐसा हम नहीं पापा ने कहा था।

हमारे यहाँ जामुन के दो पेड़ थे। एक घर के दुआर पर लगा जामुन का पेड़ और दूसरा बग़ीचे का जामुन का पेड़। मुझे याद है जब पापा पहली बार हमें बग़ीचे ले गए थे, तब उन्होंने उस बग़ीचे के हर एक पेड़ से हमारा तआरुफ़ करवाया था। जामुन के पेड़ के बारे में पापा ने बताया था कि यह फ़रेन वाला जामुन है, जो साइज में थोड़ा बड़ा और ज़्यादा मीठा होता है। 

उस समय जामुन के पेड़ पर ज़्यादा जामुन नहीं फले थे, जबकि वह पेड़ बहुत बड़ा था। मुझे आज तक नहीं पता कि फ़रेन का अर्थ क्या होता है। तब तो मुझे जानना भी नहीं था, हो सकता है वह फ़ोरेन बोलना चाहते हों या फिर यह जामुन की कोई क़िस्म हो। ख़ैर उससे बहुत फ़र्क़ पड़ता, क्योंकि सभी उसका मतलब जाने बिना ही उसे फ़रेन ही कहते हैं। 

वहाँ आम के भी कई पेड़ थे, जिनमें चौसा, दशहरी, गोलउआ, लहसुनिया, लंगड़ा, बीजू प्रमुख थे। कुछ आम के पेड़ जिनका नाम हमें नहीं पता था, उनका नाम हम ख़ुद रख देते। जैसे एक पेड़ जो इनार के पास था—उसको सभी इनरहवा वाला आम कहते। सामने के खेत में जो आम का पेड़ था, जो हम भाई-बहनों को बिल्कुल पसंद नहीं था, वह केवल अचार डालने के काम आता, उसको हम भाई-बहन अट्हवा कहते; क्यों कहते यह भी आज तक नहीं पता। शायद उसके फल का स्वाद सने हुए मीठे सतुआ-सा था जो हमें बिल्कुल नापसंद था। 

इसके अलावा मुझे एक और आम के पेड़ का नाम याद आता है। वह था कृष्ण भोग आम। मुझे अक्सर ऐसा लगता कि मैंने वह आम खाया है, लेकिन उसका ठीक-ठीक स्वाद बताना मुश्किल था। मुझे लगता है वह स्वाद पिता जी का बताया हुआ स्वाद है जो मेरी ज़ुबान पर साफ़-साफ़ नहीं आता। अक्सर पापा उस आम के मीठेपन की मिसाल देते थे…मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकती कि कृष्ण भोग मैंने खाया या नहीं लेकिन उसके क़िस्से का स्वाद मेरे अंदर बसा हुआ है।

आम को लेकर मेरे पास हज़ारों क़िस्से हैं—आम के रसीलेपन के क़िस्से, उन वर्षों के क़िस्से जब आम पर बौर नहीं आईं, सुबह-सुबह आम चोरी करने के क़िस्से, छोटी दादी के क़िस्से जो अपने ब्लाउज़ में आम भर लाती और आम की चोक लगाने पर घाव तक सह जातीं, बखरे में आए आम के पेड़ के क़िस्से।

एक बार की बात है—गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म होने में कुछ ही दिन रह गए थे। हमारे बग़ीचे में एक आम का पेड़ था जिसके फल जुलाई में पककर टपकते थे। पापा के सामने यह दुविधा थी कि फलों के टपकने का इंतज़ार करें तो हमारा स्कूल छूट जाएगा, तो उन्होंने उस पेड़ के कच्चे आम को तुड़वाकर शहर लाने का सोचा। आम तोड़ने के लिए चाचा लग्गा तैयार करने लगे। दूसरे दिन सुबह निकलने से पहले सभी आम तोड़कर कुछ बाँट दिए गए और लगभग तीन बोरा आम पापा ने गोरखपुर के लिए रखवा लिए। 

जुलाई की तीसरी तारीख़ थी, हम गाँव से गाड़ी पकड़ मुख्य बाज़ार पहुँचे और वहाँ से शहर के लिए बस में बैठे। पापा ने बस में ही आम रखवा दिए। कंडक्टर ने आम की बोरियों को नीचे समान वाली जगह पर रखवा दिया। घर पहुँचकर जब हमने बोरियाँ खोलीं तो सभी आम अच्छे से पक गए थे। घर में पके हुए आमों की तेज़ मीठी महक फैल गई और इतना ही नहीं आस-पास भी आमों की भीनी-भीनी फैल गई। पापा ने आम कॉलोनी में बँटवा दिए।

मैं बचपन से आम की शौक़ीन हूँ। एक बार में चार से पाँच बड़े आम खा जाती और आज नोएडा के एक छोटे से फ़्लैट में दुपहर में बैठे-बैठे—बचपन, बग़ीचे और आम के क़िस्से को याद कर रही हूँ।

शहर बदलने से अब आम के क़िस्म और क़िस्से भी बदल गए हैं। यहाँ जो आम मिलते हैं उनमें सफ़ेदा, सिंदूरी तोतापुरी और केसर मुख्य हैं। इन आमों में केसर कुछ-कुछ अपने स्वाद-सा मालूम पड़ता है, देखने में पीला-पतला छिलका और गुदादार। मलीहाबादी और मलदहवा आम यहाँ भी बस ख़बरों में ही सुनाई पड़ता है। 

शहर में भी दशहरी ख़ूब बिकता है, लेकिन वह रंग और रूप में गाँव के बग़ीचे वाले दशहरी जैसा बिल्कुल भी नहीं लगता। वैसे भी इन शहरी दशहरी आम के स्वाद का, पेड़ से टपके हुए—ख़ास कुदरती मीठे आम के स्वाद से क्या ही मुक़ाबला होगा। ख़ास होने से याद आया कि गाँव में पेड़ों को नज़र भी लगती थी। बड़की अम्मा, माई और पापा अक्सर किसी पेड़ के फल नहीं देने पर कहते थे कि पिछली बार ख़ूब फ़लाइल रहल एहि कारण ए पारी नज़र लग गइल। ऐसी बातों पर लोगों का अटल विश्वास था। इसके उपाय के लिए पेड़ों को जहाँ एक तरफ़ घर की औरतें ओइंछती, वहीं दूसरी तरफ़ घर के पुरुष उन पेड़ों की जड़ों में क्यारी बनाकर उनमें पानी डालते और दवाइयों का छिड़काव भी करते।

यहाँ बड़े शहरों में आम बदलने के साथ-साथ उसके ख़रीदारों और सही आम की पहचान करने वालों की भी बहुत कमी है। बाज़ार जाती हूँ—आम की सुगंध से उसे पहचानने की कोशिश करती हूँ, लेकिन दुकान वाले की तेज़ आवाज़ में स्वाद कहीं खो जाता है। भीड़ महक से दूर आवाज़ की तरफ़ खींची चली जाती है। आम अब आम ना होकर ख़ास हो गया है और मुझ जैसे गाँव और शहर के बीच झूलते लोग आम के ख़ास होते इस व्यापार को मूक निहारते रहते किसी दोपहर अपने जीए को वापिस कहानियों में जीने लगते हैं।

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