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'गंध ही के भारन बहत मंद-मंद पौन...'

वसंत इस कामकाजी शहर का मूड नहीं है। संभवतः जनवरी के बाद ही गर्मियों की तैयारी में यह शहर फ़रवरी के मूड को स्किप कर देता है। इस बीच वसंत का आना भी महज़ हवा में कपूर की तरह ही होता है। उदास बयार की छुअन से असंपृक्त यह महानगर अपनी उझबकाता में गर्मियों में ही जीने को शापित है। लेकिन! यह कुआर के जादू से बच भी नहीं पाता। कुआर आते ही पान के क़िवाम के बीच से निकलर हल्की-सी इलायची की गंध समूचे वातायन को सुवासित करने लगती है। रातें इस गंध के उन्माद में मदमस्त हो उठती हैं।

राजमार्गों के किनारे भले ही गुलमोहर से रक्ताभ हुए पड़े हों। गुलाब, गेंदा और दसबजिया बालकनी की चाकरी में लगे हों; और नीली फुलकारियों के दुपट्टे वाली लड़कियाँ, दिन के सौंदर्य को सप्राण कर दें। लेकिन वे लोग जो देर रात के मुसाफ़िर हैं, जो भाथियों के बुझने के बाद जीवन-संगीत का घर्घर नाद सुनते है―उन्हें यह गंध स्थिर नहीं रहने देगी। 

...और बयार तो इसकी सहचरी है। सहचरी क्या वह इसकी खेवक है। हमेशा उन्मुक्त बहने वाली हवा―इस गंध की गरिमा और उसके भार से बहुत सहम-सहम कर दस्तक देने लगती है।

गंध ही के भारन बहत मंद-मंद पौन...

― द्विजदेव

कुआर की इन सिहरती रातों में जहाँ बयार सरकती है, पछुआ लजाती हुई दस्तक देती है। इस सहवासप्रिय मौसम में गंध का एक गुच्छा खिड़कियों पर गिरता है―और मन एक अप्रस्तुत विधान की ओर  प्रस्थान कर उठता है। चमड़े की गंध और धूल में उभरता हुआ यह समूचा शहर किसी गंधवाही केश की तरह खुलता है और चित्त में एक अद्भुत संचारिका की भाँति―प्रस्तुत होती है यह गंध। पीली, अधजली स्ट्रीट लाइटों से बीच―गली से गुज़रते हुए यह आपका पीछा नहीं छोड़ती। वह रात की उन्मादिनी सखी है―स्पर्श के लिए बेचैन करती हुई।

छितवन की गंध अक्टूबर के शुरुआती उमस के दिनों में सकुचाती है। उसके लिए आपको साँझ का इंतिज़ार करना पड़ता है। साँझ उसके होने की सूत्रधार है। दृश्य में उसके होने का भान आपको तब तक नहीं होगा, जब तक आप जीवन के इस दुर्धष अभ्यस्त साप्ताहिकी की योजनाओं के बीच मानविक सौंदर्य की खोज के अभिलाषी न हों।

यही महीना है जब रातें लंबी होती हैं। यही महीना है जब किसी की याद में बहुत पीछे लौटने का मन होता है। यही महीना है जब प्रवासी मन बार-बार ड्योढ़ी की ओर लरुआता है। यही महीना है कि धान से पके खेतों से भरा सिवान डहडहाने लगता है और छितवन फूलों से लद जाता है। दिशाएँ उसकी गंध से तृप्त हो उठती हैं।

सप्तच्छदैः कुसुमभारनतैर्वनान्ताः

― कालिदास, [ऋतुसंहार]

विरह की रातें भी इसी मौसम में और लंबी होने लगती है।  तब यह गंध ही है जो हमारी स्मृतियों के गंधित पन्ने उड़ा ले आती है। एक चिरपरिचित-सी याद जीवन के उन पहले प्रसंगों में लौटाती है; जहाँ सब कुछ इतना गझिन नहीं, बहुत सीधा और सरल हुआ करता था। इसी महीने में मन उन पिघलते दिनों के बीच में लौटने को आतुर छछनाता है। भीतर की स्रोतस्विनी फूटती है और शब्द आकार लेने लगते हैं।

यह गंध जीवन के उन प्रसंगों में लौटाती है, जहाँ मेरी आवाजाही के वर्षों पूर्व भी छितवन उस लोक-जीवन में बराबर भागीदार रहा है। छतनार की तरह निर्जन नदी किनारे खड़ा, जहाँ पनपियाव के इंतिज़ार में खुरपी के बेंट पर सोहनी से छुटी मजूरिनें सुस्ताती रहीं। यौवन इसी छितवन के अखाड़े तले उन्मत्त होता रहा। इसी के नीचे खेवाई से लौटे मल्लाह अपनी पीठ टिकाते रहे। मछुआरों ने इसी के नीचे अपनी जाल सुलझाई। अपनी गंध से समूचे सिवान को मदमत्त करता यह छितवन जिन दिनों में गंधहीन रहा उन दिनों में भी समूचा जन-सरोकार उसके साहचर्य में पल्लवित होता रहा।

वह जगह जहाँ मानव-देह पंचतत्त्व में विलीन हुआ करती है, उसे थोड़ी दूर पर खड़ा छितवन,मनुष्य की पूरी यात्रा का साक्षी रहा। जीवन की पूर्णता और सत्य की स्वीकृति करता दुनिया से भागता हुआ समूचा जन यही विश्राम पाता रहा।

वह भले ही अगले पल जीवन की उत्सवधर्मिता में यह परमसत्य बिसार दे, इस दैहिक यात्रा की अंतिम परिणति भूल जाए और जीवन के रागमयी व्यापार में लिप्त हो जाए; लेकिन क्या छितवन उसे भूल सकता है—जो मनुष्य की संपूर्ण यात्रा में अमूर्त ही सही, लेकिन साझीदार तो रहा है! क्या उसकी गंध से वह निर्वेद नहीं बहता होगा?

भाठ की भुरभुराती परती-परास, जहाँ दूर-दूर तक शकरकंद की बेलें ही रहीं, वह छितवन हमेशा से श्रम के बाद सुस्ताने की जगह रहा―हर आने वाले के आगमन पर एक निश्चित आवगभगत करता हुआ। कहीं जाने और लौट आने के क्रम में वह इस तरह रहा कि हम उसे छूटते-मिलते हुए देखते रहे। 

जीवन के शुरुआती प्रसंग में पिता के साथ उससे पहले परिचय में, वह एक आवश्यक ठहराव की तरह मिला―पिता के खेत की ओर जाने पर इकलौता पथ-प्रदर्शक! और जब पिता पंचतत्त्व में विलीन हुए, तो उनका शरीर सौंपकर लौटते हुए अपने होने को बताता हुआ भी वह ही मिला। 

विद्यानिवास मिश्र ने अपने निबंध ‘छितवन की छाँह’ में यह ठीक ही लिखा :

जहाँ मरघट होगा, वहाँ छितवन का पेड़ मिलेगा ही; चिता की चिराँयध गंध का प्रतिकार देने के लिए, और मरघट न होगा तो मनुष्य सियार और कुत्ता बन जाएगा। छितवन के लिए किसी वन-महोत्सव की अपेक्षा नहीं, वह मरघट का शृंगार हैं। वह मिट्टी के शरीर का उत्कर्ष है और शरीर के मिट्टी में मिल जाने पर उसका एकमात्र अवशेष।

वह वर्षों से अपनी इसी गरिमा के साथ खड़ा रहा। उसके होने की तमाम कहानियों में वह हर बार बहुत पुरातन लगा और कभी नहीं ख़त्म होने वाला भी। बीते दिनों में बहुत बुढ़ापा देखते हुए उसके पहुँचे झूल गए। लेकिन जीवन में उसकी उपस्थित हर जगह रही―सदेह नहीं तो गंध ही सही।

गाँव से महानगर की यात्रा में वह थोड़ा बौना ज़रूर हुआ, लेकिन उसकी चिरपरिचित आदत बरक़रार रही―नज़दीक होने पर शांत और दूर से अपनी गंध से बेचैन करता हुआ।

इस महानगर में भी अपने गंधवाही स्वरूप में वह पीछा नहीं छोड़ता। संभव हो दुष्यंत की मृग-लालसा उस गंध के अनुगमन में शकुंतला के सामीप्य का कारण बनी हो। उर्वशी के प्रयाण में हताहत पुरुरवा इस गंध की उन्माद से ही और बेसुध हुआ हो। संभव हो कि देह के अभाव में सिकुड़ती देह और एक सुंदर वाक्य की खोज में भाषा से जूझता हुआ कवि―सब कुछ स्थगित कर, इस गंध की पूर्णता में ख़ुद को विन्यस्त करना ही अपनी परिणति मानता हो। 

लेकिन अब! जबकि इस उन्मादिनी गंध का पीछा करते हुए मैं लिख रहा हूँ―अगहन आ धमका है। छितवन की गंध नहीं रही। फूल झुलस गए। जीवन-चक्र पूरा हुआ, लेकिन इस समूचे जीवन-व्यापार को सम्मोहित करती वह गंध पुनः दस्तक देगी…

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