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मेरे पुरखे कहाँ से आए!

गोलू का कॉल आया। उसने कहा कि चाचा मिलते हैं।

“कहाँ मिलें?”

“यमुना बोट क्लब।”

वह मेरा भतीजा है। वह यमुना पार महेवा नैनी में रहता था। हम अपने-अपने रास्ते से होते हुए पहुँच गए यमुना बोट क्लब। उसकी सीढ़ियों पर बैठे। भादों का महीना था। मेघों से भरा हुआ यमुना का कछार। नदी यहाँ से अपने पूरे विस्तार में दिखाई दे रही थी।‌ दूर पश्चिम की तरफ़ सदियापुर तक, जहाँ यमुना मुड़ती है और पूर्व की तरफ़ संगम से झूंसी तट तक सबकुछ साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। बीच में एक तरफ़ यमुना पर 1865 में बना लोहे का पुल और दूसरी तरफ़ नया पुल अपनी भीम काया के साथ दृश्यमान थे। लगातार हो रही बारिश के कारण यमुना का जलस्तर बढ़ता जा रहा था। लहराती यमुना में मछुआरों की कुछ नावें भी दिखाई दे रही थीं।

मैं और गोलू बोट क्लब की‌ सीढ़ियों पर बैठे हुए बतिया रहे थे।‌ हम देर तक बैठे रहे उस दिन।‌ घंटे भर बीते। पानी सीढ़ियों से बढ़ता हुआ हमारे पैरों को छुआ। उसकी छुअन से आजी माँ के कोमल स्पर्श की याद आ गई। नदी भी तो हमारी माँ ही है। मुझे इससे जुड़ा एक प्रसंग याद आ रहा है, जिसे मेरी अध्यापिका अर्चना सिंह ने मुझे सुनाया था— 

“एक बार मैं फ़ील्ड वर्क कर रही थी। इस दौरान मुझे नाव से गंगा नदी पर यात्रा करते हुए सर्वेक्षण करना था। मैं नाव में बैठी। मैंने देखा कि मल्लाह नदी में थूक रहा है। उसे ऐसा करता देख मैंने कहा कि आप तो नदी को माँ कहते हैं, फिर उसमें थूक क्यों रहे हैं। मल्लाह ने कहा कि हाँ, नदी हमारी माँ है इसलिए मैं इसमें थूक सकता हूँ। जैसे एक छोटा-सा बालक माँ के आँचल में मूत्र विसर्जन भी कर देता है लेकिन माँ नाराज नहीं होती है, उसी तरह नदी हमारी माँ है। हम उसकी गोद में रहते हैं। हम कुछ भी करें हमारी माँ हमसे नाराज़ नहीं होगी।‌”

हम भले ही नदी से दूर चले गए हैं लेकिन एक नदी हमारी स्मृतियों में हमेशा बहती रही है।‌ स्मृतियों का यह छोर वहाँ तक जाता है—जब पहली बार मेरे किसी‌ पुरखे ने नदी के पानी को छुआ होगा। हमारे पुरखे प्रवासित होकर गाँव आए थे।‌ गाँव का नाम ‘सरइया’ है जो ‘सराय’ का अपभ्रंश है। इसकी भौगोलिक स्थिति बिल्कुल इसके अनुकूल है। गाँव एक मुख्य सड़क पर बसा है जो बड़े क़स्बों को आपस में जोड़ता है। ज़ाहिर है कि कभी सराय में यात्री यहाँ ठहरते रहे होंगे। हो सकता है यह सराय मुग़लकालीन रही हो‌। बाद में अँग्रेज़ आए, उन्होंने नील की खेती शुरू की तो इसी के बग़ल में नील की फ़ैक्ट्री और गोदाम बनाए गए। यहीं पर ज़मींदार लगान वसूलने आता था। इसके खंडहर का एक हिस्सा आज भी खड़ा होकर इतिहास की गवाही दे रहा है।

मेरे पुरखे कहाँ से आए थे? कोई नहीं जानता। हाँ, उनके आने की कई कहानियाँ और संभावनाएँ हैं। कहते हैं कि वह एक गाँव से भागकर यहाँ आए थे। तब यह जगह वीरान हुआ करती थी। गाँव बसने की एक कहानी है जिसे लोग कहते-सुनते रहते हैं। कहानी कुछ यूँ है—

“उन दिनों यह ज़मींदारी क्षेत्र में आता था। वहाँ के एक बड़े ज़मींदार थे राजा गोपाल सिंह। कहते हैं कि उन्हें कोई संतान नहीं हो रही थी। कहीं से एक साधु घूमते हुए उनके यहाँ पहुँचे। जब राजा ने उनसे विनती की तो उन्होंने कहा कि लड़का तो हो जाएगा। वह भगवान से इसके लिए प्रार्थना करेंगे। राजा को लड़का पैदा हुआ। साधु एक दिन उनके यहाँ पहुँचे। राजा ने उन्हें कुछ उपहार देने की पेशकश की। साधु से कहा कि वह पैदल चलकर जहाँ तक जाएँगे, वहाँ तक कि सारी ज़मीन उसकी हो जाएगी। फिर साधु ने जिस ज़मीन का चक्कर लगाया वहीं पर आगे चलकर एक गाँव बसा। फिर धीरे-धीरे यहाँ आवश्यकतानुसार सभी जातियों के लोग आकर बसते गए। यहाँ लोहार, बढ़ई, कहार, ग्वाल, तेली, ब्राह्मण, चर्मकार, केवट, बनिया, मुस्लिम में धुनिया, चुड़िहारा, नाई, दर्ज़ी कई जातियाँ आकर बसती गईं।” 

उनके यहाँ बसने के दिलचस्प क़िस्से हैं। उन्हें छोड़ते हुए मैं अपने पुरखों पर आता हूँ।‌ मेरे पुरखे यहाँ कैसे आए? इसकी कई संभावनाएँ हैं। पहली संभावना ऊपर दर्ज है। दूसरी संभावना है कि इन्हें हलवाही वग़ैरह करने के लिए बुलाया गया होगा। वह तब का समय था जब अँग्रेज़ नदियों पर पुल बना रहे थे जिस पर रेलें धड़ाधड़ नावों का माल लेकर चली जा रही थीं। दूसरी तरफ़ अँग्रेज़ खेती का रक़्बा बढ़ाने में भी उतनी ही शिद्दत से लगे हुए थे। इस कारण खेतिहर मज़दूरों की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी। इस प्रक्रिया में संभावना है कि किसी नदी के किनारे पुल बनने और रेल चलने से वह बेरोज़गार हुए होंगे और यहाँ आ गए होंगे।‌ या अकाल से पीड़ित होकर यहाँ भागकर आए होंगे। कहते तो यह भी हैं कि वह ब्राह्मणों की हत्या करके यहाँ भाग आए थे। वह दो भाई थे। दोनों आकर इस गाँव में बसें। उनकी जगह बदल गई पर वे काम वही करते रहे जो पहले से कर रहे थे। उन्होंने खेती-बाड़ी, हलवाही, मालवाही, पालकी ढोने के साथ मछली मारना जारी रखा।

हमारे गाँव के बग़ल एक बरसाती नदी बहती थी। उसमें बरसात के दिनों में ही पानी रहता। यह बाढ़ या बरसात का पानी आस-पास के इलाक़ों से ले जाकर बग़ल की एक छोटी नदी में गिरा देती। यह नदी आगे जाकर सरयू में मिल जाती है। इसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी‌ थी कि आस-पास के तालाबों में पानी भरने के बाद इसकी मछलियाँ इस नहर की तरफ़ आतीं। इसी नदी पर मछलियाँ पकड़ने के लिए हमारे परदादा बाँध लगाते। यह तब की बात है जब यहाँ अँग्रेज़ी घोड़ों की टाप सुनाई देनी लगी थी। इस बाँध में फँसी मछलियाँ उनके आहार का मुख्य स्त्रोत थीं।

मेरे बाबा के पिता का नाम गजाधर था। उनके बारे में अनेक किंवदंतियां‌ लोगों की ज़ुबाँ से आज‌ भी फिसलती रहती हैं। लोग इनमें मिर्च-मसाला मिलाकर बताते हैं कि उनकी भुजाओं में हाथियों का बल था। वह‌ रात में अकेले बीघों खेत गोड़ देते थे‌। पानी में उतरते तो हाथ, पैर, मुँह और काँख सभी में मछलियों को दबाकर ही बाहर आते। वह पहलवान थे। अखाड़े में उनके सामने कोई टिकता नहीं था। कई बार उन्होंने अखाड़े में बड़े-बड़े दिग्गजों को धूल चटाई। वह एक साथ अपने दोनों हाथों में एक-एक बोरा और एक बोरा सिर पर रखकर चलते और चलते हुए ही सो भी लिया करते थे। वह गाँव में हरवाही करते, मालवाही करते, कुएँ और मिट्टी के घर बनाते और पालकी ढोने का काम करते। इन कामों में उनकी दक्षता थी। अनुमान है कि उस नील की फ़ैक्ट्री में भी काम करते रहे होंगे। इस तरह वह कई कामों में संलग्न थे।

बाबा के बारे में ज़्यादा कोई नहीं जानता। वह जल्दी ही चले गए इस दुनिया से। कहते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ा हुआ था। अँग्रेज़ों को विभिन्न मोर्चों पर लड़ने के लिए सिपाही चाहिए थे।‌ इसके लिए उन्होंने गाँव-गाँव जाकर नवयुवकों को भर्ती किया। वह ज़बरदस्ती ही किसी को सेना में भर्ती कर लेते।‌ गाँव में जैसे ही भर्ती कराने वाला एजेंट आता तो लोग भागने लगते। उसी‌ लपेटे में वह आ गए। द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने चले गए। एकाध बार वह वापस गाँव लौटे।‌ उनकी कुछ चिट्ठियाँ और वर्दी घर पर बहुत दिनों तक रही। वह पता नहीं किस मोर्चे पर लड़ते हुए मारे गए। घर वालों ने बहुत सालों तक उनका इंतज़ार किया।‌ इस दौरान दादी पर बहुत कुछ गुज़री। एक दिन उनकी आँखें चलीं गईं।‌ एक अरसा गुज़र गया। वह नहीं आए।‌ उनके काग़ज़ात और‌ वर्दी को घर वालों ने अस्थियाँ समझकर गंगा में विसर्जित कर दिया। बहुत कम उम्र मिली उन्हें। मेरे पिता जब तक समझने लायक़ होते तब तक उन्होंने दुनिया छोड़ दी। मेरे देखने का तो कोई सवाल नहीं उठता।

उनकी बाक़ी उम्र मेरे आजी को मिल गई। वह सौ साल जीकर गईं। मेरे घर के पास ही किसी ज़माने में एक पोखर हुआ करता था। ऐसे ही तालाब गाँव के चारो ओर थे। यह तालाब मिट्टी के घरों को बनाने की प्रक्रिया में उग आए थे। कुछ गाँव के धनी तेली सेठ द्वारा खुदवाएँ गए थे।‌ मिट्टी के घरों को बनाने के लिए जितनी मिट्टी निकाली जाती उसमें एक तालाब का बन जाना स्वाभाविक था। हो सकता है कि यह तालाब भी घर बनाने के लिए मिट्टी निकालने के क्रम में ही बना हो। घर बहुत विशाल था। अगर इसे मिट्टी का महल कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसे ‘घरोही’ कहते थे। इसे बनाने वाले मेरे पुरखे ही थे। उन्होंने वास्तुशास्त्र का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था लेकिन वह मिट्टी के घरों को बनाते हुए किसी इंजीनियर से कम नहीं होते। इन घरों की बनावट प्रत्येक मौसम के अनुकूल होती। इन्हें देखकर उनके ज्ञान पर आश्चर्य होता है कि यह कारीगरी उन्होंने कहाँ सीखीं होगी। हो सकता है कि यह उनका परंपरागत पेशा रहा हो। फिर नाव और मछलियाँ ही उनकी पहचान के साथ क्यों चिपका दी गईं। यह घर उनकी सामूहिक क्रिया का नतीजा थे।

कुएँ तो वह ऐसे खोदते जैसे चूहे बिल खोदते हैं। उनका बनाया एक कुआँ आज अपनी अंतिम साँस गिन रहा है। शेष पहले ही ख़त्म हो गए। ऐसे घर गाँव में लगभग सभी के यहाँ थे। अनुमान लगाइए कि कितनी मिट्टी को खोदा गया होगा।‌ इस तालाब में इकट्ठा हुए पानी ने इनके जीवन को सिरजा। आहार के लिए सबसे जरूरी थीं मछलियाँ जो आसानी से यहाँ मिल जाती थीं। इतनी कि पूरा मुहल्ला मछलियों की गंध से महकता रहता। यह धीरे-धीरे अपनी पुनर्स्थिति में आने लगा जैसे वह घरों के बनने से पहले था। आज ग़ायब हो गया है। मैंने जब अपना होश सँभाला तब इसके अवशेष ही शेष थे। अब अवशेष भी नहीं हैं। इस तरह पानी हमारे जीवन से थोड़ा दूर हो गया तो मछलियाँ ज़्यादा दूर हो गई।

~

सरयू नदी हमारे गाँव से लगभग पंद्रह किमी दूर उत्तर की तरफ़‌ बहती है।‌ माता-पिता कई अवसरों पर यहाँ नहाने जाते। जाते तो कहते कि गंगा माई नहाने जा रहे हैं, ‌जबकि वह सरयू में नहाकर आते। सरयू माई और गंगा माई में कोई अंतर नहीं था दोनों के लिए। पूरा गाँव उन्हें गंगा माई ही कहता। मेरे पिता की आस्था सरयू नदी के लिए रही। वह कई बार अयोध्या सरयू में स्नान के लिए गए। माँ अभी भी गंगा नहाने हर साल इलाहाबाद आती हैं। वह कभी अयोध्या सरयू में नहाने नहीं गई और पिता कभी गंगा नहाने नहीं गए। दोनों अलग-अलग ही तीर्थ यात्रा करते रहे सिवाय पास बहती सरयू के। मैं आज भी‌ सरयू को गंगा माई ही कहता हूँ—यह जानते हुए भी कि गंगा माई इलाहाबाद में बहती हैं, जहाँ मैं पिछले कई सालों से रह रहा हूँ। आजी के नैहर से जब भी कोई आता, घर वाले कहते कि गंगा माई के उस पार से आए हैं। यात्रा का जैसा रोमांचक और मनोहारी वर्णन वह‌ करते उसे सुनकर मेरे शरीर में झुरझुरी दौड़ने लगती।‌ कार्तिक पूर्णिमा के दिन सरयू नदी के किनारे मेला लगता।‌ सब लोग उस दिन गंगा स्नान के लिए जाते। माँ-पिता भी जाते लेकिन हमें छोड़कर।‌

इसी दिन दीदी को तुलसी माई को जल चढ़ाते एक महीने पूरे हो जाते। आज उतरावन होता। दीदी पूरे कार्तिक सूर्य निकलने से पहले ही स्नान करके तुलसी माई को जल चढ़ाती। मैं बिस्तर में कंबल ओढ़े उन्हें बस टुकुर-टुकुर देखता रहता कि कैसे इतनी ठंड में वह‌ नहा लेती हैं। मुहल्ले की सभी लड़कियाँ यह करती। अंतिम दिन दीदी खीर और लप्सी बनातीं। यह खाना खाने को पूरे वर्ष में केवल दो बार मिलता।‌ दूसरी बार डीह बाबा को कराही चढ़ाने के सार्वजनिक उत्सव में। कोई मनौती होती तो तीसरी बार भी मिल जाता। लप्सी-पूड़ी खाने की ख़ुशी में गंगा माई के मेला न जा पाने का ग़म थोड़ा कम हो जाता। लेकिन फिर भी उस दिन मैं पूरे दिन बस इसी ख़याल में खोया रहता कि मैं कब गंगा माई‌ के मेले जाऊँगा। 

वह दिन आख़िर आ गया जब मैं पिता के साथ मेला गया।‌ इसकी एक झिलमिलाती स्मृति मेरे मानस पटल पर अभी भी अंकित है। उस समय मैं कोई आठ-नौ साल का था। पिता मुझे रिक्शे पर बैठाकर ले गए थे। मेला कम्हरिया घाट के पास लगा था।‌ एक बड़ा-सा आम का बाग़ था, जिसमें जगह-जगह दुकानें लगी हुई थी।‌ यहाँ आए सभी श्रद्धालु गंगा माई को कराही चढ़ा‌ रहे थे। ईंधन-लकड़ी जलाने के कारण पूरा मेला धुआँ-धुआँ हो गया था।‌ मेला बेतरतीब ढंग से लगा हुआ था। जिसको जहाँ जगह मिल गई वहीं उसने अपनी दुकान लगा रखी थी।‌ मेले में रोज़मर्रा के जीवन में आवश्यक वस्तुओं की भरमार थी।‌ महिलाओं के लिए ज़रूरी सामानों की उतनी ही सघनता थी जितनी धुएँ की। महिलाएँ और लड़कियाँ अपनी ज़रूरत के सामान या फेरीवालों से या मेले से ही ख़रीदती।‌ लड़कियों के लिए बाज़ार तब इतना सुप्राप्य नहीं था।‌ आँखें मिचमिचाने लगी थी मेरी धुएँ से।‌ मैं रोने लगा।‌ मुझे याद है फिर पिता मुझे रिक्शे के पास ले गए जो दूर खड़ा था। मेला तो मैंने देख लिया लेकिन गंगा माई दृष्टि से ओझल ही रही। घाट वहाँ से दूर था।

~

गंगा माई को पहली बार तब देखा जब आजी को अंतिम बार उनके नैहर ले जाया जा रहा था यानी उनकी अंतिम विदाई पर। नैहर मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आजी सरयू नदी के किनारे बसे एक गाँव की रहने वाली थीं।‌ अंतिम विदाई के लिए हम सरयू नदी के किनारे बलुआघाट गए थे।‌ जहाँ आजी का अंतिम संस्कार हुआ, वहाँ से उनके नैहर के गाँव की कुछ झोपड़ियाँ ध्यान से देखने पर दिखाई दे रही थी।‌ पहली बार इतनी विस्तृत रूप में फैली सरयू नदी को देखकर मैं हतप्रभ था। कितना लंबा-चौड़ा कछार था।

पहली बार जब सरयू के पानी को छुआ तो‌ लगा कि पैरों में कुछ महसूस हो रहा है। ठीक वही स्पर्श जो आजी के हाथों को‌ छूने पर लगता। एकदम ठंडा और मुलायम। हमने उनको जब देखा तब उनकी आँखों की रोशनी जा चुकी थी।‌ हम तो उन्हें पहचान लेते लेकिन वह हमें कैसे पहचानतीं? वह एक हाथ से हमारे हाथ को पकड़तीं और दूसरा चेहरा पर फिरातीं। इस तरह वह हमारे व्यवहार और बनावट से हमारी पहचान कर लेतीं। हम कभी-कभी उन्हें चिढ़ाने के लिए हाथ किसी और का और चेहरा किसी और का आगे कर देते। वह पहचान नहीं पाती और झुंझलाकर हाथ झटक देती और गालियाँ देती।

उनके हाथ बहुत मज़बूत थे। जब भी हमारा पेट ख़राब होता तो वह हमारा पेट सारती। उनके बूढ़े हाथों में इतनी ताक़त थी कि जब वह नाभि के पास दबाती तब लगता कि शरीर निचुड़कर नाभि में आ गया है। वह ख़ूब बतियाती थी हम सब से। काश मुझे याद होती उनकी बातें। हम सोचते थे कि वह जल्दी ही भगवान के पास चली जाएँगी इसलिए हमने एक नीम का पेड़ काटकर उसकी लकड़ियों को सुरक्षित रख लिया था। लेकिन वह तो ढीठ निकलीं। उसके बाद भी कई वर्षों तक जीती रहीं। लकड़ियाँ सड़कर गल गईं लेकिन आजी को कुछ नहीं हुआ। एक दिन ऐसा समय आया जब उन्होंने खाना छोड़ दिया। हम समझ गए कि वह जाने वाली हैं। उनकी साँस की रफ़्तार बढ़ गई। जो लोग भी वहाँ थे सभी ने उनके मुँह में गंगा जल डालना शुरू कर दिया। जैसे ही मैंने उनके मुँह में गंगा जल डाला—वह चल बसीं। रोना-धोना शुरू हो गया। पूरे गाँव को पता चल गया कि आजी चली गईं।

आजी भगवान के पास जा रही थीं और मैं पहली बार गंगा माई से मिल रहा था। बहुत भावुक दिन था वह।‌ इस भावुकता में ख़ुशी का भी मिश्रण घुला हुआ था।‌ आजी के जाने से सभी ख़ुश थे,‌ इसलिए कि वह शतक लगाकर बैटिंग कर रही थीं। लंबी पारी खेलने के कारण थक गई थीं। यमराज की एक फ़ुलटास गेंद पर बोल्ड हो गईं।‌ सब ख़ुश थे कि चलो पारी ख़त्म हुई‌। उनकी अंतिम यात्रा में बैंड-बाजा साथ-साथ बजता रहा। कितने ही धूमधाम से उनकी विदाई हुई। पूरे तेरह दिन घर पर उत्सव जैसा माहौल रहा। मैं दोहरा ख़ुश था। दोहरा इसलिए ख़ुश था कि गंगा माई को मैं पहली बार देख रहा था।‌

घाट पर पिता ने बताया कि वह दूर जो पेड़ दिखाई दे रहे हैं, वहीं मेरा ननिहाल है।‌ मन में तभी से एक इच्छा थी कि एक दिन इसी कछार में पैदल-पैदल चलते हुए आजी के नैहर जाऊँगा।‌ अब गाँव पास-पड़ोस में कोई जब भी कोई अंतिम यात्रा पर सरयू माई के पास जाता तो मैं भी माँ से अनुमति लेकर चला जाता। यही एक मौक़ा ही होता मेरे लिए कि मैं गंगा माई से मिल पाऊँ, उन्हें छू पाऊँ, उनके फैले विशाल विस्तार को नज़र भर देख पाऊँ। आजी के नैहर जाने का सपना अधूरा छोड़ मैं इलाहाबाद चला आया। यहाँ पहली बार गंगा नदी को जी भरके देखा। उस गंगा नदी को जो सही में गंगा नदी थी।

~

मैं एमए कर चुका था। पीएचडी में प्रवेश का परिणाम आया। मेरा चयन नहीं हुआ। मेरी उम्मीदें ध्वस्त हो गईं। जैसे लगा कि सबकुछ लुट गया। किसी और विश्वविद्यालय में मुझे प्रवेश का भरोसा नहीं था। मैं उस उदास शाम कहाँ जा सकता था? जहाँ जा सकता था वहीं गया। गंगा-यमुना माई के पास। संगम पर बैठे उन्हें निहारते हुए काफ़ी रात हो गई। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने फ़ेसबुक पर एक पोस्ट डाली। सुबह उस पर एक शख़्स की टिप्पणी देखी। लिखा था—“दुनिया बहुत बड़ी है। तुम परेशान न होओ।‌ कहीं-न-कहीं तुम्हारा प्रवेश हो जाएगा।” मैं जानबूझकर उनका नाम नहीं लूँगा। इससे मुझे बहुत संबल मिला।‌ लगा कि‌ किसी ने कंधे पर हाथ रखकर मुझे रोते हुए चुप करा दिया हो।‌ धीरे-धीरे मैं उन्हें जान गया और वह मुझे।

कुछ दिन बाद उन्होंने मुझे कॉल करके एक प्रस्ताव दिया, “क्या तुम एक पेपर लिख सकते हो अपने नदी-किनारे के गाँव पर? मैंने हाँ कह दिया लेकिन एक दिक़्क़त थी। मेरा गाँव नदी के किनारे न होकर थोड़ा दूर था। मैंने कहा, “क्या दूसरा गाँव चल जाएगा?” उन्होंने हाँ कह दिया। फिर क्या मेरी आँखें चमक उठीं। बचपन के एक ख़्वाब को पूरा करने का एक बहाना जो मिल गया। आँखों में आजी का नैहर तैरने लगा और सरयू का‌ विशाल कछार। कुछ सप्ताह बाद योजनाबद्ध तरीक़े से मैं आजी के नैहर के लिए निकला। साथ में भाई और भतीजा थे। हम मोटरसाइकिल से गए। सरयू के पीपा पुल से होकर हम कछार में घंटे भर का सफ़र तय करते हुए गाँव में पहुँचे।

रास्ता था नहीं। रास्ते के नाम पर चौड़ी-सी लकीर थी। कुवार के बाद सरयू सिमटकर अपने आगोश में आने लगती, तब लोग कछार में पैदल आने-जाने लगते। ‌पहला आदमी कछार में जिस लीक पर चलता, फिर उसी पर दूसरा-तीसरा-चौथा आदमी। इस तरह सैकड़ों लोग उससे आते-जाते और पगडंडी जैसा रास्ता वहाँ बन जाता। हम इसी पगडंडी से होकर गाँव पहुँचे। गाँव क्या था झोपड़ियों का ढेर था। सब तरफ़ झोपड़ियाँ ही‌ झोपड़ियाँ। हाँ कुछ पक्के मकान ज़रूर बनने शुरू हो गए थे।

आजी कहाँ पैदा हुई होंगी? इसकी कोई ठीक-ठीक पहचान करना मुश्किल था। गाँव कई बार सरयू की भेंट चढ़ चुका था।‌ बाढ़ जाने पर फिर थोड़ा हटकर दूसरी तरफ़ बस जाता। ऐसे में आजी के समय गाँव कहाँ रहा होगा अनुमान लगाना मुश्किल था। तब मैंने केदारनाथ सिंह की कविता ‘बाढ़ से घिरे हुए लोग’ नहीं पढ़ी थी। जब पढ़ी तो जान पाया कि आजी कैसे बाढ़ के दिनों में रहती रही होंगी अपने बचपन में।

~

हम पाँच दिन वहाँ रहे। मैंने अपने पेपर के लिए कई लोगों से बात की। गाँव घूमकर-घूमकर देखा। तब मुझे कोई शोध प्रविधि नहीं पता थीं।‌ मैंने बस जो समझ में आया, कर लिया। बाद में पता चला कि ये सब करने की व्यवस्थित प्रविधियाँ होती हैं। भाई मोटरसाइकिल लेकर वापस गाँव चला गया। बच गए मैं और गोलू। कछार में होते हुए हम पैदल ही वापस लौटे। कुआर के बाद ख़ाली पड़े कछार में गेहूँ के खेत लहलहा उठते हैं। धारा के पास या बीच-बीच में जहाँ टापू बन जाता है वहाँ तरबूज, खरबूजा, कांकड़‌ और तमाम तरह की सब्जियों के साथ पेय पदार्थ भी उगाया जाता।

बचपन में इसी कछार में शिवदास यादव नाम के प्रख्यात डकैत और जंगली जानवरों का बसेरा होता था। शिवदास यादव ग़रीब-ग़ुरबा के बीच बहुत लोकप्रिय थे। लोग उनके क़िस्से बड़े चाव से बताते कि शिवदास ने फलाना व्यापारी को कैसे लूटा और लूट का पैसा ग़रीबों में बाँट दिया या किसी लड़की की शादी में दे दिए और कैसे दबंग लोगों को वह दंडित करते थे। इसे सुन-सुनकर मेरे भी मन में सभी लोगों की तरह उनकी छवि ‘ग़रीबों के मसीहा’ के तौर पर बन चुकी थी। बाद में बसपा की सरकार में उनका एनकाउंटर हो गया। उस दिन सब लोग मातम में थे। मैं भी था, इसलिए कि सभी लोग थे।

मैं ठीक उतना ही दुःखी था जितना कि मेरे सुंदर भैया उस दिन दुःखी थे, जब फूलन देवी को मार दिया गया था। अगले दिन भैया अख़बार वाले से छपने वाले सभी अख़बारों को ख़रीद लाए थे। मैंने पहली बार फूलन देवी को इन्हीं अख़बारों में देखा था। भैया की आँखें भर आई थीं। वह उनकी अहमियत जानते थे। जानते थे कि उन्हें क्यों और किन लोगों ने मारा था। भैया केवटहिया के पहले परास्नातक थे। अगले दिन अख़बार में ख़बर छपी। आजमगढ़ वाले पृष्ठ पर रमाकांत यादव का वक्तव्य छपा था। शीर्षक था, “दिलों में हमेशा बसे रहेंगे शिवदास।” ख़ैर इस कहानी को यहीं छोड़ते हैं।  

हाँ तो हम कछार में चले जा रहे थे। कुछ दूर तक कच्चा रास्ता और फिर आगे पैरों से बनी पगडंडी। हमारे साथ में उस इलाक़े के रेशे-रेशे से परिचित तप्पे थे, जो मेरी आजी के नैहर वाले ख़ानदान के थे। उन्हीं के यहाँ हम गए थे। मैं उनका-अपना रिश्ता तय नहीं कर पा रहा हूँ। माँ से किसी दिन‌ पूछूँगा।‌ बिना उनके हमारी हिम्मत नहीं थी वहाँ से होकर गुज़रने की। वह रास्ते भर हमें तरह-तरह के क़िस्से और कहानियाँ सुनाते रहें। उन खेतों को दिखाते रहें जो उनके हिस्से में थे‌। दूर एक गाँव दिखाया जहाँ की हमारी एक भाभी हैं।‌ हम चलते-चलते आ पहुँचे गंगा के किनारे। यहाँ चलना मुश्किल था। हवाएँ बालू को उठाकर हमारे ऊपर फेंक रही थी।‌ धूप से बचने के लिए हम शाम को निकले थे। बालुओं के अंधड़ में चलते रहें।

उस दिन जैसा मनोहारी सूर्यास्त मैंने देखा वैसा शायद फिर कभी देखा हो।‌ जैसे-जैसे हम सरयू के किनारे पहुँच रहे थे वैसे-वैसे सूरज सरयू की बीच धारा की ओर जा रहा था।‌ उस पूरे कछार में जो एक मात्र कंक्रीट की बिल्डिंग थी‌, वह‌ थी बाढ़ नियंत्रण बोर्ड की। वह भी‌ पता नहीं कबसे मनुष्य के आने का इंतज़ार कर रही थी। हाँ यह ज़रूर था कि शराबियों का उसमें जमावड़ा रहता। अब आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि शराबी कहाँ से आ गए कछार में? भाई साहब यह जगह एक ही तरह के लोगों के लिए थी। वह थी शराबियों के लिए।‌ वह शराबी इसमें ज़्यादा रहते जो लाश फूँकने आए होते।‌ शराब की भट्ठियों के धुएँ दूर कछार में उठते हुए कभी भी देखे जा सकते थे।

अब हम धीरे-धीरे गोरखपुर जिले की सीमा से अंबेडकरनगर ज़िले की सीमा में प्रवेश करने वाले थे।‌ बीच में था तो केवल पीपा पुल। पीपा पुल के पास पहुँचे। एक चरवाहा अपनी कई भैंसों को नहला रहा था। पीपा पुल पर एक मछुआरा मछली मारने के लिए झिंगुर लेकर अपने आपको जाल फेंकने की स्थिति में ला रहा। हम अब एकदम क़रीब आ गए। अब भैंसे और जाल दोनों पानी में थे। पीपा पुल पर चढ़े। बग़ल में बच्चों की एक टोली पैसे खोज रही थी। इसे देखकर नागार्जुन की कविता याद आ गई—“देखना ओ गंगा मैया।” मैंने पूरे दृश्य का मन भर फ़ोटो खींचा। सूरज नदी में समा गया था।

भाई जयहिंद भी उस पार मोटरसाइकिल लेकर आ गया था। हम उस पार पहुँचे। घाट पर कुछ लोग नहा रहे थे‌। लिखना भूल गया कि नदी पर एक बड़े पुल का निर्माण हो रहा था जो आने वाले वर्षों में उसकी अभेद्यता को सुभेद्यता में परिवर्तित कर देने वाला था। हमने कुछ फोटो खींची। मोटरसाइकिल पर बैठे। गंगा माई को प्रणाम किया और निकल गए घर।‌ घर पहुँचकर फ़ेसबुक खोला। वहाँ पर कवि अखिलेश सिंह की सरयू नदी पर लिखी ताज़ातरीन कविता तैर रही थी। वाह आनंद ही आ गया। आज का दिन बन गया। देर किस बात की थी पीपा पुल पर ली गई एक फोटो लगाकर वह‌ कविता मैंने फ़ेसबुक पर डाल दी।

कहाँ से कहाँ खींच ले गया वृतांत को। हाँ तो हम यमुना वोट क्लब की सीढ़ियों पर बैठे थे। अब तक पानी हमारे पंजों वाला हिस्सा डुबा चुका था। गोलू को नैनी महेवा जाना था और मुझे अल्लापुर। गोलू को विदा कर मैं फिर वहीं बैठ गया। 

मुझे आज आजी और नदी में तैरती नावों और मछली मारते मल्लाहों में कोई अंतर नहीं दिखाई दे रहा था। नाव‌ और नदी में मेरी आजी के अवशेष घुले हुए थे जो सरयू के बलुआघाट से होते हुए छपरा में गंगा से मिलते हुए इलाहाबाद में यमुना तक आ पहुँचे थे। वही अवशेष हमारे शरीर में भी था और हमारे पैर नदी में।‌ हम सब आपस में मिलकर एक हो गए थे।‌ इस संगम को मैं आँखें बंद करके बड़ी देर तक निहारता रहा, जब तक सदियापुर की तरफ़ जाती नाव आँखों से ओझल नहीं हो गई।‌

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• मैंने Meta AI से पूछा : भगदड़ क्या है? मुझे उत्तर प्राप्त हुआ :  भगदड़ एक ऐसी स्थिति है, जब एक समूह में लोग अचानक और अनियंत्रित तरीक़े से भागने लगते हैं—अक्सर किसी ख़तरे या डर के कारण। यह अक्सर

07 फरवरी 2025

कभी न लौटने के लिए जाना

07 फरवरी 2025

कभी न लौटने के लिए जाना

6 अगस्त 2017 की शाम थी। मैं एमए में एडमिशन लेने के बाद एक शाम आपसे मिलने आपके घर पहुँचा था। अस्ल में मैं और पापा, एक ममेरे भाई (सुधाकर उपाध्याय) से मिलने के लिए वहाँ गए थे जो उन दिनों आपके साथ रहा कर

25 फरवरी 2025

आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ

25 फरवरी 2025

आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ

आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ, सच पूछिए तो अपनी किस्मत सँवार रहा हूँ। हुआ यूँ कि रिटायरमेंट के कुछ माह पहले से ही सहकर्मीगण आकर पूछने लगे—“रिटायरमेंट के बाद क्या प्लान है चतुर्वेदी जी?” “अभी तक

31 जनवरी 2025

शैलेंद्र और साहिर : जाने क्या बात थी...

31 जनवरी 2025

शैलेंद्र और साहिर : जाने क्या बात थी...

शैलेंद्र और साहिर लुधियानवी—हिंदी सिनेमा के दो ऐसे नाम, जिनकी लेखनी ने फ़िल्मी गीतों को साहित्यिक ऊँचाइयों पर पहुँचाया। उनकी क़लम से निकले अल्फ़ाज़ सिर्फ़ गीत नहीं, बल्कि ज़िंदगी का फ़लसफ़ा और समाज क

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