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वैशाख की कविता : ताड़ी

फागुन और चैत के मदमस्त, अलसाये दिन-रात के बर’अक्स वैशाख बड़ा कामकाजी महीना है―खेत-खलिहान से संपृक्त महीना। पुराणों में इसे ‘माधव मास’ कहा गया है, लेकिन रसिकों ने इसे ‘मधुमास’ कहा है। और हो भी क्यों न! जब महुवे की गंध से हवा भारी हो जाती है। जहाँ ‘गमक’ और ‘महक’ का अंतर भी स्पष्ट होता है। प्रेमासिक्त विरहने चैती में कलेजा निकाल कर रख देती हैं। साँझ होते ही पीपर पात जस, मन किसी की याद में डोल उठता है।

वैशाख वातास में मादकता लाने वाले महुवा के दृश्य में होने का भी समय है। इसके बनने की प्रक्रिया पर बात करना बेमानी ही होगी। जीवन-व्यापार में यह अपनी गंध से मदमस्त करता हुआ, चुवे हुवे अवस्था में ही लक्षित होता आया है। यह लोक के “महुवा चुवत आधी रैन हो रामा, चइत महीनव” से होता हुआ, धर्मवीर भारती के “महुवा बीनती हो क्या?” में ही समाया हुआ है, उसके आगे और पीछे कुछ नहीं। कवि सेनापति ने कहा—

सेनापति माधव महीना में पलास तरु,
देखि-देखि भाव कविता के मन आये हैं

सेनापति को पलाश वृक्ष सहज ही उपलब्ध रहा होगा―वह माधुमास में यहीं ठहर गए, लेकिन बाक़ियों के लिए यह महुवा और ताड़ी के संयोग को रचता हुआ मधुमास भी है। इस संयोग को खोजने और पकड़ने के लिए यहीं आना पड़ेगा—महुवा और ताड़ी के बीच। जिसे देखते ही रेणु को सहज ही किसी पात्र से कहलवा देना ज़रूरी जान पड़ा हो—“तीन आने की ताड़ी, रोक साला मोटरगाड़ी”

मोटरगाड़ी रोकने की यह बेकली क्यों? यह बेकली सहज ही नहीं है। यह एक सुदीर्घ प्रतीक्षा, मौसमी धैर्य के बाद ऊपजी बेकली है। शराब समयातीत हो सकती है, लेकिन ताड़ी आपसे एक लंबी प्रतीक्षा की माँग करती है। ताड़ी भी कौन-सी? ताड़ वाली, ना कि खजूर वाली। खजूर की ताड़ी तो बारहों मासी है और फिर ताड़ की ताड़ी से खजूर की ताड़ी का क्या मुक़ाबला। या'नी मूलतः वैशाख और जेठ में उपलब्ध होने वाली ताड़ी। जहाँ इसके होने पर महुवे से बने मादक पेय के बाज़ार को भी ताला पड़ जाता था, वहाँ यह एक सुदीर्घ परंपरा से होते हुए उसी के अनुपालना में आज भी हमारे रोज़मर्रा में उपस्थित है। इसकी प्रक्रिया में कठोर अनुशासन है। ताड़ी के फेन से भरी हुई लबनी (मिट्टी का बर्तन) एक सुंदर कविता से कम नहीं, जो किसी कवि की विभिन्न रचना-प्रक्रिया से होकर हमारे पास रची-रचाई आई है। जिसका आस्वादन करते ही सहृदय को बस वाह कह देना शेष बचा है।

माधुमास का फल तो सुबह ही देखने को मिलता है। मसलन, एक मज़बूत और सधी हुई पकड़ के साथ सूर्यास्त के समय—ताड़ के पेड़ पर चढ़ना, छीलना और चीरा लगाना, लबनी बाँधना और रात भर के लिए छोड़ देना, बाक़ी का काम वैशाख का। फिर तड़के ही ताड़ी उतारना, यह एक कारीगर की रचना-प्रक्रिया है, जो चढ़ते-उतरते समय कुछ गुनगुनाता रहता है और जो हमारे हाथों में आती है, यह होती है वैशाख की कविता―ताड़ी! यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि ताड़ी नशे का कोई पर्याय नहीं, है भी “अति सर्वत्र वर्जयेत्” की तर्ज पर। यह शुद्ध रूप से प्राकृतिक और समाजवादी पेय है। समाजवादी उन अर्थों में कि कोई रोक-टोक नहीं। यह घरों में पहुँचते-पहुँचते रास्ते में बँट जाती है। घर आ गई तो सब पिएँ। फिर, क्या बच्चे, क्या महिलाएँ! कौन है जो इसे पीने से मना कर दे? और आप कौन हैं जो ताड़ी के लिए किसी को मना कर दें? ताड़ी क्या हुई― मौसम का प्रसाद है यह।

यह अवश्य हुआ है कि शराब की बहुतेरी किस्मों की बराबर उपलब्धता से ताड़ी की पहुँच में कमतरी हुई है। सन् नब्बे के धौंस जमाते हमारे सीनियर एक-एक शब्द पर ज़ोर देकर बताया करते थे कि― “अरे, एक ज़माने में तो यूपी और बिहार में शराब से पहले ताड़ी का नाम आता था। जो एक गर्वोक्ति लिए ताड़ी की महिमा-बखान के साथ ख़त्म होता था। तब इसका प्रचलन बंगाल और उड़ीसा के ठीक-ठाक हिस्सों तक था। यह निम्न-मध्यम वर्ग का पेय था।”

आर्थिक विपन्नता, पलायन समेत कई कारणों के बावजूद भी ताड़ी और तड़बन्ना की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही विद्यमान है, जितनी हम देखते-सुनते आए हैं। तड़बन्ना या ताड़ीख़ाना आज भी आवाम के बड़े हिस्से का सेलिब्रेशन पॉइंट है, जो ताड़ के पत्तों की बनी छोटी झोपड़ी में या अपने-अपने तयशुदा पेड़ों की छाँह में सुबह और शाम चलता रहता है। एक ऐसा पेय जो नहीं पीने वालों को इसके फ़ायदे गिना कर पिलाई जाती रही है और अपने कई तथ्यों, किंवदंतियों और मिथकों के साथ अगली पीढ़ी तक हस्तानन्तरित होती रही है। ताड़ी के मामले में बहुप्रचलित मिथकों में—“जीवन की पहली ताड़ी पीते हुए अगर उल्टी हो गई तो फिर जीवन भर कोई पेट की बीमारी नहीं होगी”, आदि तब से लेकर आज तक लोक में विद्यमान हैं।

सुबह की ताड़ी पीने की सलाहों की भरमार एक तथ्यपरक रूप में सामने आती है, न कि कोई मिथक। सुबह की ताड़ी यानी ताज़ी ताड़ी में नशा नहीं होता, पेट को ठंडा और ठीक रखने के लिए यह एक वैध पेय है, लेकिन धूप के संपर्क में आने के साथ किण्वन की प्रक्रिया से ताड़ी नशीली हो जाती है—इसकी यह अवस्था भी कइयों को पसंद है।

‘शराब बनाम ताड़ी’ की बहसों में उलझे लोग इसे हिक़ारत की नज़र से देख सकते हैं―ख़ासकर वह जो ‘स्टेटस सिंबल’ के नाम पर अपनी छद्म नैतिकता में घूँटे हुए इसको तिरस्कृत भाव से देखने के आदी रहे। जिसके चलते ताड़ीख़ानों को ‘खटका का बग़ीचा’ (खटिक का बग़ीचा), ‘पसियाना’ आदि नामों से व्यंजित किया गया। वे सब, जिन्होंने किसी जाति विशेष के अधिकर्म के चलते ताड़ी को असम्मान का पर्याय बनाया―संभवतः मध्यवर्गीय अभिजात्य के खाँचे में अड़से हुए लोग ही हैं। ताड़ी की व्यापकता, पसंद और पैठ―लोक, समाज के हर वर्ग तक रही और आज भी है। जो समय और पीढ़ी का अतिक्रमण करते हुए समान रूप से समभाव के साथ सभी में विन्यस्त है। जहाँ जगह भी एक है, स्रोत भी एक है और पीने वाले भी।

फणीश्वरनाथ रेणु, ‘मैला आँचल’ में तड़बन्ने के परिवेश में ताड़ी की महत्ता अंकित करते हुए लिखते हैं—“बैशाख और जेठ महीने में शाम को ‘तड़बन्ना’ में ज़िंदगी का आनंद सिर्फ़ तीन आने लबनी बिकता है। चने की घुघनी, मूड़ी और प्याज, और सुफेद झाग से भरी हुई लबनी!.... खट-मिट्ठी, शकर-चिनियाँ और वैर-चिनियाँ ताड़ी के स्वाद अलग-अलग होते हैं। बसन्ती पीकर बिरले पियक्कड़ ही होश दुरुस्त रख सकते हैं। जिसको गर्मी की शिकायत है, वह पहर-रतिया पीकर देखे। कलेजा ठंडा हो जाएगा, पेशाब में ज़रा भी जलन नहीं रहेगी। कफ प्रकृतिवालों को संझा पीनी चाहिए; रात-भर देह गर्म रहता है। साल-भर के झगड़ों के फैसले तड़बन्ना की बैठक में ही होते हैं और मिट्टी के चुक्कड़ों की तरह दिल भी यहीं टूटते हैं। शादी-ब्याह के लिए दूल्हे-दुलहिन की जोड़ियाँ भी यहीं बैठकर मिलाई जाती हैं और किसी की बीवी को भग ले जाने का प्रोग्राम भी यहीं बनता है।”

पिछले वैशाख में ताड़ी पर बात चली तो मित्र जो कि बेसो (नदी का नाम) पार के ही थे, उन्होंने बहुत उत्साहित होते हुए कहा था कि—“ताड़ी पीने का एक ही नियम है कि बस चख लेने भर के लिए ही मत पीजिए, ख़ूब छक कर पीजिए—यानी हींक भर। लेकिन! थह-थह के पीजिए। बेहतर है कि साथियों के साथ मिल कर पीजिए। पीने के मामले में अब अकेले तीन लीटर यानी एक लबनी भी ना पिये तो क्या ख़ाक पिये!

रात में पुरुवा चली हो तो पहुँचिए। नहीं चली हो तो भी पहुँचिए। गाय-गोरु का लेहना-पानी हो गया हो तो पहुँचिए। ना हुआ तो भी पहुँचिए। पटीदारी के झगड़े को स्थगित कर के पहुँचिए। कचहरी तो चलती रहेगी, दो महीने का खेला है दोस्तों—मैं कहता हूँ कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर पहुँचिए।

पीजिए लेकिन धियान रहे दोस्तों! कि सझीली बेला वाली ताड़ी को पचाने भर का अब इम्यून नहीं रह गया है जवानों में। तो सुबह तो ज़रूर पीजिए। पेट में दम है, तो न कटने वाली अलसाई दुपहरी में भी पीजिए। अगर दोनों पहर की नसीब ना हुई हो, तो द्वार पर संझा झनझनाने से पहले पीजिए। थोड़ी झुनझुनाहट चाहिए तो ‘बलिहन ताड़’ की ताड़ी पीजिए। मिठास चाहिए तो ‛फल-तड़वा’ की ताड़ी पीजिए। जेठ भर पीजिए और बने रहिए विचारों के जेठ।”

कई समुदायों (विशेषतः पासी) के आर्थिक जीवन को संभाले हुए ताड़ी ने बहुत कुछ संभाला। हालाँकि इससे भी पहले ताड़ी को संभालना बहुत जटिल काम है। लबनी, भरूका और गिलासों में पड़ा हुआ यह मधुमास का रस, ऐसे ही नहीं अपने फेनिया उजलेपन में चइता और बिरहा गुनगुनाने की सहूलियत देता रहा है। इसके पीछे चरणबद्ध, बिंदु केंद्रित श्रम है―जिसमें एक सौंदर्य है। यह श्रम के सौंदर्य का ही उजला, मीठा और छलकता हुआ रूप है। यह मिट्टी का पात्र, अन्हरिया और अँजोरिया के मिश्रण से एक-एक बूँद होता हुआ दिन-रात में भरा है। जिसके पीछे संतुलन की परिभाषा देता वह कलाकार है, जो अपने बल और साँस को साधकर इस पर चढ़ता आया है।

वर्ष के इन दो महीनों में अन्य सभी कार्यों से छुट्टी लेकर उसकी यही दिनचर्या रही आई है। वह सबसे पहले पेड़ को प्रणाम करता है। अपने किसी निजी देवता को मनाता-जोनाता है। कमर में लबनियों को लटकाए, पैरों की एड़ियों में पट्टे या रस्सी की बाँध होती है, जो पेड़ के खाँचे में फँस जाती है। वह कारीगर को एक आधार देती है। यहीं से एड़ी के बल और चोटी की पकड़ के साथ एक निश्चित क्रम वह दम लेते ‘साठ’ से ‘अस्सी’ फ़ीट या उससे ज़्यादा की चढ़ाई करता है। एक जटिल और दुरूह चढ़ाई। जिसकी उतराई तो और मुश्किल भरी।

जिसकी ज़मीन में, जिसके मेढ़ पर, ताड़ ऊगा और बच गय—वह उसका मलिकार हुआ। ऐसी मिल्कियत कि साल भर मुँह न देखने वाले रिश्तेदार भी इसी बहाने आते-जाते रहे। जिसके हिस्से यह आया, उस घर में किसी एक ने इस पर चढ़ने की कला तो सीख ही ली, लेकिन सीधे जान का जोख़िम होने के कारण, इस कला में निपुण लोगों द्वारा ही इसे अंजाम दिए जाने की रवायत बनी रही। नहीं तो घर का चिराग़ बूझते कहाँ देर लगती इसमें! व्यवसायिक स्तर पर इस कार्य के लिए पूर्वांचल में लोग बिहार से बुलाए जाते रहे हैं, जिन्हें ‘गछुवा’ पुकारा जाता था। जिसमें पासी समुदाय परंपरागत रूप से इसमें बना रहा जो बिना किसी आधुनिक यंत्र के, अपने कौशल और परंपरागत ज्ञान से ही इसे करता आ रहा है।

ताड़ी का उत्कर्ष थोड़ा मद्धिम ज़रूर हुआ है इन दिनों। कारण वही है कि एक तो इसके जबरिया स्थापित किए गए विकल्प जैसे कि शराब, और दूसरा यह कि इस पेड़ को समुचित तैयार होने में लगभग पच्चीस से तीस वर्षों तक का समय लग जाता है। अब किसके पास इतना धैर्य ठहरा, गाँव में कहनाम था कि, “बाबा लगइहन, तब नाती-पोता खइहन”, यानी बाबा लगाएँगे तब कहीं उनकी पीढ़ी को यह मिलेगा। ऊपर से बोझिल और जटिल काम। उगने को तो ताड़ कहीं भी उग सकता था, लेकिन इसे ‛झगड़े की जड़’ भी माना जाता रहा खर-खानदानों के बीच, सो उस स्थिति में आने से पहले ही काट दिया जाता रहा है।

किनके बाबा ने क्या सोच के लगाया होगा। कैसे-कैसे संरक्षण दिया होगा कि आज यह तड़बन्ना राह चलते दूर से ही दिख पड़ता है। मोटरसाइकिलें घुमा दी जाती हैं―लिंगभेद से ऊपर उठ कर कोई ताड़ी वाले से गुनगुनाता कहता है, ‛ताड़ वाला ताड़ी दा, खजूर वाला कम―ओये ताड़ी वाली ताड़ी पिया दा’।

तड़बन्ना भी क्या महज़ तड़बन्ना है? नहीं! यह चार गाँवों का एक ‘सिग्नेचर पॉइंट’ है। जिस गाँव के हिस्से में तड़बन्ना आधिकारिक रूप से पड़ता है, वह गाँव भी एक बड़े हलक़े की राजधानी सरीखा ही है। छुट्टियाँ बिताने आए शहरातियों के लिए आठवाँ अजूबा है। आतिथ्य और मेज़बानी का पहला पड़ाव है। ‘आइए अपना गाँव घुमाता हूँ’ का जोश है। यह एक ‘सौहार्द-स्थली’ है। जहाँ अब संघर्ष की बहुत कम संभावना बची है—वे दिन गए कि नशे के जोश में कोई घर की लाठियाँ गिनाने लगता था, जिससे घर के मर्दों की संख्या का पता चलता था। यह तो जनसमूहों को उदारता सौंपता हुआ एक सामाजिक स्थल है।

तड़बन्ना की स्मृतियों में इस दौर का अंतिम बुज़ुर्ग भी याद है, जो तब तक जाता रहा जब तक कि उसके पैरों ने गवाही नहीं दी। आषाढ़ चढ़ते-चढ़ते ताड़ी की मात्रा कम हो जाती है, फिर अपने पसंदीदा ताड़ के ताड़ी की माँग ख़त्म हो जाती है। नशे की टिकिया और चावल के पानी के मिलाहट का दौर चल पड़ता है। ऐसे में ताड़ी की गुणवत्ता को पहचाने वाले और ताड़ी वाले की विश्वसनीयता के अलावा और कोई साधन नहीं रहता, जो बिरले लोग ही कर पाते हैं।

तो जब आषाढ़ चढ़ चुका होता है, शुद्ध ताड़ी पुराने और नामी गाहकों के लिए बचा के रखी गई होती है― याद आता है कि ऐसे ही में, हम चार दोस्तों ने ज़्यादा पैसों पर ढंग की और ज़्यादा ताड़ी की माँग कर दी। बगल में बैठा बुज़ुर्ग हँसा और बोला, “आषाढ़ में असली ताड़ी पैसे से नहीं, क्रेडिट से मिलती है बाबू।” बात सही भी थी। जाने क्या सोच कर उसने सबके दादा का नाम पूछा था, नाम बताया गया। बुज़ुर्ग था कि ‛अरे’ बोल कर कुछ क्षण के लिए कहीं खो गया और तैरती आवाज़ में जोश का राग अलापते बोला, “अरे बाजा भइया अउर धन्नी भइया, क्या ही ताड़ी पीते थे, वाह।” यह था वह क्रेडिट, जो तड़बन्ना में दादा बना के कबका मर चुके थे। किसी के बाबा वह तड़बन्ना लगा कर और पहले मर चुके रहे होंगे। जाने-अनजाने में जाने कैसी लिगेसी कहाँ बची रह जाती है, जो अनजाने में ही दामन पकड़ लेती है। ‘अरे बाजा भइया अउर धन्नी भइया’, यह दो नामों का वाक्य और सामने तीन लबनियों में रख दी गई, ‘वैशाख की कविता―या'नी ताड़ी’।

अब जब ताड़ी की गंध और उसका स्वाद मुझे बरबस उस तड़बन्ना की ओर खींच ले जाने को बेबस कर रही―बैशाख बीत चुका है। जेठ का निदाघ तपा रहा है। ताड़ी के आस्वाद से अघाता हुआ जन, आषाढ़ के इंतिज़ार में पीपर-पात के डोलने की आस में दुपहरिया गुज़ार रहा होगा। मोटरसाइकलें तड़बन्ना को देख सहज ही घूम जा रही होगीं।

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