जौनपुर भड़ैंती उर्फ़ नक़ल : एक ख़त्म होती नाट्य-विधा

कुछ वर्ष पूर्व तक पूर्वांचल के देहातों-क़स्बों-शहरों की दीवारों पर हिंदुस्तानी, अवधी या भोजपुरी में लिखे सूचना-पट्ट इस तरह के होते थे—कल्लू नक़्क़ाल, बिस्मिल्लाह भाँड, रमपत हरामी मंडली इत्यादि... 

किसी भाँड की नक़ल या नाच की शुरुआत घोड़ों के छूटने से हुआ करती थी। चूड़ीदार पाजामा, मलमल का कुर्ता, रंगीन और साफ़ कमर में अँगोछा बाँधे आधा दर्जन से अधिक भाँड लतीफ़ेबाज़ी के माध्यम से नक़्क़ाली का कमाल पेश करते थे। फिर होता था गानों के साथ लौंडों का तखततोड़ नाच। बीच-बीच में हास्य-व्यंग्य से भरपूर छोटे-छोटे प्रहसन भी अभिनीत किए जाते थे। 

आज जब भड़ैंती के नाम पर फ़िल्मी घुसपैठ और उसका फूहड़ स्थानापन्न ‘आर्केस्ट्रा' देखता हूँ, तो अतीतकालीन भड़ैंती की याद बरबस ताज़ा हो जाती है। निश्चित ही भड़ैंती की विशिष्टता बेमिसाल थी—गीत, नृत्य और नाट्य का अनूठा सम्मिश्रण। हास्य व्यंग्य का बहुरंगा इंद्रधनुष जो मनोरंजन से तो भरपूर होता ही था; कला की दृष्टि से भी सर्वग्राही और उत्कृष्ट स्तर का था।

भड़ैंती का आयाम बहुत प्राचीन न होने के बावजूद अल्प समय में ही काफ़ी लोकप्रिय हुआ। शाहों, सुल्तानों और नवाबों के दरबार में इसका जन्म हुआ और कालांतर में इसकी उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होती चली गई। लतीफ़ेबाज़ी पर आधारित नक़ल का यह मज़ाक़िया ढंग अपनी कुछ विशेषताओं के कारण हरमों और दरबारों से निकलकर ठेठ गाँव के क्षेत्रीय लहजों और भाषाओं में अभिव्यक्ति पाने लगा।

सभ्यता, संस्कृति, धर्म और भाषा की भिन्नता के कारण मुसलमान शासकों की कलात्मक अभिरुचि भी थोड़ी भिन्न थी। अतः उनकी रुचि के अनुसार भारतीय नृत्य, संगीत और नाटक आदि में मिश्रण करके परिवर्तन किए गए और इसी के परिणामस्वरूप ख़याल, इश्क़िया क़वाली, नक़्क़ाली आदि का जन्म हुआ। 

नक़्क़ाली उर्फ़ भड़ैंती भी देशी विदूषक और बहुरूपिया शैली का बदला हुआ रूप मात्र है। सुल्तानों और नवाबों के मनोरंजन के लिए हास्याभिनय को उर्दूदानों के लतीफ़ों आदि की मिलावट से नई शक्ल दी गई।

नात, मुजरा, लतीफ़ेबाज़ी, क़िस्सागोई आदि मुसलमान शासकों की परंपरागत चीज़ें थीं; लेकिन इन्हीं की ओट में आशिक़-मिजाज़ी और लौंडों का शग़ल भी उनके ज़ेहन से चिपका हुआ था। वैसे मज़हबी तौर पर ये दोनों चीज़ें जायज़ नहीं मानी जाती थीं। इसके बावजूद मुस्लिम शासनकाल में इश्क़िया क़लाम और ख़ूबसूरत लौंडों का हमेशा ज़ोर रहा। बहरहाल, इश्क़िया क़लाम, लतीफ़ेबाज़ी, क़िस्सागोई, लौंडे की ख़ूबसूरती और परंपरागत भारतीय हास्याभिनय को मिलाकर नक़्क़ाली उर्फ़ भड़ैंती ईजाद की गई। 

भड़ैंती को भी भारतीय जनता ने—ख़ासतौर से उत्तर भारत के हिंदी भाषी क्षेत्रों में—स्वीकार कर लिया। इसे दोग़ली-नस्ल की अन्य दरबारी कलाओं की अपेक्षा अधिक प्रचार-प्रसार भी मिला। कारण था—भड़ैंती का सहज, अशास्त्रीय और हास्य-संगीतप्रधान होना।

भड़ैती के प्रचलन से विदूषकों और बहुरूपियों की रोज़ी मारी गई। मुजरा करने वाली तवायफ़ों के व्यवसाय पर भी असर पड़ा। कालांतर में विदूषकों, बहुरूपियों आदि ने भी भड़ैती को अपना लिया; लेकिन तवायफ़ें भड़ैंती से कभी समझौता नहीं कर सकीं। उनका पहले जैसा विरोध आज भी क़ायम है। कहा जाता है कि भाँडों और तवायफ़ों में हमेशा बैर-भाव रहा है, इसी नाते मौक़ा मिलने पर दोनों एक-दूसरे पर चोट करने से नहीं चूकते। 

इस संबंध में एक क़िस्सा काफ़ी मशहूर है : 

पूर्वांचल की एक तवायफ़ जो कि काफ़ी प्रसिद्ध थीं और भाँड-विरोधी आंदोलन की अगुआई भी कर चुकी थीं। जब बूढ़ी हो गईं तो परलोक सुधारने के विचार से काशी चली गईं। गुरु-दीक्षा के पश्चात् उन्होंने ब्रह्मभोज का आयोजन किया। उन्हें विश्वास नहीं हो पा रहा था कि ब्राह्मण वेश्या का अन्न ग्रहण करेंगे, लेकिन उनकी आशा के विपरीत पर्याप्त ब्राह्मण भोजन के लिए पधारे। 

पीली धोती, पीला जनेऊ और पीला गमछाधारी द्विज-मंडली को देखकर वह निहाल हो गईं। ख़ैर, ब्राह्मणों ने भोजन किया। वेश्या भी अपने अनुष्ठान की पूर्ति देखकर गदगद हो गईं और इसी के परिणामस्वरूप नाचकर गाने लगीं—

...कृपा हुई गुरुदेव की पूर्ण हुआ सब काज।
ब्राह्मण ने भोजन किया मुक्त हुई मैं आज।
मैं तर गई रे।
देखो, ब्राह्मण खिलाके मैं तर गई रे...

सुनना था कि ब्राह्मणों का मुखिया चीख उठा—

...ओ हरजाई वेश्या, मत कर तू पाखंड।
ब्राह्मण तो आए नहीं हम हैं नकली भंड।

फिर गमछा ओढ़कर ठुमका लगाते हुए टेक की पैरोडी कर दी—

...तू फँस गई रे,
नक़ली ब्राह्मण जिमा के तू फँस गई रे...

बेचारी वेश्या भाँडों की धृष्टता देखकर हतप्रभ रह गई और भाँड ठहाका लगाकर नौ-दो ग्यारह हो गए।

यह सच भी है कि भड़ैंती का आदि स्वरूप अत्यंत ही सतही, भद्दा, मसख़रा और अश्लील था; इसीलिए भड़ैंती का दर्शक वर्ग पुरुषों तक ही सीमित रहा। सामूहिक स्तर पर इसे अभिनय की गरिमा से गौरवान्वित भी नहीं किया गया, वरन् नक़्क़ाली की संज्ञा प्रदान की गई। नाच के रूप में मसख़रों और नारी वेशधारी हिजड़ों का गिरोह मंच पर आता था। हिजड़े ढोल, मजीरे और सारंगी की ताल पर ग़ज़ल और क़वालियाँ पेश करते थे। मसख़रे ड्योढ़ी कहते थे। इसके अलावा बीच-बीच में लतीफ़ेबाज़ी के साथ नक़ल करके दर्शकों को हँसाते भी थे। 

कुल मिलाकर नाच के नाम पर बेहद ही फूहड़, वीभत्स और अश्लील दृश्य सामने आता था। अरबी, फ़ारसी से लदी भाषा भी कम ही लोगों के पल्ले पड़ पाती थी, लेकिन नक़ल-गत सहजता, हास्य और शृंगार की रोचकता के कारण दर्शकों की दिलचस्पी बनी रहती थी।

जो प्रिय लगता है उसके लिए प्रकारांतर से प्रयत्न भी किया जाता है। लोगों को शाही भड़ैंती मज़ेदार लगी तो उसे पा लेने का प्रयास भी किया गया और इसी के परिणाम स्वरूप भड़ैंती उर्दूदानी के सीमित दायरे से निकलकर लोक-मानस के समुद्र से जुड़ गई। लेकिन स्वभावतः प्रसार और विकास के साथ ही इसके शाही स्वरूप में परिवर्तन-संशोधन भी होता रहा।

अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लोक-नृत्यों एवं नाटकों में भड़ैंती को स्थिति और सुविधा के अनुसार आंशिक रूप में ही ग्रहण किया गया, लेकिन जौनपुरी शैली में इसके सम्यक शाही स्वरूप की बानगी मिलती है। 

हुआ यों कि शाही भड़ैंती के सभी अंगों को जौनपुरी भाषा, सभ्यता, संस्कृति और परंपरा के अनुसार बदलकर लोकोपयोगी और लोकधर्मी बना लिया गया। साथ ही उसके कलात्मक पक्ष को भी निखारा-सँवारा गया।

यों तो जौनपुरी भड़ैंती के प्रचार-प्रसार के सिलसिले में कई उस्तादों और मंडलियों का नाम लिया जा सकता है; लेकिन जौनपुरी शैली को विशिष्ट, कलात्मक लोकोपयोगी और लोकधर्मी बनाने का श्रेय गौरानिवासी सोचन उस्ताद को ही दिया जाता है। 

सोचन क़ौम के मुसलमान थे और पेशे से हक़ीम। लोकगीत, संगीत और नाट्य में उनकी विशेष रुचि थी। इसके अलावा वह उर्दू के भी माहिर थे। अपनी कलात्मक अभिरुचि और शौक़ के कारण ही उन्होंने भड़ैंती का सृजन-संचयन किया। सोचन ने जौनपुरी शैली का सृजन बेहद ही सूझ-बूझ से किया, वर्ना जौनपुरी क्षेत्र में भड़ैंती के आयाम को सफलता न मिल पाती।

जौनपुर की स्थिति विचित्र है। मुख्य शहर की भाषा क़स्बाई उर्दू है। शहर का दक्षिणी, पूर्वी क्षेत्र भोजपुरी है। पश्चिम उत्तर में अवधी बोली जाती है। काशी और प्रयाग के समीपवर्ती होने के कारण शास्त्रीयता से भी पर्याप्त प्रभावित है। ऐसी स्थिति में वहाँ भड़ैंती का सफल होना असंभव जैसा था। लोकपक्ष और शास्त्रीयता के सम्मिश्रण ने भड़ैंती को नया रूप प्रदान किया। इसी वजह से वह विशिष्ट और लोकप्रिय बन सकी।

जौनपुरी मंडली में मुख्यतया चार अंग परिलक्षित होते हैं—घोड़ाछूट, लोकगीत, लोकनृत्य और लघुनाटिकाएँ। 

घोड़ाछूट एक प्रकार का पूर्वरंग अथवा पूर्वाभाष है, शास्त्रीय नाटकों में जिस प्रकार सूत्रधार अथवा नट-नटी पूर्वाभाष प्रस्तुत करते थे, उसी तरह भाँड घोडों के माध्यम से नाच में अभिनीत की जाने वाली नाटिकाओं की सूचना हास्य व्यंग्य द्वारा प्रदान करते थे। इस प्रकार सोचन ने व्यंग्य का पुट देकर भड़ैंती के हास्य पक्ष, नाटक के शास्त्रीय विधान और उर्दू की लतीफ़ेबाज़ी को एकाकार कर दिया।

घोड़ाछूट को भड़ैंती और व्यंग्य की दृष्टि से एक अनूठी सूझ माना जा सकता है। नाच के आरंभ में घोड़े की तरह भाँडों का उछलना, कूदना और हिनहिनाना हास्य की दृष्टि से तो उत्तम था ही, लतीफ़ेबाज़ी से समाज की कुरीतियों पर करारी चोट भी की जाती थी। इसी के साथ ही दर्शकों को लघु नाटिकाओं, प्रहसनों की सूचना भी मिल जाती थी।

पर्दा उठते ही कूदते-हिनहिनाते भाँड मंच पर प्रवेश करते थे। फिर उन्हीं में से एक विशेष धमाचौकड़ी करने लगता था। शेष भाँड एक-दूसरे की पीछे से कमर पकड़ कर घोड़े को संभालते थे। इसके बाद अगला घोड़ा स्थिर होकर लतीफ़ेबाज़ी पर उतर आता था और इस तरह की कोई चीज़ प्रस्तुत करता था—

मत पूछिए हुज़ूर मेरे घोड़े का कुछ हवाल,
दोगली नस्ल का बछेड़ा है बेमिसाल।
ऊपर से साहब है, भीतर से हिंदोस्तानी,
हिनहिनाकर इंग्लिस में माँगता है पानी।
मकई की रोटी से पीता है सूप,
धोती पर हैट से बचाता है धूप।
औरों को देखकर बेहद गुर्राता है,
फ़क़त अँग्रेज़ों के आगे दुम हिलाता है।

इसी बीच कोई भाँड बोल पड़ता था—

यह घोड़ा नहीं, हिंदुस्तानी साहब है...

शेष भाँड हिनहिनाना शुरू कर देते थे। फिर कोई दूसरा भाँड मचलकर सामने आ जाता था। फिर सारे भाँड पंक्तिबद्ध होकर उसे सँभालते थे। कुछ देर बाद वह भी लतीफ़ा शुरू कर देता था—

जनाब, यह घोड़ा नहीं घोड़ी है,
शहर ख़ास-चौक की बछेड़ी है।
रईस को खाती है, मुजरा हिनहिनाती है,
तबले की चोट पर घूघर बजाती है।
खिड़की पर बैठकर चलाती है जादू,
मुहब्बत के झूठे बहाती है आँसू।
लूटती है माल और बनाती है उल्लू
मरता है बे-मौत आशिक़ निठल्लू।।

फिर कोई भाँड कहता है—

यह घोड़ी नहीं, रंडी है। 

शेष भाँड हिनहिनाने लगते हैं। फिर कोई तीसरा भाँड उछलकर आगे आता था और लतीफ़ा कहता था—

...हुज़ूर यह टटुआ अड़ियल है कुछ अजीब,
आदमी और जानवर के दरम्यान की है चीज़।
अपनी औलाद को नीलाम कराता है,
चाँदी के सिक्कों की बोली लगवाता है,
ख़ूब माल मिलने पर ख़ामोश व्याह लाता है,
वर्ना कम होने पर काटता-गुर्राता है।

फिर कोई भाँड बोल उठता था—

यह घोड़ा नहीं समधी है

इसी प्रकार बारी-बारी से सभी भाँड घोड़ा छोड़कर लतीफ़ा कहते थे। इसके बाद शुरू हो जाता था लौंडे का तखततोड़ नाच। 

सोचन ने लोकनृत्य और लोकगीत का समावेश कर मंहंती को लोकधर्मी स्वरूप्र प्रदान किया। उन्होंने उसी लोक-धुन और नृत्य को चुना, जो कि अवधी भोजपुरी दोनों क्षेत्रों में धड़ल्ले से चलते थे और भड़ैंती की दृष्टि से भी उपयुक्त थे। 

अवधी, भोजपुरी दोनों के लोकगीतों में आमतौर पर चलत द्रुत होती है। द्रुत की स्थिति में ही गीत, संगीत, नृत्य का चर्मोत्कर्ष हो पाता है और इसी दशा में दर्शक श्रोता को आनंद विशेष की प्राप्ति भी होती है। सोचन ने भड़ैंती के लिए द्रुत पक्ष का ही संचयन किया।

वैसे तो जौनपुरी भड़ैंती में अवधी-भोजपुरी की लगभग सभी प्रचलित लोक-धुनों का प्रयोग किया जाता है, लेकिन ‘चइता’ सोचन उस्ताद को विशेष प्रिय था। 

चइता अवधी-भोजपुरी दोनों की प्रसिद्ध और प्रिय लोक-धुन है। इसका द्रुत बिलंब दोनों पक्ष प्रभावशाली हैं। आमतौर से इस धुन में तीस से बत्तीस मात्राएँ होती हैं। चलत अर्थात् द्रुत की स्थिति में छंद के उत्तरार्ध की दस मात्राओं को छोड़कर गाया जाता है। सोचन ने चइता के अंतरे को उसके मूल रूप में ही स्वीकार किया, लेकिन मुखड़े और सम की टेक में उसके द्रुत पक्ष को ही रखा। जैसे—

हो भोले बाबा बसो मोरी नगरी।
अछत-धतूर बेल की पाती,
देबै भंग भरी गगरी।
हो भोले बाबा बसो मोरी नगरी।।

अथवा
 
...सोचन कहत कंधाई बड़ा रगरी।
दधि मोरी खाई मटुकी ढरकारी,
अउरु फोर दई गगरी,
सोचन कहत कंधाई बड़ा रगरी।।

नृत्य के संदर्भों में सोचन को भी भड़ैंती के लिए स्त्री-वर्ग का सहयोग नहीं मिला या उनसे जुडने की कोई ख़ास कोशिश भी नहीं की गई। विवशतः उन्हें किशोर वय के लड़कों को शिक्षित करना पड़ा।

वाद्य के रूप में सोचन ने मात्र ढोल और टुनटुनियाँ का प्रयोग किया। ये दोनों सर्व-सुलभ होने के अलावा पूर्वांचल में पहले से प्रचलित भी थे।

सोचन ने चइता के द्रुत पक्ष में ही तत्कालीन लोकगीत में वर्णित सभी विषयों का सृजन किया। जैसे मांगलिक, शृंगार, भजन आदि। विप्रलंभ शृंगार की बानगी देखिए—

लागि जइहें बिरही नजरिया हो रामा।
फागुन मास पिया घर नाहीं,
बैरन लागे सेजरिया हो रामा,
लागि जइहें विरही नजरिया हो रामा।।

सोचन के शब्दों में तुलसी और कबीर को देखिए—

...माया लूटे लगली बजारिया हो रामा।
कहत कबीर सुना भाई साधू
बाउर भइल सगरी नगरिया हो रामा।
माया लूटे लगली बजारिया हो रामा।।
 
...करा नर हरि की भजनियां हो रामा।
तुलसीदास आस रघुबर की,
तरि जइहैं सगरी परनियां हो रामा।
करा नर हरि की भजनियां हो रामा।।

लघु नाटिकाओं के संदर्भ में भी सोचन का सृजन-संचयन सराहनीय है। भड़ैंती और परंपरागत शास्त्रीय अभिनय शैली के योग से उन्होंने हास्य व्यंग्य के ऐसे पटाखे तैयार किए थे कि देखते ही बनता था। हँसते- हँसते दर्शकों के पेट में बल पड़ जाते थे। निश्चय ही अभिनय के क्षेत्र में यह निराला प्रयोग था। हास्य-व्यंग्य के माध्यम से सोचन समाज की कुरीतियों और समस्याओं को बहुत ही रोचक और प्रभावशाली ढंग से सामने ला देते थे।

अभिनय का ढंग भी निराला था। नृत्य की समाप्ति के साथ ही नाटक के पात्र मंच पर आ जाते थे। कोई खास वेश-भूषा नहीं। राजा हुआ तो भाँड ने मुकुट लगा लिया, रानी के लिए नाचने वाले नारी वेशधारी लौंडे को ताज पहना दिया गया। किसान को दिखाना था हो तो हाथ में लाठी पकड़ा दी गई। पंडित हुआ तो चंदन लगा दिया गया। 

साहब के लिए हैट ही पर्याप्त होता था। सेनापति तलवार धारण कर लेता था। पात्रों की संख्या भी आधा दर्जन से अधिक नहीं होती थी। अवधि की सीमा भी पंद्रह मिनट के पूर्व ही समाप्त हो जाती थी।

लौंडे के प्रत्येक गीत, नृत्य के बाद एक नाटिका प्रस्तुत की जाती थी और नाटिका की समाप्ति के बाद ही फिर लौंडे का नाच शुरू हो जाता था। घोड़ा-छूट के माध्यम से दी गई सूचना के अनुसार एक-एक करके सभी नाटिकाएँ प्रस्तुत कर दी जाती थीं। नाटिकाओं के विषय भी समाज की कुरीतियों और समस्याओं से संबंधित होते थे, जैसे—दहेज, शराब, वेश्यावृत्ति, ग़ुलामी, सास-बहू, सामंती शोषण, छुआछूत, अंधविश्वास आदि।

लोकप्रियता की दृष्टि से तो जौनपुरी भड़ैंती को बेमिसाल और बेजोड़ कहना ही उपयुक्त होगा, क्योंकि भाँड का नाच देखने के लिए हज़ारों की भीड़ इकट्ठा होती थी और लोग दस-दस मील का कच्चा रास्ता पैदल चलकर आते थे। शहर के लिए हज़ार की भीड़ कोई मायने नहीं रखती, लेकिन गाँव के लिए यह असाधारण और बड़ी बात है।

कला की दृष्टि से भी जौनपुरी भड़ैंती की उत्कृष्टता और विशिष्टता को कभी नकारा नहीं जा सकेगा, लेकिन फ़िल्मी गानों और ‘आर्केस्ट्रा' के प्रभाव के कारण अब वह दम तोड़ती प्रतीत होती है। उसकी जीवंतता किन अंशों तक शेष है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज का भाँड-मंडली का ग्वालिनी बना ज़ीनत अमान टाइप हिप्पी ब्रेंड माखन चोर कृष्ण की कलाई पकड़कर कहता है— 

बोल तेरे साथ क्या सलूक़ किया जाय।
मार दिया जाय कि छोड़ दिया जाय।

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