पिता के बारे में

पिता का जाना पिता के जाने जैसा ही होता है, जबकि यह पता होता है कि सभी को एक दिन जाना ही होता है फिर भी ख़ाली जगह भरने हम सब दौड़ते हैं—अपनी-अपनी जगहों को ख़ाली कर एक दूसरी ख़ाली जगह को देखने। वह जगह भरती नहीं, यह जानते हुए भी। 

पिता जाना भी चाहते थे। हम भी चाहते थे वह जाएँ। सभी चाहते थे कि वह जाएँ, फिर भी जाना ख़ाली कर देता है। सब चाहते थे मैं आऊँ। अकारण। पुत्र होना—यह भी क्या ही कारण है। मेरा आना आने जैसा भी नहीं। आने और जाने जैसा। उथले डबरे जैसा। बैठना, देखना, सामाजिक होना, खाना-पीना, बात करना... फिर लौट जाना। ख़ाली जगह लिए। भरा मन लिए।

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मृत्यु में कुछ भी नयापन नहीं रहा। बहुत साल पहले दादी मरी थी तो मैंने यह समझा था कि कोई मरता है तो लोग रोते हैं। मैं रोया नहीं था, क्योंकि मैं बहुत ख़ुश था कि दादी मर गई हैं। वह मेरी माँ को मारा करती थीं। मुझे ठीक-ठीक याद है कि मेरा मँझला भाई स्कूल आया था और मैं मैदान में खेल रहा था। खेल का पीरियड था। भाई ने मैदान में मुझे पकड़कर कहा, ‘‘घर चलो।’’ मैंने पूछा कि क्या हुआ। ‘‘दादी मर गई...’’ भाई का जवाब था। मैंने कहा कि तुम जाओ मैं इस पीरियड में खेल के आऊँगा। 

मुझे दादी से कोई सहानुभूति नहीं थी। घर आया तो सबसे पहले किचन में रखे अंगूर खाने लगा। माँ ने कहा कि अभी कुछ नहीं खाना है। मैंने भूख का हवाला दिया तो माँ ने कहा किसी को दिखाकर मत खाओ। मेरी कोई इच्छा नहीं थी दादी को अंतिम बार देखने की। उनका झुर्रीदार चेहरा मुझे कभी पसंद नहीं आया। हम कभी गाँव जाते तो वह मुझे अपने से चिपटाकर रोने लगतीं। वह मेरे लिए सबसे कठिन समय होता। मुझे उनकी झुर्रियों से घिन आती, जबकि मेरी नानी की झुर्रियाँ मुझे हमेशा पसंद रहीं। इसका कोई कारण मैं अब तक खोज नहीं पाया हूँ। 

मरते हुए दादी को शरीर में फफोले हो गए थे और उनसे पानी चूने लगा था। यह सब मैंने भाइयों से सुना था। मैं अस्पताल में कभी भी दादी को देखने नहीं गया। लाश जलने में समय लग रहा था। आम तौर पर ऐसे मौक़ों पर कुछ लोग होते हैं जो बड़े प्रैक्टिकल होते हैं। उनमें से ही किसी ने कही होगी यह बात जो मेरे ज़ेहन में अटक गई—शरीर गीला था न, इसलिए समय लग रहा है जलने में। मैं वहीं बालू में बैठा रेतघर बना रहा था। बाद में पता चला कि अंतिम यात्रा में आए अँग्रेज़ी के शिक्षक ने दूसरे दिन हमारी कक्षा में इस बात का ज़िक्र करते हुए कहा कि सुशील बहुत ही अजीब लड़का है। उसकी दादी जल रही थी और वो रेतघर बना रहा था। 

दुख दिखाना ज़रूरी होता है। समाज के लिए यह ज़रूरी है देखना कि कोई दुखी है। मुझे इस बात को लेकर स्पष्टता तब भी थी और आज भी है कि दादी के मरने से मैं ख़ुश हुआ था। घर में उनकी चारपाई हटने से एक जगह बनी थी। खेलने की जगह। मेरे पढ़ने की जगह। पिता को दुख हुआ होगा, लेकिन हमने उन्हें रोते हुए नहीं देखा। हो सकता है कि वह चुपके से रोए हों। हमारे सामने नहीं। उनके अंदर एक जगह ख़ाली हुई हो। 

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हमने अपने दादा को कभी नहीं देखा। पिता ने भी अपने पिता को कभी नहीं देखा। जब पिता गर्भ में थे तभी दादा गुज़र गए, ऐसा हम जानते हैं। मेरे पिता के लिए यह मुश्किल रहा होगा कि वह अपने बच्चों के लिए कैसे पिता हों। उनके पास कोई आदर्श नहीं था कि ऐसा होना चाहिए या नहीं होना चाहिए। अपनी पीढ़ी के पिताओं की तरह वह बच्चों से कम बात किया करते थे। बड़े बेटे से उन्हें अतिरिक्त स्नेह था जो वह दर्शाते नहीं थे और सबसे छोटे यानी मेरे प्रति प्रेम दिखाते दिखाते हुए वह रुक जाया करते थे। ऐसा मैंने बचपन में भी महसूस किया। मुझे उनके साथ चलना याद है, लेकिन वह कभी उँगली पकड़ने को नहीं कहते थे। इसका एक कारण यह भी था कि उन्हें अपने दोनों हाथ ख़ाली रखने होते थे, ताकि वह खैनी मल सकें। यह बात मैं बहुत सालों बाद समझ पाया। 

पिता हर साल वह वादा करते कि मैं फ़र्स्ट आऊँगा तो एक नई साइकिल ख़रीद देंगे, लेकिन यह कभी नहीं हो पाया। मैं फ़र्स्ट आता रहा और साइकिल के बदले मैंने हर साल एक डोसा और कोका कोला की बोतल पर संतोष किया जिसकी कुल क़ीमत छह रुपए से बढ़कर उन सालों में दस रुपए तक हुई। नवीं क्लास में आख़िरी बार राकेश होटल में मसाला डोसा और कोका कोला पीते हुए मैं समझ पाया कि जब पिता के पास अपने लिए ही साइकिल ख़रीदने को पैसे नहीं हैं तो वह मेरे लिए कैसे साइकिल ख़रीद पाते! उस दिन पिता मेरी टेबल पर नहीं बैठे थे। यह भी पहली बार था। वह समझ चुके थे कि मैं बड़ा हो गया हूँ। डोसा ख़त्म हो चुका था। पापा ने टेबल पर आकर खैनी मलते हुए पूछा, ‘‘रसगुल्ला चलेगा एक।’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं, हो गया।’’ 

मैं उस दिन अकेला घर लौटा। पापा रुक गए थे—किसी से बात करने। मैंने लौटते हुए तय किया था कि अब डोसा और कोका कोला की माँग नहीं करूँगा। आगे के सालों मैं जब नौकरी करने लगा और अपने पैरों पर खड़ा हो गया तो अक्सर पिता को चिढ़ाया करता कि आपने कभी मेरे लिए साइकिल नहीं ख़रीदी। वह कुछ नहीं बोलते। मैं उन्हें दुख नहीं देना चाहता था, लेकिन मेरे पास उनसे कनेक्ट करने के लिए ऐसे ही सहारे बचे थे। मैं एक ऐसी दुनिया में था जिसके बारे में पिता को कुछ भी पता नहीं था। 

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मैं नौकरी में आया और उसके कुछ सालों बाद ही पिता ने तय किया कि अब वह नौकरी नहीं करेंगे। उन्होंने समय से पहले रिटायरमेंट लिया और गाँव चले गए। एक गाँव जहाँ उन्हें किसी ने नहीं स्वीकारा। यह बात समझने में उन्हें बीस साल लगे कि गाँव उनके लिए नहीं रह गया है। गाँव की इस नई ज़िंदगी में मैंने बहुत धीमे-धीमे प्रवेश किया। मैं गाँव से अधिक अपने पिता से जुड़ना चाहता था। मैंने उन्हें चुप होते हुए देखा था। मैं चाहता था कि वह मुझसे बात करें। हौले-हौले उन्होंने पहली बार कहा कि उनके जूते फट गए हैं। महँगी दुकानों के जूतों को रिजेक्ट करते हुए उन्होंने आख़िर में कपड़े वाला एक जोड़ी जूता लिया था और कहा, ‘‘यह एकदम ठीक है।’’ मैंने तब ध्यान नहीं दिया और मुझे लगा कि वह पैसों के कारण क़ीमती जूते नहीं ले रहे हैं। मैंने माँ से पूछा तो वह बोलीं, ‘‘उनकी उँगलियाँ देखो। अँगूठे के पास हड्डी निकली हुई है। चमड़े के जूते में उसमें दर्द होता है, इसलिए वह कपड़े के जूते ही पसंद करते हैं।’’ मैंने ध्यान से अपने पिता के पाँव तब देखे। उन्होंने जीवन भर कंपनी में मिलने वाले घटिया चमड़े के जूते पहने थे। कंपनी साल में दो जोड़ी जूते दिया करती थी। वह एक जोड़ी जूता बचाकर रखते और एक जोड़ी जूता पहनकर काम करने जाते। किसी के यहाँ समारोह में जाना हो या फिर बाहर तो बचाकर रखा जोड़ी-जूता पहन लेते। बाद में जब मँझले भाई का पैर उनके बराबर का होने लगा तो नए जूतों पर भाई ने क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया। तब से पिता साल में एक जोड़ी जूतों से ही काम चलाते या फिर हवाई चप्पल। 

इन्हीं दिनों में मैंने नोटिस किया कि पिता की छाती पर एक भी बाल नहीं हैं और न ही उनके सिर का एक भी बाल सफ़ेद ही हुआ है। पिता कभी इन बातों का जवाब नहीं दिया करते थे। उनके पास सवालों से मुँह फेरने का स्वाभाविक गुण था। एक ही सवाल बार-बार करने पर वह माँ का मुँह ताकने लगते तो माँ जवाब दे देती, वेल्डिंग का काम करते थे न तो चिंगारी पड़ती थी तो उसी में छाती के बाल सब जल जाते थे। पहले बाल थे फिर सब जल गए तो निकले ही नहीं। स्मृतियाँ ऐसे ही उभरकर आती हैं। माँ ने जब यह कथन पूरा किया तो मेरे सामने पिता की ख़ाकी शर्ट और गंजी के कई छोटे-छोटे छेद उभर आए। मुझे ध्यान आया कि पिता कई-कई महीनों तक चिथड़ों जैसी गंजी पहनकर ही जाते, क्योंकि उन्हें पता होता था कि अच्छी गंजी पहनने पर वह भी चिंगारियों से जल जाएगी। 

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पिता पिछले कुछ सालों में अक्सर बीमार पड़ जाते। दवा के बाद ठीक हो जाते, लेकिन कमज़ोर होते जा रहे थे। छह महीने पहले उनसे मिला तो वह लाठी के सहारे चल पा रहे थे और बैठ भी पा रहे थे। यह शरीर के बाएँ हिस्से में लकवे के अटैक के बाद की हालत थी। वह ख़ुश थे कि पोते को देख पा रहे हैं। पाँच-छह दिन के बाद हम लौट गए और वह बिस्तर पर पड़े तो फिर उठे नहीं। चार-पाँच महीने तक बिस्तर पर ही रहे। डॉक्टरों ने कहा कि उम्र है और कुछ नहीं। वह अक्सर रातों को चिल्लाते और कहते कि दर्द हो रहा है। डॉक्टर के पास दुबारा जाने से उन्होंने मना कर दिया था। 

वह फ़ोन पर पहले भी बात नहीं करते थे और बिस्तर पर आ जाने के बाद तो उनकी आवाज़ गुम हो गई थी। उस दिन मैंने भाई से पूछा था कि और कितने दिन। उसने कहा, ‘‘दो-तीन दिन बहुत से बहुत।’’ उस रात मुझे नींद नहीं आई। मैं जगा ही हुआ था तो मैसेज आया, ‘‘पापा नहीं रहे।’’ मैं जाना नहीं चाहता था। मैंने माँ को मना लिया था कि मेरे जाने में पैसे बहुत ख़र्च होंगे। लेकिन फिर पता नहीं क्यों मुझसे रहा नहीं गया। मेरे जाने से कुछ बदला नहीं। मैंने कुछ पाया भी नहीं। जब तक गाँव पहुँचा अंतिम संस्कार को भी चार दिन बीत चुके थे। एक कमरा दान के सामान से और दूसरा कमरा भोज के सामान से भरा हुआ था। जिस बरामदे में पापा छह महीने तक बिस्तर पर रहे, वह बिस्तर भी हटाया जा चुका था। वह कहीं नहीं थे—न शरीर में, न उस घर की स्मृतियों में। 

मैं भी कहाँ वहाँ था। जेट लैग, किताबें, तनाव, नींद और एक ऐसा दुख जिसे मैं समझ तक नहीं पा रहा था; उन सबके पीछे झूल रहा था। मुझे पता था कि पिता को जाना ही है। हमने कई बार इस बारे में बात की थी कि पिता को इस दर्द से मुक्ति मिले तो बेहतर है। मुक्ति मिल गई थी। मैं नल पर ब्रश करते हुए सोच रहा था—अभी पापा होते तो कहते, देखो बाबू ने मुँह धो लिया तो नाश्ता लगा दो। बाद के दिनों में वो मेरे खाने का बहुत ख़याल रखते, क्योंकि मैं एक बार गाँव में बीमार पड़ गया था। श्राद्ध कर्म के मंत्रों में, मृत्यु भोज की पंगत में, गाँव के लोगों की सांत्वनाओं में कहीं भी पिता नहीं थे। सामाजिकता थी। एकाध वाक्य बार-बार दोहराए जा रहे थे—समाज को लेकर चलना है। यह वह समाज था जिसने मेरे पिता को कभी अपनाया नहीं था। हो सकता है कि गाँव की सामाजिक संरचना में फिट होने के लिए जो चालाकी चाहिए थी, वह मेरे पिता में नहीं थी और शायद वह होनी चाहिए थी। वह अपनी छोटी-छोटी ज़मीनों पर रिश्तेदारों और गाँव वालों के क़ब्ज़ों से परेशान थे। वह सबको सबक़ सिखाना चाहते थे, लेकिन न तो उनके पास शारीरिक ताक़त बची थी और न ही कोई बेटा उनकी तरफ़ से लड़ना चाहता था। मैं उन्हें समझाता कि ज़मीनें इतनी कम हैं, इसके लिए क्यों लड़ना। दान कर दीजिए। कोई आएगा नहीं। इस बात पर वह कहीं गुम हो जाया करते। उन्हें लगता कि हममें से कोई गाँव लौटेगा, डीह पर रहेगा। ज़मीन को लेकर उनका यह लगाव मैं आज भी नहीं समझ पाया हूँ। 

दो साल पहले जब ज़मीन के झगड़ों को सुलझाने के लिए गाँव गया था तो मैंने पहली बार अपनी ज़मीनें देखी थीं। छोटे-छोटे तीन चार टुकड़े। एक में आम और बाँस के पेड़ लगे थे जिसके तीन हिस्से होने थे। बाकी एक छोटा टुकड़ा माँ के नाम पर था जिसे मैं बेचकर पैसे बैंक में रखने की फ़िराक़ में था ताकि वक़्त-बेवक़्त पैसे काम आएँ—मां-पिता के। 

एक और ज़मीन थी जो साल में चार महीने पानी में डूबी रहती थी। उसे भी बेचने की योजना के साथ मैं गया था। दोनों ज़मीनें ख़रीदने के लिए लोग थे। इनमें से एक ज़मीन पर एक रिश्तेदार ने अपना दावा करते हुए बाँस गाड़ दिया था। मैंने वह क़ब्ज़ा हटवाया और ज़मीन का सौदा कर दिया। पिता को दुख हुआ होगा, क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि ज़मीन बेची जाए। मैं जब ज़मीन बेचने की बात पक्की कर रहा था—वह बरामदे में, जहाँ हमेशा बैठे रहते थे, अचानक खड़े हो गए और शून्य में देखने लगे। मुझे अटपटा लगा था और ख़रीदार के जाने के बाद मैंने पूछा था, ‘‘पापा कोई बात है क्या?’’ तो वो बहुत देर के बाद बोले, ‘‘ज़मीन नहीं बेचना चाहिए। मैंने माँ की तरफ़ बेबस नज़रों से देखा था। अगर ज़मीनें न बेची जाएँ तो लोग क़ब्ज़ा कर रहे थे। पापा अपने मन में ही कुछ-कुछ बुदबुदा रहे थे। उन्होंने फिर कभी ज़मीन की बात नहीं की। उनकी कमज़ोरी बढ़ गई थी। वह जल्दी-जल्दी बीमार होने लगे थे उसके बाद। जीने की उनकी लालसा ख़त्म होने लगी थी शायद। 

अब पिता नहीं हैं। उनकी स्मृतियाँ भी टूटी-फूटी हैं। बहुत याद करने पर एक तस्वीर बनती है। मैं धीरे-धीरे उनका एक ख़ाका खींचता हूँ जो मेरी पुरानी स्मृतियों और पिछले दस सालों में लगातार उनसे पूछे गए सवालों के जवाबों पर आधारित है। जवाब जिनकी पुष्टि नहीं हो सकती। जवाब जिनके बारे में पिता ख़ुद भी सुनिश्चित नहीं थे, जैसे उन्हें अपना जन्मदिन और साल तक पता नहीं था। उन्हें ठीक-ठीक याद नहीं था कि उन्होंने गाँव कब छोड़ा। अट्ठावन-साठ में गाँव से भागे थे। यह उनका चिरपरिचित जवाब था। फिर जादूगोड़ा बासठ में आए। परमानेंट हुए इकहत्तर में। छिहत्तर में जेल गए इंदिरा गांधी वाले में। यहाँ उनका तात्पर्य इमरजेंसी से होता। इंदिरा गांधी से वह नाराज़ दिखा करते थे। हालाँकि सालों बाद जब वह दिल्ली आए तो उन्होंने एकमात्र जगह देखने की ख़्वाहिश रखी थी, वह था शहीद स्थल जहाँ इंदिरा गांधी को उनके अंगरक्षकों ने गोली मारी थी। 

मैंने पूछा था कि आप तो शायद इंदिरा गांधी को पसंद नहीं करते थे। पिता ने कहा था कि उससे क्या होता है। वो बड़ी लीडर थी। संभवतः उनके जीवन की यह सबसे बड़ी राजनीतिक घटना थी जिसने उन्हें अभिभूत किया हो। मैं उन्हें ले गया था और वहाँ उन्होंने ध्यान से सब कुछ देखा और शायद अपनी स्मृति से पूरी घटना और उस जगह को जोड़ने की कोशिश की। कहा कुछ नहीं उन्होंने। जाते-जाते भी उन्होंने कोई इच्छा नहीं जताई। बार-बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं कहते। बस इतना कि हो गया। बहुत कष्ट होता है, दर्द होता है हाथ-पैर में। अपने अंतिम दिनों में पिता ने कई बार अपनी माँ को याद किया। ऐसा मेरी माँ बताती है। जीवन का एक चक्र पूरा हुआ। मैं बस इतना ही समझ पाया।

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