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लॉकडाउन डायरी : सत्ता मेरे मज़े लेती है और मैं अपने से कमज़ोर लोगों के मज़े लेता हूँ...

रात्रि की भयावहता में ही रात्रि का सौंदर्य है

25 मार्च 2020

पूर्व दिशा की ओर से खेरों की झाड़ियों में से उठती निशाचर उल्लुओं की किलबिलाहट से नींद खुल गई। यूँ तंद्रा का टूटना अनायास ही अकुलाहट का कारण बन गया। शुक्र का तारा आसमान के पूर्वी क्षितिज से कुछ हाथ ऊपर चढ़ा हुआ जगमगा रहा था। मृगयाएँ और कृतिकाएँ शुक्र के पीछे-पीछे उदास प्रेयसियों-सी मुँह लटकाए खड़ी वसुंधरा के पालव से झाँक रही थी। सप्तर्षि सरक कर पश्चिमी नभ के बीचोबीच तपस्या कर रहे थे। वृश्चिक पूर्व-पश्चिम-दक्षिण नभ में तीन हिस्सों में चौड़ा होकर सो रहा था। अभी सुबह का उजियारा होने में कुछ समय था, इसलिए मैं फिर से धरणी की गोद में सिकुड़ गया। नेत्रों को भींचकर रेन के अँधेरे से अंतर के अँधेरे तक ले गया। कानों को उल्लुओं के शोर से दूर ले जाकर मन की आवाज़ें सुनाने का प्रयास किया, किंतु सारे प्रयास व्यर्थ रहे, फिर से मेरी आँख लगी नहीं।

मैं बिस्तर की खोह में पड़ा-पड़ा करवटें बदलता रहा कि तब तक खब्बड़सिंघ (मेरा ऊँट) भी जाग गया। उसने जागकर जैसी ही बड़ी फुंगार (छींकना) ली कि उल्लू डरकर चुप्प हो गए। ज्यों ही उल्लुओं का शोर बंद हुआ, चहुँओर सन्नाटा व्याप गया। सन्नाटे ने अँधेरे को और भी अधिक गाढ़ा बना दिया। रात्रि और भयावह लगने लगी। रात्रि की भयावहता में ही रात्रि का सौंदर्य है, पर मैं इस सौंदर्य को बरसों से भोगकर अब ऊब चुका हूँ। अब जब नींद ही नहीं आ रही थी, तब कब तक यूँ ही लेटे-लेटे रात्रि का मुँह ताकता रहता? उठा, खब्बड़सिंघ की पीठ पर पलाण बाँधा, डेरा उठाया और चल पड़ा क़स्बे की ओर।

घंटे-भर रल में चलते हुए जब झारा पहाड़ियों की शृंखला में से एक मँझली पहाड़ी पर ज़रा रुककर पीछे मुड़कर देखा तब पूर्व में क्षितिज पर लालिमा छाई हुई थी। आस-पास की जंगली झाड़ियों में से उठाता पक्षियों का कलरव एक ऐसे शोर में बदल गया था कि किसी एक पंछी की चिहुक स्पष्ट पहचानना, सुनना कठिन था। गोरैया, बप्पीहा, बुलबुल, रेगिस्तानी मैना, होली, मोर, तीतर, टीटहरी सबका कल-शोर यूँ घुल-मिल-सा गया था कि जैसे ग्राम्य औरतों की चौपाल लगी हो। कुछ देर में धरती से लाल संतरे-सा सूर्य निकला; बहुत ही मोहक और रस भरा, आँखों में रक्तिम शीतलता भर देने वाला! लाल संतरे-सा वह पीला होकर धीरे-धीरे आग के गोले में बदलता उससे पहले मैंने खब्बड़सिंघ की लगाम ढीली की, वह पहाड़ी से फलाँगता हुआ उतरकर युद्ध-घाटी में पहुँच गया।

झारा की इस युद्ध-घाटी में कई कच्छी और सिंधी बार-बार आपसी लड़ाइयों कट मरे; अपनी ज़मीन और अहं के लिए क़ुर्बान होने वाले अपने उन पूर्वजों के प्रति मैंने और मेरे ऊँट ने घुटनों पर झुककर हमेशा की तरह सम्मान प्रकट किया। उनके प्रति यह सम्मान इसलिए नहीं था कि वे मेरे पूर्वज थे और उन्होंने शमशीरों से खेलते हुए मृत्यु को गले लगाया था, बल्कि उनके प्रति यह सम्मान इसलिए था कि उन्होंने अपने अभिमान और आज़ादी के लिए जीवन का मोह न पाला था।

कोरोना महामारी के चलते प्रधानमंत्री महोदय ने इक्कीस दिनों तक पूरे राष्ट्र को लॉकडाउन कर दिया है। देश में कोरोना महामारी का संक्रमण फैलने का डर है और देस में भुखमरी का संक्रमण फैलने का। देश और देस ने अपनी अपनी महामारियों से निपटने के लिए अपने-अपने तरीक़े अपनाए हैं। देश महामारी से बचने के लिए खाद्य सामग्रियों का ढेर जमाकर अपने-अपने घरों में क़ैद हो गया है और देस भुखमरी से बचने के लिए अपने-अपने गाँवों की ओर पलायन कर रहा है। मैं भी एक रण-द्वीप से निकलकर पास के क़स्बे में कुछ खाद्य-सामग्री जुटाने और कहीं ठहरकर लॉकडाउन काटने निकला हूँ।

बीच में एक जगह भेड़-बकरियाँ चराता तैयब मिला जिसने मुझे दूर से ही पहचान-कर, “रा…, औढाड़…, बावा…” की आवाज़ें लगाकर रुकवाया। तैयब पास के ही झारा गाँव का बाशिंदा है और उसके पास ढाई-तीन सौ के क़रीब भेड़-बकरियाँ हैं। भूरे सिर-गरदन वाली ‘देशण’ नस्ल की भेड़े और लाल-काले बदनवाली तथा लंबे आँचलों वाली दुधारू ‘काछण’ नस्ल की बकरियों का स्वामी तैयब फ़क़ीराना तबियत का बंदा है। तैयब ने मुझे भेड़ों के दूध की चाय बनाकर पिलाई और कटोरा भर बकरियों का दूध भी पिलाया। तैयब से मुझे मालूम हुआ की जगह-जगह सड़कों, चौराहों पर पुलिस बैठ चुकी है और लोगों की आवाजाही को संपूर्ण बंद कर दिया है। उसने मुझे हिदायत भी दी कि सड़क से अगर जाऊँगा तब मुझे पुलिस रोक सकती है, इसलिए मैं सीम (सीवान) की पगडंडियों वाले रास्ते से होकर जाऊँ।

मैंने तैयब की हिदायत पर अमल किया। सड़क की और न जाकर सीम की पगडंडियों से ही अपने ऊँट को आगे बढ़ाया। कँटीली झाड़ियाँ, ऊबड़-खाबड़ पगडंडियाँ और उतरती-चढ़ती पहाड़ियाँ होने के बावजूद मैंने ऊँट को पंध में ही तगड़ा। तीस-चालीस किलोमीटर का सफ़र पाँच-छः घंटों में ही समेट लिया और ग्यारह बजे के क़रीब ‘घड़ुली’ क़स्बे के चौराहे पर जा धमका। वहाँ गश्त पर बैठी पुलिस से बातचीत करके मुश्किल से बाज़ार जाने की छूट पाई। वैसे बहुत कम ही लोग घरों से बाहर निकलते दिख रहे थे, पर जो भी वहाँ से निकल रहा था पुलिस उसे रोककर सख़्ती से पूछताछ कर रही थी।

मैंने तुरंत एक किराने की हाट से चावल, खजूर, मूँग-चना वग़ैरह कठोल और मिर्च-मसाले की ठीक-ठाक गठरी बाँध ली और ऊँट लेकर लखपत की ओर चल पड़ा। दूर मोड़ लेने से पहले एक बार पलटकर पीछे देखा, पुलिस ने उस चौराहे पर कुछ लौंडों को मुर्ग़ा बनाया हुआ था। मैंने अपने ऊँट को लगाम झटककर तेज़ किया।

ऐसे में जब लॉकडाउन की स्थिति में कहीं आया-जाया नहीं जा सकता, तब मैंने निश्चय किया कि इस लॉकडाउन की अवधि में मैं ‘साकरीया’ वाले खेत में ही रहूँगा। छोटे-छोटे बीस गाँवों को समाए हुए पसरा पड़ा यह पूरा क्षेत्र क़रीब-क़रीब दो सौ चोरस किलोमीटर का है; समतल ज़मीन, घास से लहलहाते बड़े-बड़े चरागाह, एक कोयला खदान, बहुत सारे खेत और बहुत सारे घुमंतू पशुपालकों के डेरे और जलमग्न सैकड़ों तालाब तथा सरोवर! यह इलाक़ा मेरी जन्मभूमि, मेरा स्वर्ग, मेरा देस है! इसके हरेक पेड़, हरेक पहाड़ी, हरेक तालाब, हरेक नदी-नाले से मेरा केवल परिचय ही नहीं, घनिष्ठता भी है।

चरागाहों, खेतों, सीमों से चलते हुए बहुत सारे किसानों और गडरियों से मिलना हुआ। जगह-जगह चाय-पानी और बातचीत भी हुई। बातचीत से स्पष्ट हो रहा था कि कोरोना वायरस के संक्रमण से पहले गाँवों को सांप्रदायिकता का वायरस संक्रमित कर चुका है। तरह-तरह की अफ़वाहों और ज़हर से भरे इन ग्रामीण लोगों को मैं सिर्फ़ सुनता रहता, कहता कुछ नहीं। कुछ कहने का मतलब भी नहीं था, कुछ भी कहना अपने आपको उस ज़हर से डँसवा लेना था।

हिंदुओं को लग रहा था कि मुसलमान जान-बूझकर यह वायरस फैला रहे हैं, वे हिंदुस्तान को बर्बाद करना चाहते हैं इसलिए हज, उमराह से लौटकर वे अपने साथ कोरोना बीमारी देश में लाए हैं। मुस्लिमों के तर्क भी बहुत अलग-अलग थे; कोई कह रहा था कि ये जो मुसलमानों पर दुनिया भर में ज़ुल्म हो रहे हैं, उसका अल्लाह इंसाफ़ कर रहा है। दूसरा कोई कह रहा था कि क़यामत का दिन आने वाला है, अल्लाह अपने ईमान और दीन के पाबंद लोगों को जन्नत अता करेगा। तीसरा कोई कह रहा था कि यह अल्लाह की लाठी है जो मुसलमानों के अलावा सब पर पड़ेगी। ‘जितने मुँह उतनी बातें’ वाला मुहावरा इन दिनों ‘जितने मुँह उतना विष’ के शब्दार्थ में ही ठीक परिभाषित हो रहा है। किंतु ये बिल्कुल साफ़ था कि इन दिनों मुस्लिमों में मूर्खता और डर भरा पड़ा था और हिंदुओं में घृणा और क्रोध।

कच्छ की भीषण गर्मी और जिस्म से ख़ून चूस लेने वाली लू वैसे तो मार्च के तीसरे हफ़्ते से ही शुरू हो जाती हैं, परंतु इस साल शियाले की तरह उनाला भी कुछ देरी से आ रहा है। उत्तर और पश्चिम में काले वडरों (बादलों) को पीठ पर लादे हुए आभ कुछ नीचे झुक आया है। तीतर और मोर कंठों को फुला-फुलाकर फट्टे पड़े जा रहे हैं। बदरियों के छत्र को भेदकर धूप और सूर्य-किरणें धरती का दीदार करने के लिए अक्षम हैं। प्रकृति जब इस क़दर रोमांटिक हुई जा रही है, तब किसानों में किलोल की जगह कल्पांत मचा हुआ है। रबी फ़सलें खेत-खलिहानों में पकी पड़ी हैं और गगन में मेघाडंबर जम गया है। हर कोई तिरपाल, पन्नियों को लेकर खेतों की ओर भागा जा रहा था। महामारी, उसके पीछे की सारी ऊलजुलूल बातें, लॉकडाउन सब बिसरा गया था। घट और घटना में सिर्फ़ फ़सलों को किसी तरह बचाने की उतावल बनी हुई थी। हल्की-हल्की ठंडी हवा चलने लगी थी जो किसानों के ख़ून को ठंडा कर दे रही थी। ख़ुशनुमा बना मौसम किसानों के कलेजों में मातम-सा उतर रहा था।

आकाश में मेघ-गर्जनाओं की रणभेरियाँ बज रही थीं और बिजली सारे आसमान में आग लगाने पर आमादा थी। हल्की-हल्की बूँदाबाँदी शुरू हो चुकी थी। ‘गुनेरी’ गाँव की सीम में ‘राधोजी’ अपने खेत में कट्टी फ़सल बचाने की मशक़्क़त कर रहे थे। उनकी पंद्रह एकड़ ज़मीन में इसबगोल, अरंडा और गेहूँ की फ़सल लगी हुई थी। राधोजी मुझे दूर से ऊँट पर आते देखकर हेत से पसीजने लगे। राधोजी का मित्रता के स्नेह से भीगा कंठ कुछ ऊँचा हुआ, वह मुझे लाड़ लगाने लगे; “मुँजा सोढल, मुँजा रा, अवेर टाणे प् आवई पूगें! अच्च मुँजा मींह, मुँजी बाँह जा बर, मुँजा बावा, मुँजा सावज सींह!’’ (मेरे सोढा, मेरे रा, ऐसे आफ़त के समय में तुम जैसा मित्र यूँ अचानक चला आया! आयो मेरे मेघ, मेरी भुजाओं के बल, मेरे पिता, मेरे सावज सिंह!)”

पसीने से नहाया और हाँफता हुआ राधोजी काम छोड़कर बाँहें फैलाता हुआ बीस-तीस क़दम आगे बढ़ते हुए मुझे लेने आया। ऊँट से उतरकर मैं सीधे अपने मित्र राधोजी की बाँहों में समा गया। ज़्यादातर फ़सल तो खेत में ही खड़ी थी, किंतु अरंडा और इसबगोल की कुछ कटाई हो चुकी थी जो खरवाल में फैली पड़ी थी जिसे समेटकर तिरपाल से ढकने के श्रम में राधोजी जुटे हुए थे। हम दोनों मित्र तुरंत दंतालियाँ लेकर खरवाल में फैली पड़ी इसबगोल और अरंडों की फ़सल को उसेट-समेटकर तिरपाल से ढकने में लग गए। घंटे भर तक यह तनतोड़ तजवीज़ चली। इतना सख़्त श्रम और यत्न करने में हम दोनों पूरी तरह हाँफ गए थे। पर अब ज़रा बूँदाबाँदी रुक गई थी। लेकिन नभ अब भी काले मेघों से भरा पड़ा था जो किसी भी वक़्त बरस पड़ने को आतुर था।

राधोजी ने मुझे आगे बढ़ने न दिया, आज अपने वहाँ खेत पर ही रोक लिया। वह अपनी मोटरसाइकिल लेकर घर गए हैं। घर-गाँव से वह मद्य-भोज लेकर आएँगे और फिर हमारी रात्रि महफ़िल जमेगी। बारिश होने की संभावना के चलते और खेत में—खुले में भीग जाने के ख़तरे को देखते हुए खेत के पास ही एक गुफा में डेरा डाल दिया है। राधोजी के खेत के नज़दीक ही एक गुफा है, जहाँ बैठा मैं उनके लौटने का इंतज़ार कर रहा हूँ। यह एक प्राकृतिक गुफा है जो नदी के पानी के कटाव से बनी है। सदियों से पानी की कलाकारी, शिल्प-कौशल और श्रम से इन पत्थरों में यह प्राकृतिक गुहा-गृह संभव हुआ है। वैसे, कुछ दूरी पर और भी बहुत सारी मानव निर्मित बौद्ध गुफाएँ हैं। बौद्ध साधुओं ने किसी काल में यहाँ की पहाड़ियों में अस्सी के क़रीब गुफाएँ बनाई थीं। एक समय यहाँ बड़े-बड़े बौद्ध विहार भी हुआ करते थे। चीनी यात्री ह्यु-आन-साँग भारत भ्रमण करते हुए यहाँ आया था। उसने यहाँ की अस्सी बौद्ध गुफाओं का और बड़े बड़े बौद्ध विहारों का वर्णन अपनी किताब में किया है, हालाँकि अब अस्सी गुफाएँ तो नहीं मिलतीं; पर कुछेक गुफाएँ ज़रूर बची हुई हैं। कच्छ भूकंप प्रभावित क्षेत्र है और यहाँ अक्सर ही भूकंप आया करते हैं जिससे बहुत सारी गुफाएँ टूटकर खंडहर बन गई हैं; पर बची हुई गुफाएँ आज भी मेरे जैसे भटकते हुए लोगों के लिए, पशुपालकों के लिए, चोरों और शराबियों के लिए, अपराधियों के लिए सिर छिपाने का आसरा बनती हैं।

लकड़ियाँ इकट्ठी कर पाषाण गुहा में अलाव किया। उजाला होते ही बहुत सारे चमगादड़ चिंचियाते हुए बाहर भागे। गुहा के भीतरी कोनों तक ताप और प्रकाश नहीं पहुँच रहा था, पर हमारे लिए रात बिताने के लिए इतनी जगह पर्याप्त थी। यह ‘इतनी’ जगह किसी छोटे सभागार जितनी तो थी ही! चमगादड़ों के मल-मूत की तीव्र दुर्गंध को दबाने के लिए, मैंने अपने पास पड़ा कुछ गूगल आग में डाला। कुछ देर में ही बदबदाती गुफा महकने लग गई। घास का एक जूड़ा बाँधकर झाड़ू बनाया और अपनी ज़रूरत भर की जगह को साफ़ कर दिया। कुछ दूर नदी के सूखे पट में मेरा ऊँट चर रहा है। राधोजी मद्य-खाद्य सामग्री लेकर आ गए हैं और बाहर फिर से हल्की-हल्की बूँदाबाँदी शुरू हो चुकी है।


हमारा और उनका नुक़सान

26 मार्च 2020

भीगी मिट्टी की मादक ख़ुशबू ने नासिका-द्वार से घ्राणेंद्रिय पर और पक्षियों के कलहनुमा कलशोर ने कानों के परदों के मार्फ़त श्रवणेंद्रिय पर दस्तक देकर सुबह-सुबह हमें नींद-मुक्त किया। रात भर मेह बरसा था और नभ अब भी मेघाच्छादित था। रात को बादलों ने जो पानी नीचे उड़ेला था, उसकी परिणति-स्वरूप नदी के पाट में एक झरने-सी जलधारा बहती जा रही थी। राधोजी ने नदी में मटमैले से बहते पानी पर एक दृष्टि डाली और मुड़कर गुफा में आग पर चाय चढ़ाई। नदी के पानी का मटमैलापन उनके चेहरे तैर आया था। इसी तरह बे-मौसमी बारिश ने कितने ही किसानों की फ़सल बर्बाद की होगी और उनके मुखों को मटमैला कर दिया होगा।

फ़सल के साथ साथ सारा श्रम और उम्मीदें भी पानी बहा ले गया था—मटमैलें मुखों, बदनों, वस्त्रों और चित्तों को छोड़कर।

चाय पीकर हम खेत में फ़सलों बर्बादी देखने चले। खब्बड़सिंघ (मेरा ऊँट) खेत की बाड़ में जंगली बेलें चर रहा था। खेत में प्रवेश करते ही पता चल गया कि सब कुछ नष्ट हो चुका था। गेहूँ ज़मीन पर सरपट लेटे हुए पड़े थे। पक्की हुई बालियाँ मिट्टी और कीचड़ में धँसी हुई थीं।

इसबगोल पूरी तरह चौपट होकर मिट्टी में ही मिल चुका था। इसबगोल के दानों के बारिश में झरकर मिट्टी में घुलमिल जाने से ज़मीन पर एक चिकनी, चमकती परत जम गई थी। अरंडों के पौधों में बारिश से धुलकर नई चमक आ गई थी पर उन पर से सारे पके सिरटें ज़मीन पर गिरकर नष्ट हो गए थे। खेत में चलते हुए राधोजी के पैर भारी हो गए थे। न उनसे चला जा रहा था, न मुँह से कुछ बोल फूट रहे थे। बस, खलिहान में कल शाम को जो तिरपाल से फ़सल ढक दी थी, वह साबुत बच गई थी—इतनी ख़ुशनसीबी थी। मुझसे उन्हें कुछ आश्वासन देते तो न बना, पर पीठ पर हल्का-सा हाथ रखा तो वह ज़रा मुस्कुरा दिए और बोले, “खेती में त्वारा-सारा वें, रा।” (रा, खेती-बाड़ी में अच्छे-बुरे आते रहते हैं।)

एक बार और चाय पीकर मैंने राधोजी से आगे बढ़ने की रज़ा ली। भीगी हुई ज़मीन में चलते हुए खब्बड़सिंघ के पैर धँस रहे थे। धरती पर पीछे पीछे पैरों के साफ़ निशान बन रहे थे जो महीनों तक नहीं मिटने वाले थे। आगे ‘धोरो तरा’ (सफ़ेद तालाब) के पास बकरियाँ चराता इशु मिला। इशु मेरे गाँव लखपत का ही बाशिंदा है, पर उसका डेरा अपनी बकरियों के साथ-साथ यहाँ-वहाँ बदलता रहता है। इशु पर अब तो बुढ़ापा छाने लगा है, पर इसकी युवानी के रंग और क़िस्से बहुत ख्यात है।

“मीं आयो न् रा प् आयो।” (मेघ आया और रा भी आया।) उक्ति से मुस्कुराकर इशु ने मेरा स्वागत किया। इशु ने बकरियों के दूध की चाय पिलाई और यह जानकारी भी दी कि मेरे पुराने मित्र हमीर जत्त और कमा रबारी की ऊँटनियों के टोले भी दस मील दूर पश्चिम में पुनराजपुर गाँव की सीम में डेरे डाले पड़े हैं।

लखपत क़िले के मुख्य-द्वार के बाहर पुलिस क़िले-बंदी करके खड़ी थी। बीसियों पुलिस-कर्मियों के अलावा कई पुलिस-वाहन, अन्य गाड़ियाँ और एंबुलेंस वग़ैरह भी खड़ी थीं। क़िले के बाहर तैनात पुलिस-जवानों से पता करने पर मालूम हुआ कि कच्छ में कोरोना से सबसे पहले संक्रमित मेरे लखपतवासी ही हुए हैं। पास के आशालड़ी गाँव के जो लोग हज-उमराह यात्रा करके लौटे थे, उनमें से एक महिला को कोरोना पॉजिटिव पाया गया। उस कोरोना-संक्रमित महिला के साथ लौटे बाक़ी हाजियों, उनके परिवारवालों और उनके संपर्क में आए सारे लोगों को लखपत क़िले में क्वारंटीन किया गया था जिसके चलते मेडिकल चेक-अप टीमें, आला अधिकारी वर्ग और पुलिस दस्ते यहाँ तैनात थे।

मैंने अब क़िले के भीतर—गाँव में जाना ठीक नहीं समझा और वैसे भी मुझे कुछ दूर खेत में ही डेरा डालना था तो ऊँट को वहाँ से आगे पश्चिम दिशा में साकरिया गाँव की तरफ़ बढ़ा दिया।

लखपत और साकरिया के बीच एक-डेढ़ मील का फ़ासला है। वहाँ ही मेरा खेत है, जहाँ जाकर मैंने अपना डेरा डाल दिया। मेरे खेत में भी रबी-मौसम में सरसों और इसबगोल फ़सल लगाई गई थी जो ‘सबकी जो गति भई मेरी भी वही सही’ के मुहावरे की इज़्ज़त करते हुए ज़मींदोज़ होकर पँचतत्त्व में विलीन होने के लिए अग्रसर थी। मुझे अपने ऊँट के साथ खेत पर आया देखकर मेरा भाग-बँटाईदार जुम्मा दूर से ही रोता-बिलखता हुआ आया और बताया, “रा, मीड़े धूड़धानी थई व्यो, क़िस्मत में ज् कंढा वा जीको पकल धान में पतंग लगो। मालिक तां साव मारे विधे।” (रा, सब कुछ मिट्टी में मिल गया। क़िस्मत में ही काँटे हैं, वरना इस तरह पक्की फ़सल में चिनगारी लगती! ख़ुदा ने तो बिलकुल मार ही दिया।) इतना कहते हुए जुम्मा ज़मीन पर उकड़ूँ बैठ गया और सिर पर हाथ रखकर नज़रें नीचे गड़ा दी। पीछे पीछे जुम्मा की बुड्ढी माँ छाती पिटती हुई आ रही थी, “बावा, चार-चार मेणेंजी मेनत ते पाणी फिरी व्यो। मुँजे भच्चले जों रंज रूली प्यो। रा, असां ग़रीब माड़ूएंजी मों जी मानी झट्टाजी वई।” (ठाकुर, चार-चार महीनों की सारी मेहनत पर पानी फिर गया। मेरे बच्चों की सारी कमाई डूब गई। रा, हम ग़रीबों के मुँह का तो निवाला छीन गया।)

मेरे लिए किसी को भी आश्वासन देना बहुत कठिन काम होता है। मुझ में दुःखी आदमी को दिलासा देना का शऊर नहीं है। मैंने सिर्फ़ बुढ़िया की ओर एक बार देखा और कई बार कई लोगों से सुनी वह सूक्ति ‘अल्लाह वडो अए…’ (अल्लाह बड़ा है…) ही कह पाया।

खेत की बर्बादी देखकर अब वहाँ खड़े रहना और फिर बुढ़िया की आपबीती सुनना मुश्किल था, इसलिए जुम्मा को कहा कि चलो पास के खेतों की ओर चलते हैं और हम दोनों चल पड़े। पता नहीं पीछे खड़ी बुढ़िया मेरे बारे उस समय क्या सोच रही होगी?
पास में अमरसिंघ का खेत था। अमरसिंघ और उनका लड़का जेंध्रा दोनों मिलकर खलिहान में तिरपाल ढकने के बावजूद भी जो कुछ कट्टी फ़सल भीग गई थी, उसे सँवारने में लगे हुए थे। अमरसिंघ ने काम करते हुए अँगोछे की धोती बाँधी थी जो मुश्किल से सिर्फ़ गुप्तांगों ढाक रही थी। फिर भी काम करते, हिलते-डुलते हुए बार-बार आंड़ बाहर निकल आते थे जिसे फिर से वह धोती के भीतर खोंस लेते थे। अपने बाप की इस हरकत पर जेंध्रा शर्मिंदा हो रहा था, पर संकोचवश कुछ कह नहीं पा रहा था।
उनको काम में लगे हुए देखकर हम आगे बढ़कर बल्लजी के खेत जा पहुँचे। बल्लजी, बल्लजी के सौ साल की उम्र के पिता मथरिंग, भैंसों का चरवाहा रघु, पड़ोसी गाँव का किसान पाँचाजी, मेरा मित्र राजूसिंघ तथा और दो-चार लोग वहाँ बैठे थे। बल्लजी सिर झुकाए रो रहा था और बाक़ी लोग उसे हौसला बँधा रहे थे। बल्लजी ने कहीं से सूद पर पैसे लेकर इसबगोल की फ़सल लगाई थी और उसकी सारी फ़सल बिगड़ गई थी। चार-चार महीनों तक जो पसीना और पैसा लगाया था खेत पर वह सब इस बारिश ने मिट्टी में मिला दिया था। बाक़ियों की भी हालत वैसी ही हुई थी, पर वे सब अपनी हिम्मत बाँधे हुए थे। वे जानते थे कि यूँ रोने-धोने से फ़सल लौटने से तो रही।

रोते हुए बल्लजी को रघु ने डपटा, “बापू, मड़द रो डिकरो था। आज शामलिए चार कण डूबाड्या शे तो काल हवारे हौ मण पाशा डेहे। आपण करता ऊपरवाला ने जाजी ख़बर। अने आमेय धरती माथे पाप ओशो शे? भगवान ने ते बधु हरभर करवो वोय न, तो केदी लीला भेरा हुका प बरी जाय। देवावालो दातार मोटो शे, आज लई लेहे तो काल पशा घणुं करी पाशुं करहे। जीणा माणाथी ठाकर ठग्गी न करे, दरबार।” (ठाकुर, मर्द की औलाद बनिए। आज ईश्वर ने चार दाने डुबा दिए हैं तो कल सौ मन वापस करेगा। हम सब लोगों से ऊपरवाला ज़्यादा समझदार है। और यूँ भी धरती पर पाप कम हो रहे हैं क्या? ईश्वर को सब हिसाब-किताब भी बैठाना पड़ता है न, उसमें कभी-कभार सूखों के साथ हरे भी जल जाते हैं। लेकिन आज जो उसने ले लिया है तो कल उसका पचास गुना वापस भी करेगा। ग़रीब लोगों से ईश्वर ठग्गी नहीं करेगा, ठाकुर।)

पिता मथरिंग ने पुत्र को संबल देते हुए कहा, “माड़ू री ख़ेरियत हुवे तो मिलकत पाछी कमाए लीशा।” (आदमी की ख़ैरियत हो तो माल-मिल्कियत बाद में भी कमा ली जाएगी।)

मथरिंग के कथन में राजूसिंघ ने अपनी बात जोड़ी कि दुनिया में सब लोग कोरोना महामारी से मर रहे हैं। सब काम-धंधे बंद हो गए हैं। अमीर लोगों के पास इतना सारा पैसा है फिर भी वे अपने लोगों को बीमारी से बचा नहीं पा रहे। फिर इतनी मिल्कियत का क्या फ़ायदा? हमारे यहाँ सब ख़ैरियत तो है। लखपति-करोड़पति लोगों के सारे धंधे बंद हो गए हैं, उनका रोज़ का करोड़ों का नुक़सान हो रहा है। उनके सामने हमारा नुक़सान क्या चीज़ है?

राजूसिंघ द्वारा प्रभावी ढंग से सुनाए गए इस भाषणनुमा लतीफ़े का सब पर प्रभाव पड़ा। सबने इस पर ‘हाँ-हाँ’ कहकर सिर्फ़ सहमति ही नहीं जताई, बल्कि सभी जनों के चेहरों पर संबल पाने की आश्वस्ति भी झलक रही थी। बल्लजी भी हौसला पाकर कहने लगा कि उन बड़े बड़े अमीरों के करोड़ों के नुक़सान के सामने मेरा तो नुक़सान बस सुई की नोक बराबर है। सभी ज़रा देर में अपने अपने छोटे दुःखों को भूलकर औरों के बड़े-बड़े दुःखों के लिए दुःखी होने लगे। यूँ ही ग्रामीण लोग दूसरों के दुःखों के सामने, अपने दुःख नापकर सुखी हो लेते हैं। इनके दुःख कितने भी बड़े क्यों न हों, वे उन्हें ऐसे छोटे-छोटे सुखों के सहारे काट लेते हैं।

मथरिंग राजूसिंघ के भाषण से बहुत प्रभावित हुए थे। गर्व और आश्चर्यमिश्रित भावों से क्षण भर उसे देखते रहे और फिर उसे अपने अमुलख बोलों से पुरस्कृत करते हुए कहा कि पढ़ा-लिखा लड़का है, कितना कुछ जानता है। टी.वी. देखता है और सारी ख़बर रखता है। बड़ा होशियार लड़का है। राजूसिंघ की बाँछे खिलखिला उठीं।

रघु की चाय पीकर सब खेतों से अपने-अपने घरों की ओर लौटे। दुपहर हो चुकी थी और भोजन का वक़्त भी हो चुका था। राजूसिंघ अपने घर से मेरे लिए टिफ़िन लेने गया। निश्चित हुआ था कि वह आज अपने घर से हम दोनों का टिफ़िन लेकर मेरे खेत पर आएगा और वहाँ साथ में बैठकर खाना खाया जाएगा और फिर लंबी वंतल चलेगी। जुम्मा दुपहरी करने अपने घर चला गया। मैं राजूसिंघ की राह तकते हुए अपने खेत में झाल की छाँव में सुस्ता रहा हूँ।


प्रकृति का चरित्र और कोरोना-कारावास

28 मार्च 2020

बाहर शहरों में पढ़ने वाले या काम-धंधा करने वाले ज़्यादातर लोग किसी तरह वापस गाँव लौट आए हैं या लौट रहे हैं। बहुत ही बेतुके ढंग से किए गए इस लॉकडाउन की वजह से सत्ता और समाज के नक़ली मुखौटे उतर चुके हैं। उनकी सभ्य, संगठित धागों से बुने नक़ाब के नीचे छिपी बदसूरत, सड़ी हुई और बदबूदार छवि उजागर हो चुकी है। देश भर में अव्यवस्था, अविश्वास, अत्याचार और असमानता की तस्वीरें तैर रही हैं जो किसी भी लिहाज़ से लोकतंत्र में लाज़मी नहीं है। लोग अपने अपने घरों, गाँवों की ओर पैदल चले जा रहे हैं—भूखे-प्यासे, थके-हारे, बीमार और निराश। सरकार पुलिस की लाठियों के बल पर उन्हें मार-पीटकर वापस खदेड़ने का प्रयास कर रही है, बजाय उन्हें घर-गाँव पहुँचाने के। उच्चवर्ग और मध्यवर्ग महीने भर का राशन-पानी लेकर अपने घरों में दुबक गया है और घरों में नित्य नवभोज करते हुए ग़रीबों, मज़दूरों को गरिया रहा है।

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साकरिया गाँव में दो-चार से पाँच-सात लोगों की टोलियाँ गली-चौबारों में बैठे गप्प लड़ाते रहते हैं। लोग घरों में बैठ-बैठकर ऊब गए हैं। कुछ काम-धाम भी नहीं है और बाहर निकलने भी नहीं दिया जा रहा, तब कब तक घरों में ठाले बैठे रहे? लोग सुबह-सुबह हल्के होने बहुत दूर-दूर तक डिब्बे लेकर चले जाते हैं और इस तरह घंटे-डेढ़ घंटे का समय काट आते हैं। आज सुबह जब मैं गाँव के दक्षिणी तालाबों की ओर अपने ऊँट को ढूँढ़ने गया, तब गाँव से तीन किलोमीटर दूर एक लड़का डिब्बा लिए मिला। इतने दूर टहलने आने की वजह पूछने पर उसने बताया कि इस तरह समय भी कट जाता और हल्का होने के साथ-साथ कुछ घूमना भी हो जाता है।

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दुपहर का खाना आज भी राजूसिंघ अपने घर से लाया था। हम दोनों ने मेरे खेत की झाल की छाँव में दुपहरी की। दो दिन से खब्बड़सिंघ को चरने छोड़ दिया था, फिर उसकी ख़बर नहीं ली थी। सुबह से तीन घंटे तक उसको सीम में ढूँढ़ता रहा, तब जाकर वह मिला था। उसके पीछे भटकने में कुछ थक चुका था और बहुत सारा खा भी लिया था, सो पेड़ की शीतल छाँव में कब नींद आ गई, पता भी न चला।
राजूसिंघ ने चेहरे पर पानी के छींटे छिड़ककर नींद से जगाया। वह मुझसे पहले जाग गया था और पानी से अपना मुँह धो रहा था। आज हम दोनों को ऊँट पर सवारी करके हमीर और कमा की ऊँटनियों के डेरों पर जाना हैं। रात भर वहीं रहकर कमा-हमीर की मंडली के साथ वंतल करेंगे और ऊँटनियों के दूध की खीर खाएँगे। हमीर ने वहाँ से आ रहे रघु के साथ कल संदेश भेजा था कि रा को मेरा जुहार देना। अब उसके जुहार का प्रत्युत्तर तो देना ही था। चाय-पानी निपटाकर ऊँट पर काठी जमाई। मैं और राजूसिंघ खब्बड़सिंघ पर आसन होकर कमा-हमीर के डेरों की तरफ़ पश्चिम में चल पड़े। सूरज पश्चिमी क्षितिज पर सरक रहा था और हम जैसे उसका आखेट करने के लिए उसका पीछा कर रहे थे। ऊँटारोहण करते हुए सूर्य का आखेट करने दृश्य कितना रोमांचकारी होगा!

29 मार्च 2020

सूर्य का आखेट करते उससे पहले वह डरकर बादलों की आड़ में कहीं छिप गया और सरककर अँधेरे के डेरे में दुबक जा बैठा। अब आखेट तो न मिला, पर कमा-हमीर जैसे यार मिल गए। कमा-हमीर की मंडली ‘खानियो पीर’ तालाब के पास डेरा डाले हुए थी। ‘खानियो पीर’ एक मुस्लिम फ़क़ीर था जिसकी मज़ार इस तालाब के किनारे है, जिसके चलते इस तालाब को ‘खानियो पीर तालाब’ कहते हैं। ‘खानियो पीर’ की मज़ार की देखभाल करने वाले और उनमें श्रद्धा रखने वाले सब हिंदू हैं। कच्छियत की रवायत है कि पीरो-फ़क़ीरों को धर्म, जाति, वर्ग में बाँटकर नहीं देखा जाता और वह रिवायत यहाँ खानियो पीर पर भी मुकम्मल तौर पर क़ायम थी।

तालाब जल से भरा पड़ा था और उससे भी अधिक कमा-हमीर के हृदय भरे पड़े थे। मुझे दूर से आता देखकर दोनों भेरू भरे-भरे पसीज रहे थे। मिलते ही लंबे लंबे आलिंगन लिए-दिए गए और जलमग्न हृदयों की शीतलता में ग़ोता लगाकर कंठ-कलेजे की प्यास और अंग-आँख की जिलास तृप्त की गई।

हमीर का भाई साध, भतीजा झलू और कमा का भतीजा ढोलर भी वहीं थे। साध थोड़ा-सा ऊँचा सुनता है। उससे बात करने में अक्सर मेरे गले और कानों को कष्ट से गुज़रना पड़ता है। हालाँकि, अब हम सिर्फ़ मुस्कुराकर ही काम चला लेते हैं। ढोलर संजीदा नवयुवक है, वह मुझसे लड़कियों को जल्द से जल्द बिस्तर तक कैसे ले आया जाए—के बारे में जानने को बहुत उत्सुक रहता है। वह मुझे इस मामले में उस्ताद मानता है और बड़ी संजीदगी से मेरी शागिर्दगी करता है। उसने मेरी कुछ चरवाहा लड़कियों से दोस्ती भी कराई थी जो मेरे लिए काफ़ी सुखदायी रही थी। झलू बहुत संकोची, एकांतजीवी, कम बोलने वाला और काम में प्रवृत्त रहने वाला जीव है। उसे बिस्कुट और दाबेली बहुत पसंद है। वह अक्सर क़स्बे जाने वालों से ये दोनों चीज़ें मँगाता रहता है।कमा-हमीर के साथ बातें त्राड़ियाई जा रही है और चिलमें फूँकी जा रही थीं। साध, झलू और ढोलर त्रई ऊँटनियों को दोहने में और तोडड़ो को लियारने में लगी हुई थी। आग पर जमाए ठीओं पर खीर सीझ रही थी, जिससे हल्की-हल्की बुड़बुड़ाहट उठ रही थी। चिलम में जल रही घोड़ाकु तंबाकू की धूम्र-गंध ने खीर की गंध को दबा दिया था। हवा का कोई तीव्र झोंका चिलम के धुएँ की गंध को धकियाकर कुछ क्षण परे ले जाता, तब भी खीर की गंध के बदले ऊँटनियों द्वारा की जा रही अपाच्य चारे की जुगाली की सड़ी गंध नासिकाओं को भर देती थी। विभिन्न गंध, गप्प, चिलम का दौर खीर के पकने तक यूँ ही चलता रहा।

इलायची, सूँठ और मिश्री घोलकर कमा के द्वारा बनाई गई खीर में जो स्वाद, सुगंध और सफ़ेदी उतरी थी उसका बयाँ जीभ शब्दों से करने को असमर्थ थी; क्योंकि जीभ खीर के स्वाद में सम्मोहित थी, उसने भाषा खो दी थी। थालियों में कड़छे के कड़छे भर खीर उड़ेली जा रही थी, थालियों से घूँट-घूँट सुड़कते हुए उदर में उड़ेली जा रही थी; पर किसी की मजाल जो मना करे। सबने अपने-अपने उदरों को चौगुना-पाँच गुना चौड़ा कर लिया था। मैं पाँच थालियाँ खीर अपने उष्ट्रोदर को धरकर ही धराया। राजूसिंघ और ढोलर ने रिकॉर्ड बनाया, आठ-आठ थालियाँ उड़ेलकर डकार ली। सबके पेट फूलकर ग़ुब्बारे बन गए थे। खीर-जयाफत लूटने के बाद देर रात तक रेयाण जमी रही।

सुबह चाय बनकर तैयार हुई कि कमा के नए चार-पाँच यार आ गए। हमीर ने मुझे बताया कि लॉकडाउन की वजह से बीड़ी-सिगरेट बंद हो गई है, इसलिए आस-पास के गाँवों के बीड़ी-सिगरेट के कुछ तलबगार कमा के पास चिलम पीने आते हैं। कमा एक चिलम के बीस रूपए वसूल करता है उनसे। कमा की क़िस्मत कि वह लॉकडाउन के अगले ही दिन क़स्बे से अपने लिए साल भर की घोड़ाकु तंबाकू लाया था।

‘‘रा, कमा इन दिनों बहुत अच्छा कमा रहा है।’’—ज़रा ऊँचा बोलकर हमीर ने ताना मारा। कमा ने ताना सुना और मुस्कुराते हुए पलटकर कहा कि अब तो हमीर से भी चिलम के पैसे लूँगा। हमीर और कमा के बीच यूँ ही अठखेलियाँ चलती रहती हैं। चाय-पानी निपटाकर मैं और राजूसिंघ ऊँट पर सवार होकर निकल लिए।

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दुपहर को खाना निपटाकर दक्खणी सीम में रामा की बकरियों के पास चला गया। रामा के साथ मेरी समय-समय पर दोस्त-दुश्मनी चलती रहती है। रामा निहायती बदतमीज़, मुँहफट, मसख़रा और कमीना व्यक्ति है। अपनी ही बकरियाँ चोरी-छिपे पकाकर खा जाता है और जब उसकी माँ गुम हुई बकरियों के बारे में पूछती है, तो वह कोई गढ़ी हुई कहानी सुना देता है; जैसे कि लक्कड़बग्गे खा गए या किसी ने चोरी कर ली वग़ैरह। रामा गाँव की हर औरत के बारे में भी कुछ घटिया कहानियाँ गढ़ता और सुनाता रहता है। चुग़लबाज़ी करना, चटख़ारे लेना और चरित्रहनन करना उसका चरित्र है। पिछले साल उसने एक लड़की के साथ मेरा चक्कर होने की अफ़वाह फैलाई थी, जिस पर मैंने लोटा मारकर उसका सिर फोड़ दिया था। तबसे हमारे बीच अन-बन चल रही थी। उसे जब मेरे यहाँ साकरिया लौट आने का पता चला तो उसने रघु के साथ नियापा भिजवाया कि रा से कहना कि मेरे बाड़े पर आकर मिले।

वह इभ्भला पीर दरगाह के पास सूखी नदी के पाट में अपनी बकरियाँ चरा रहा था। बकरियाँ झाड़ियों में चर रही थी और वह एक नीम के पेड़ की ऊँची टाल पर चढ़ा बैठा सबकी टोह ले रहा था। उसने मेरी दूर से ही आते टोह ले ली थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि एक कमीने इंसान को अपनी कमीनगी के लिए भी कितने यत्न करने पड़ते हैं! मेरे पास जाते ही वह पेड़ से नीचे उतर आया और हमारे बीच औपचारिक दुआ-सलाम हुई। चाय-चू पी और शाम होने तक दोनों साथ-साथ वन-वन बकरियाँ चराते, टहलते रहे।

वन-झाड़ियों में वसंत का उत्सव चल रहा था। बबूल की झाड़ियाँ पीले पीले फूलों से लद गई थीं। मानो कच्छ की हुनरमंद कसबी-कारीगर स्त्रियों ने क़सीदेदार कढ़ाई न बुनी हो! हरे-हरे पत्तों, मटमैली डैनियों और पीले-पीले फूलों के संयोजन की आभा ही न्यारी थी। थोर के डांडे लाल-लाल फूलों के फुमगेनुमा गुच्छों से शोभित थे। खेर और नीम सफ़ेद मंज़र से सराबोर महक रहे थे। करिल तो भ्रमित कर रहे थे; क्षण भर भगवा धारण किए योगी लगते तो दूसरी क्षण में लगता कि केसरीवर्ण तितलियों का झुंड उग आया है—करिल की हरित काठ पर। करिल पर कहीं-कहीं कच्चे केरड़े नीले मोतियों की तरह लटक रहे थे। पंछियों के झुंड के झुंड वन में सजे इस वसंतोत्सव के सामूहिक जिमणवार पर टूट पड़ रहे थे। मैनाएँ, तीतर और बुलबुल वसंतोत्सव के इस वनभोज का लुत्फ़ कम उठा रहे थे शोर ज़्यादा मचा रहे थे। उनके बनिस्बत पारले, होले, हमिंगबर्ड और गौरैया शांति से मज़े लेकर फल-फूल की लज़्ज़त ले रहे थे। मधुमक्खियाँ और भमरें पेड़-पेड़, पात-पात, डाल-डाल, फूल-फूल पर घूम-घूमकर मधुर रस चूस रहे थे।

कोरोना काल में लॉकडाउन के चलते इंसान के संसार के गति रुक-सी गई है; लेकिन प्रकृति अब भी कितनी सहज, सरल और सुंदर ढंग से गतिमान थी। प्रकृति का चरित्र कितना संस्कृत और सुचारु है! किसी को भी ख़लल डाले बिना, हानि पहुँचाए बिना ज़रूरत भर का लेना और लौटाना। सहज व्यवहार और सरल आचार-विचार। सहज और सुंदर बने रहने की सोच और प्रवृत्ति! अपने को सभ्य कहलाने वाला मनुष्य इस प्रकृति के साथ किस विकृतता और स्वार्थ के साथ बरतता है, यह कोई छुपी बात नहीं है। प्रकृति की सहजता और सुंदरता को नष्ट करने की सज़ा के तौर पर ही तो कहीं मानव को यह कोरोना-कारावास नहीं मिला?

शाम को रामा की बकरियों के बाड़े पर लौटे। बकरियों का दूध निकालने और उनके बच्चों को दूध पिलाने से निपटकर रामा बाड़े की भीतर बकरियों की लिंडियों के ढेर के भीतर गाड़-छिपा रखी फ़्रेंच वोदका की बोतल निकाल लाया। गिलास उपलब्ध न होने के चलते वोदका से कटोरियाँ भरी गईं और चूल्हे पर खारी-भात चढ़ा दिया गया।

रामा ने पास के फ़ौजी कैंप में किसी फ़ौजी को शहद देने के मुआवज़े में यह वोदका की बोतल पाई थी। रामा बकरियों के साथ वन से भटकते हुए मध और गूँद भी इकट्ठा करता रहता है, जिससे उसकी अच्छी आमदनी निकल जाती है। रामा मुझ पर इसलिए मेहरबान हुआ था, क्योंकि वह एक तीर से कई शिकार करना चाहता था। एक वह मुझे वोदका की दावत देकर मेरे साथ अपनी पुरानी रंजिश ख़त्म करना चाहता था। दूसरा उसे मेरे ऊँट की बार-बार ज़रूरत पड़ती रहती थी। तीसरा कि उसने मेरे मित्र राजूसिंघ के बारे में भी एक ताज़ी अफ़वाह फैलाई थी, जिसके चलते राजूसिंघ उसके दाँत तोड़ने के लिए उसे ढूँढ़ रहा था और वह मुझसे दोस्ती गाँठकर राजूसिंघ द्वारा संभावित पिटाई से बचना चाहता था। चौथी वजह उसकी दरियादिली की चार-चार कटोरियाँ वोदका गटकने के बाद ज़ाहिर हुई थी कि वह मुझे बहुत शराब पिलाकर कुछ ऐसी बातें निकलवाना चाहता था, जिससे वह मेरे बारे में नई अफ़वाह गढ़ सके। चौथी वोदका कटोरी से गला तर करने के बाद उसने पूछा कि रा ज़रा बता कि तुम गाँव की किस-किस औरत के साथ सो चुके हो। मुझे तब तक इतना गहरा नशा नहीं हुआ था, इसलिए एक गाली और जूता फेंककर मारने से ही उसकी यह जानने की ख़्वाहिश दब गई।


लहू में आग और खाल में राग

30 मार्च 2020

सुबह-सवेरे मेरी आँख खुली तो सामने ग़ज़ब दृश्य था। बकरियों के बीच ज़मीन पर रामा लेटा पड़ा सो रहा था और बकरियाँ मिमियाते हुए उसका मुँह चाट रही थीं। रात को हम शराब पीकर नशे में ढेर हो गए थे। रात को कुछ खाया न था, इसलिए सुबह-सुबह बहुत ज़ोरों की भूख लगी थी। परंतु चूल्हे पर चढ़ाया गया खारी-भात का पतीला ग़ायब था। बहुत ढूँढ़ने पर वह क़रीब दो सौ मीटर दूर एक खड्डे में पड़ा मिला। हुआ यूँ था कि हमारे नशे में ढेर हो जाने पर भूखे कुत्तों ने उसे झपट लिया था और कुत्ते भात खाने की आपसी छीना-झपटी में उसे दूर खड्डे तक ले आए थे। मैंने दो बकरियाँ दुहकर लौटे भर दूध से अपनी क्षुधा शांत की और रामा को यूँ ही सोया पड़ा छोड़कर अपने डेरे आ गया।

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लॉकडाउन से राशन और अन्य जीवन ज़रूरी चीज़ों की पुरवठा शृंखला टूट गई थी, जिसके चलते गाँवों में कुछ चीज़ों की क़िल्लत होना शुरू हो चुकी थी। शहर, क़स्बों की मंडियों से गाँवों में सब्ज़ियाँ आनी बंद हो गई थीं। बाज़ार बंद होने के चलते किराने की सामग्री गाँवों तक नहीं पहुँच रही थी और गाँवों में व्यापारियों के पास दुकानों में जो भी कुछ किराना मौजूद था, वे उसे दुगने दामों में बेच रहे थे। (कल मैं प्याज़-आलू लेने पीरजी की दुकान गया तो उसने डेढ़ सौ रुपए किलो के हिसाब से दिया था।) सबसे ज़्यादा काला-बाज़ारी गुटका, तंबाकू, बीड़ी और सिगरेट में हो रही थी। सबकी क़ीमत तीन-तीन, चार-चार गुना वसूली जाने लगी थी।

शहरी मंडियों से गाँवों तक की खाद्य-सामग्री तथा अन्य ज़रूरी चीज़ों की पुरवठा साँकल रुक गई थी, जिसके चलते गाँवों के हरामी व्यापारियों ने काला-बाज़ारी, संग्रहख़ोरी का नया धंधा ईजाद कर लिया था जो बहुत माल कमा दे रहा था। सरकार की सारी व्यवस्था और चिंता शहरों के लिए और उच्च व मध्यवर्ग के लिए ही थी। गाँवों और ग़रीबों तक उनकी चिंता और व्यवस्था पहुँच से तो दूर ही थी, सोच से भी बहुत बहुत दूर थी। पता नहीं फिर भी ये समंदर-हृदय किसान और पशु-पालक दूध और धान शहरों तक क्यों पहुँचाते रहते हैं? 300 की आबादीवाला एक साकरिया गाँव ही प्रतिदिन 1,000 लीटर दूध शहर पहुँचाता है। अगर एक दिन के लिए भी यह गाँव अपना दूध शहर को देने से मना कर दे तो शहरों में अपने आलीशान बंगलों, मकानों में महीने भर का खाद्यान्न भर के दुबक कर बैठे और रात-दिन सोशल मीडिया पर अपना ज्ञान और सलाह झाड़ते 1,000 अमीरज़ादे परिवारों की चाय-कॉफ़ी दूसरे दिन ही बंद हो सकती है। यह कितना बड़ा मज़ाक़ है कि किसानों और पशुपालकों की श्रमशीलता, दया और मानवीयता पर पलने वाले ख़ुद को जगत-नियंता मान रहे हैं!

लौंडों में गुटका, तंबाकू, बीड़ी-सिगरेट के लिए दौड़ और वबाल मचना शुरू हो चुका है। मरियल शक्लों और हाँफते हुए कुत्तों-सी जीभ मुँह से बाहर लटकाए, वे यहाँ-वहाँ हाथ-पैर मारते रहते हैं और अपनी ज़रूरत भर का सामान कहीं से किसी तरह जुटा ले रहे हैं। नशे की लत लौंडों के लिए इन दिनों आफ़त बन गई है। इन नव आधुनिक ग्राम्य युवाओं को शराब शराफ़ती नशा नहीं लग रहा था, तब यूँ ही लत खानी थी एक दिन। शराफ़ती नशों ने बड़ी शराफ़त से उनमें ख़ुराफ़ात मचा रखी थी—यह इन दिनों जाकर मालूम हुआ। शराबियों पर आए दिन हँसने वाले इन घोंघेनुमा कथित सभ्य लौंडों की गुटका-तंबाकूग्रस्त नस्ल तो निहायत निर्बल निकली। दो दिन गुटका-खैनी न मिलने पर रुआँसा-सा चेहरा बनाकर खटिया पकड़ लेते थे।

4 अप्रैल 2020

कल सड़क पर जाकर स्टंटबाज़ी करते कुछ गबरू जवान टाइप लौंडों को पुलिस पेट्रोलिंग जीप ने धर लिया; सड़क पर ही मुर्ग़ा बनाकर और उनके नाज़ुक नितंबों पर डंडों से अक्षांश-रेखांश खींच दिए, तब से गाँव से बाहर निकलती सड़कों पर सन्नाटा छा गया है। वरना लौंडों के टोले मोटरसाइकिल लेकर सड़क पर स्टंटबाज़ी करते रहते थे। पुलिस जीप भी अब दिन में गाँवों की ओर दो-चार चक्कर लगा जाती है। डंडे के डर से लोग भी अब बिना कामकाज के बाहर निकलना टालते हैं। बाहर निकलते भी हैं तो सड़क का रास्ता छोड़कर सीम, वन की पगडंडियों पर आवाजाही करते हैं। अपने खेतों में काम करने छूट दी गई है, तो लोग खेतों में जाकर काम करते हैं। लाट्साहब बने फिरते लड़के भी ‘आउटिंग’ करने की नीयत से बाप के साथ खेतों में हाथ बँटाने चले जाते हैं।

फल-सब्ज़ियों को देखना भी नसीब नहीं हो रहा, तब लोग सीम में जाकर जंगली सब्ज़ियाँ जैसे खेजड़ी की सांगरी, करिल के केरड़े, जंगली इमलियाँ (जंगली जलेबी) वग़ैरह पर आश्रित हो रहे हैं। संयोग से कच्छ में वही झाड़ियाँ ज़्यादा है, जिनमें फूल-फल भी इन्ही दो-चार महीनों में आते हैं। हालाँकि इस साल झालों में पीलुओं का फाल नहीं आया, पर बाक़ी सब झाड़ियाँ फाल के बोझ से लद्दी-झुकी जा रही हैं।

किराना अब गाँवों तक पहुँचाने के ज़हमत की जा रही है, फिर भी व्यापारियों द्वारा दाम दुगने ही वसूले जा रहे हैं। सबसे प्रबल माँग गुटका, तंबाकू और बीड़ी-सिगरेट की है। सरकार ने लॉकडाउन में उसकी बिक्री पर बैन लगा दिया है। अब इसकी अवैध बिक्री आठ-दस गुना क़ीमत बढ़ाकर की जा रही है, तब भी वह बहुत मुश्किल से मिल रही है। कुछ लोग अब इस गुटका, तंबाकू, बीड़ी-सिगरेट के अवैध धंधे में फ़ायदा उठाने कूद पड़े हैं। साकरिया और लखपत के सात-आठ युवाओं को इस धंधे में रात-देर रात सीम की पगडंडियों से गुज़रते देखा जा सकता है। वे दूर दूर क़स्बों, शहरों तक मोटरसाइकिल लेकर माल जुटाने का प्रयास करते रहते हैं। गुजरात और कच्छ में शराबबंदी के चलते शराब बूटलेगिंग तो बहुत सुनी थी और उस धंधे में बहुत सारे लोग मालदार बने थे। पर सरकार ने इस लॉकडाउन जैसे विकट समय में भी गुटका, तंबाकू और बीड़ी-सिगरेट बूटलेगिंग के धंधे के नए अवसर मुहैया करवाकर कई लोगों को रोज़गारी उपलब्ध तो कराई ही थी।

पिछले चार-पाँच दिन ऊँट लेकर दस मील दूर के सियोत गाँव चला गया था। वहाँ मेरा एक पुराना दोस्त है, जो अब अपने फैले हुए व्यवसाय के चलते बैंगलोर में ही रहने लगा है। लॉकडाउन के चलते वह सपरिवार अपने पैतृक गाँव सियोत आया हुआ था। उससे मिलने चला गया। ऊँट की सवारी का फ़ायदा यह है कि आप कभी भी, कहीं भी आ-जा सकते हैं। सड़कों पर चलने से वाहन चालकों को पुलिस की रुकावट का डर रहता है; पर ऊँट सीम, मैदान, पहाड़, झाड़ियाँ, पगडंडियाँ, उजाड़, ऊबड़-खाबड़ किसी भी रास्ते मस्ती से चल सकता है।

सियोत में अपने दोस्त के वहाँ तीन-चार दिन रहकर मैंने उससे कई तरह की शराब बनाना सीखा। वह हर तरह की शराब बनाने का उस्ताद था। शराब विद्या-प्राप्ति के दौरान यह ज्ञान पाया कि लगभग हर फल, फूल, धान से शराब बनाई जा सकती है। और यह भी कि किसी भी शराब को बनाने के लिए शक्कर या गुड़ बहुत ज़रूरी चीज़ है। शराब का नशा पीने से कहीं अधिक बनाने की विधि में भी है। बेहतरीन शराब बनाने की तीन अहम विधियाँ हैं। पहले बहुत धैर्य और यत्न से शक्कर (गुड़), फल (फूल या धान), यीस्ट वग़ैरह का घोल बनाकर आथा (माल्ट) जमाओ। सही तरीक़े से जमाया गया आथा शराब को सही स्वाद देगा। दूसरी विधि है उस आथे में अपनी पसंद के मसाले मिलाकर सही ताप पर शराब निकालो। सही तरीक़े से मिलाए गए मसाले और आथे से उबालने की क्रिया शराब को सही सुगंध देगी। तीसरी विधि है उस निकाली गई शराब को अपने पसंदीदा पेड़ की छाल में सही तरह से मिलाकर लंबे वक़्त तक कहीं गाड़कर रखना। सही तरीक़े से की गई यह आख़िरी विधि शराब को सही रंग और नशा देगी। यूँ अनुभव से कहूँ तो शराब बनाना क़तई शौक़ पालने चीज़ नहीं है, वह जीवन को कुछ रंगीला-नशीला बनाने की दवा है।

सियोत में मित्र के पास पहले से बनी रखी हुई भिन्न-भिन्न बाईस तरह की शराब को जाँचने के बाद यह कह सकता हूँ कि दुनिया भर की शराबों को मैं पी लूँ, महुए और खारेक की शराब जैसी दूसरी कोई शराब नहीं होती। उपरोक्त तीन प्रकार की शराब सिर्फ़ शराब नहीं पूरी एक संस्कृति का नशा, स्वाद, सुगंध, रंग से भरी-पूरी दुआएँ-दवाएँ होती हैं। गला तर करते ही हवा, धूप, मिट्टी, नभ, आग, जल जैसे तत्त्वों की अनुभूति होने लगती हैं और समाज, राष्ट्र, दृष्टि, गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश की सरहदों के पार मनुष्य अपने मन-माफ़िक़ संसार रचते हुए मुक्ति, मस्ती, महक, सुकून, मौन, मनन का सुख पा सकता है। रामा की मुहावरेदार भाषा में कहूँ तो—‘एक सुख महेरारू, सौ सुख दारू!’

कल का चढ़ा महुआ अब तक अंग-अंग से महक रहा है और दोस्त ने दो बोतल खारेक का बोझ भी साथ लाद दिया है। अब कई दिनों तक लहू में आग और खाल में राग रहेगा।


मेरी कोई स्त्री नहीं

6 अप्रैल 2020

सियोत से लौट आने के बाद दो दिन से खेत पर ही पड़ा हूँ। यूँ पड़ा रहना मेरे स्वभाव के विपरीत रीति है। गतिशीलता, भटकन (मन और तन दोनों की) और उत्पात में ही मेरी आभा है और मुझे सुभीता है। मैं बहुत देर तक कहीं पड़ा नहीं रह सकता और बहुत देर तक एक जगह खड़ा भी नहीं रह सकता। लेकिन छड़ा रहने का गुण (अवगुण) मैंने ख़ुद विकसित किया है और जड़ा तत्त्व मुझमें स्वभाव-गत है। ऊँटों, घोड़ों पर चढ़े-बैठे हुए मैं महीनों, सालों के लंबे सफ़र भी काठियों पर ही तय करता हुआ मस्ती से जीवन काट सकता हूँ, परंतु खाट या कमरे में पड़ा-पड़ा में एक दिन में ही सड़ने लगता हूँ। प्रवृत्ति और गति ही मेरे जीवन की नियति है, रीति-प्रीति है, मेरी सर्व रिद्धि-सिद्धी है।

लॉकडाउन में खाद्य-सामग्री भरते समय चाय-पत्ती लेना बिसर गया था। आज सुबह से ही मेरे पास चाय-पत्ती ख़त्म हो चुकी है। ग्रामीण किराना व्यापारी सुनार बन गए हैं, चाय-पत्ती तीन-चार-गुना मूल्य पर बेच रहे हैं। आज पीरजी को पाँच गाली देकर मैं बिना चाय-पत्ती ख़रीदे ही लौट आया; सोचा कि चार दिन चाय नहीं पीऊँगा तो मर नहीं जाऊँगा। पर दुपहर तक राजूसिंघ मिलने आ गया, वह अपने घर से कुछ चाय-पत्ती लाकर दे गया।

राजूसिंघ कुछ दिनों से मेरे वहाँ कम आता है। राजूसिंघ का पिता ज्वाहरसिंघ नौकरी से छूटी लेकर हफ़्ते भर के लिए घर को आए थे जोकि मुझे बिल्कुल ही पसंद नहीं करते। उन्हें राजूसिंघ की मुझसे दोस्ती, मिलना-जुलना राज़ नहीं आता। उन्हें लगता है कि राजूसिंघ मेरी संगत में रहकर मेरी तरह ही बिगड़ जाएगा। इसलिए राजूसिंघ ने अपनी शांति और ख़ुशी बनाए रखने के लिए अपने पिता के घर रहते हुए कुछ दिन तक मुझसे, मेरे डेरे से दूरी बनाए रखी थी।

साकरिया गाँव में बहुत कम लोग मेरे दोस्त या हितेच्छु हैं, पर ‘नागा से आघा ख़ासा’ वाली कहावत का ज़िक्र करते हुए सब एक सुरक्षित दूरी बनाए रखते हैं। उनके मेरे प्रति घृणा के कई सारे कारण होंगे, परंतु मुख्यत: तीन ही कारण हैं। पहला कि मेरा खेत गाँव के निकट है और गाँववालों के ढोर-ढाखर बार-बार खेत में घुसकर फ़सल बर्बाद कर देते हैं। मैं उनके विरूद्ध उचित क़दम उठाता रहता हूँ, इसलिए उनकी नज़र में ज़हर का काँटा बना हुआ हूँ। वे चाहते हैं कि मैं अपना खेत खेड़ना छोड़ दूँ ताकि उनके पशु खुले-आम चर-विचर सके। दूसरा कारण है मेरी जीवनशैली; वे समझ ही नहीं पाते कि एक जवान लड़का अपने परिवार से अलग यूँ बेकाम क्यों भटकता रहता है। मेरा कोई भी काम कर लेना, कहीं भी रह लेना, कहीं भी चले जाना उन्हें विचित्र और संदेहास्पद लगता है। ऊँट पर आवारा वन-वन भटकते रहना और दूर-दूर यात्राएँ करना उनके लिए एक बेकार और बेवक़ूफ़ाना चीज़ है। उन्हें कमाते-धमाते, काम-धंधा करते, शादी-बच्चे करते और गाड़ी-बँगला ख़रीदते पारिवारिक और पारंपरिक युवा पसंद हैं। मुझसे उनके ख़फ़ा रहने का तीसरा कारण मेरा अधार्मिक और अनीश्वरवादी होना है। मुझे वे एक पागल, सिरफिरा, बेवक़ूफ़, बदतमीज़, बिगड़ैल, उपद्रवी, क्रूर, ग़ुस्सैल, घमंडी, कामचोर, आवारा, सनकी, कलंक, धर्मभ्रष्ट, पथभ्रष्ट, पागल और न जाने क्या-क्या समझते रहते हैं।

मेरे बारे में कई सारी अफ़वाहें, आशंकाएँ फैलती रहती हैं जो मुझे अपने कुछ दोस्तों के द्वारा ज्ञात होती रहती हैं। कई लोग मुझे पागल समझते हैं और कई समझते हैं कि मैं किताबें पढ़-पढ़कर पागल हो चुका हूँ। किशोर और नवयुवा लड़के-लड़कियों में किसी ने धारणा बनाई है कि मैं किसी लड़की के प्रेम में असफल होकर अपने को इस तरह नष्ट कर रहा हूँ। किसी को लगता है कि मुझे किसी बुरी प्रेतात्मा ने अपने वश में कर रखा है। कोई दावा करता है कि मैं ईश्वर, देवताओं में विश्वास नहीं करता इसलिए उनका कोप मुझ पर उतरा है और इसलिए उनकी अवज्ञा की सज़ा के तौर पर यूँ भटकते रहने को अभिशापित हूँ। जबकि कुछ सहृदय लोग मानते हैं कि मैं कोई रहस्यमय पीर-फ़क़ीर हूँ। और बाक़ी जो मुझे लेकर ग़लतफ़हमियों, अवधारणाओं की कुछ कसर रहती भी थी तो वह मेरा स्वभाव पूरी कर देता है। मेरा घमंड, ग़ुस्सा और हिंसा उनकी ज़्यादातर मान्यताओं, धारणाओं को पुष्टि करने के लिए बहुत है।

इस तरह की सारी अफ़वाहों, ग़लत धारणाओं के कर्ता-धर्ता तीन लोग हैं। एक वह पाबूजी मंदिर का ओझा भेरजी, दूसरी वह अमीर, युवा-विधवा और तीसरा वह झाड़-फूँक, ऊँट-वैद्यी, दलाली और धतिंगबाज़ी करता मज़ार का मुल्ला मोटामियाँ। क्योंकि तीनों ही कई-बार मुझसे गालियाँ, लातें और हार खा चुके हैं; जिसका रंज निकालने के लिए उन्होंने यह तरीक़ा निकाला है जो मेरे लिए नुक़सानदेह कम और फ़ायदेमंद ज़्यादा है।

कच्छियत की मिली-जुली, साझा संस्कृति के दिन अब गुज़रा ज़माना हो चुके हैं। हमारे गाँवों में अब समाज का स्पष्ट ध्रुवीकरण हो चुका है; एक तरफ़ कट्टर हिंदू हैं और दूसरी तरफ़ कट्टर मुस्लिम। आपका किसी एक धड़े में न होना, दोनों धड़ों से दुश्मनी मोल लेना है। पता नहीं यह धार्मिक कट्टरवाद का ज़हर गाँवों में कब से फैलना शुरू हुआ, पर अब उसकी जड़ें बहुत गहरी पैठी जान पड़ रही हैं। गाँव-गाँव में कोई न कोई कट्टर हिंदू संगठन और मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन चल रहा हैं। ऐसे संगठन गाँव के कुछ सबसे निकृष्ट और बदमाश लौंडों को संगठन का कोई पद-वद देकर धार्मिक वैमनस्य को फैलाने का काम करते रहते हैं। ऐसे में मेरे जैसे अधार्मिक और अनीश्वरवादी लोग सबकी आँखों की किरकिरी बने रहते हैं। उनके नज़रिए में ऐसे लोग ग़द्दार, देशद्रोही, काफ़िर, विद्रोही वग़ैरह होते हैं।

ढलती शाम को मैं चूल्हे पर चाय चढ़ाए बैठा था, तब गाँव से मेरे डेरे की ओर चलकर आते ज्वाहरसिंघ को देखा। मैं कुछ कटु-वचन कहने-सुनने के लिए अपने मन को मना रहा था और अपने आपको समझा रहा था कि वह कितने भी कड़वे वचन कह लें, तब भी विचलित हुए बिना शांति और धैर्य बनाए रखना है। याद रखना है कि वह मेरे दोस्त के पिता हैं और उम्र से भी पिता समान हैं, कुछ बुरा-भला कह भी दें तो सुन लेना है और पलटकर कुछ भी कहना-करना नहीं है। वह अपनी बड़ी-सी तोंद को मटकाते हुए आ रहे थे, दूर से किसी मदमस्त चलते भैंसे से लग रहे थे। मैंने अपनी तसल्ली को चाय से भरा और उसे सुड़कने लगा; पतीली में कटोरी भर चाय उनके लिए भी बचा रखी थी। वह आए तो आवकार देकर खाट पर जगह दी और चाय की कटोरी भी थमा दी। चाय सुड़कते हुए वह मेरी फ़सल ख़राब होने की, ऊँट की, खेत में हल चलाने जैसी पूछताछ भरी, ख़बर लेने वाली बातचीत करते रहे। फिर कुछ देर शांत रहकर मुद्दे की बात बताई कि लॉकडाउन के चलते गाँव में कहीं भी शराब नहीं मिल रही; तुम्हारे पास अगर हो तो उसमें से कुछ मुझे दे दो, पियासी आदमी हूँ बिना दारू के रात को खटिया में पड़े-पड़े बदन टूटने लगता है और रात भर नींद नहीं आती; बस, करवटें बदलता रहता हूँ। मैंने अपने पास पड़ी सियोत से पाई खारेक की बची एक तिहाई बॉटल उन्हें थमा दी। शराब पाकर रोमांचित हुए उनके मुख की चमक देखने जैसी थी।

डेरे में खाट पर पड़े पड़े अंग अकड़ाना बहुत हो चुका था, इसलिए तुरंत खब्बड़सिंघ पर पलाण बाँधा और ऊँट पर सवार होकर निकल पड़ा कमा-हमीर के डेरे की ओर। लगाम को हल्का-सा झटका देकर ढीला किया और खब्बड़सिंघ की छाती पर एड़ी क्या मारी कि पवन वेगी के पंख उग आए। देह की पूरी ताक़त को समेटकर उसने अपने पैरों में भर ली। अपने फ़ौलादी पैरों से मिट्टी गूँथता वह पश्चिमी नभ में भागते हुए सूर्य को आज झपट लेने को तत्पर था। उसके तेज़ क़दम ज़मीन पर पड़ते थे कि पीछे मात्र धूल का एक ग़ुबार उठता रह जाता। वह मेरी मनोदशा पढ़ लेने वाला और मेरे मन की गति से चलने वाला मित्र था। क़रीब क़रीब आधे-पौने घंटे में सूर्य को आंब लिया। दस मील का फ़ासला काटकर सूर्यास्त होने से पहले कमा-हमीर के डेरे पर जा धमके थे। खब्बड़सिंघ के मुँह से हल्के से जाग निकल रहे थे पर अब भी उसकी सारी देह थिरक रही थी; मानो वह धरती को आज नाप देना चाहता हो। खड़ा होकर भी आगे जाने को उछल-कूद रहा था, हमीर तुरंत समझ गया कि आज हम दोनों कहीं आखेट खेल आए हैं। उसने सिर्फ़ इतना कहा कि रा, बे-वजह इसे तेज़ मत तगड़ा करो।

साध सूआ ऊँटनियों को दोह रहा था, ढोलर तालाब से जल भर रहा था और झलू खोई हुई ऊँटनी की खोज में गया हुआ था। कमा मुझसे दुआ-सलाम करके अपने पाँच-सात ग्राहकों में व्यस्त हो गया। हमीर ने बताया कि कमा का चिलम-धंधा बहुत बढ़ चुका है, दिन भर में तीन-चार हज़ार तक की कमाई कर लेता है। चिलम का भाव बढ़ाकर पचास रुपया प्रति चिलम कर दिया है और चिलम के तलबगार ग्राहक बढ़कर तीस-चालीस हो गए हैं। मुझे भरोसा तो नहीं हो रहा था, पर कमा ने भी अपनी कमाई की बात पर हामी भरी तब फिर संशय की कोई वजह ही नहीं बची थी। आस-पास के बीसियों गाँवों के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक गोरख-धंधा चलाते सारे कुनबों के निहायत हरामी और अय्याश लौंडे इन दिनों अपनी बीड़ी-सिगरेट की तलब कमा की चिलम से मिटाने आते थे।

मुझे वहाँ आया देखकर कइयों की ज़बानें गूँगी हो गई और कइयों को काठ मार गया। सब धीरे-धीरे एक एक करके वहाँ से छू होने लगे। कमा ने आकर कहा कि सब तुम्हें देख भड़ककर चले गए। मुझे इस अड्डेबाज़ी के बारे में ज्ञात होता तो यहाँ न आता। कोरोना, सरकार और क़िस्मत द्वारा अनायास ही अपने मित्र को चार पैसे कमाने का अच्छा मौक़ा मिला था जिसे मैं अपनी वजह से चौपट नहीं कराना चाहता था और दूसरा कि मैं उन हरामज़ादों की मनहूस शक्लें भी नहीं देखना चाहता था।
ढोलर द्वारा खारी-भात बनाई गई थी जिसे उदरस्थ करके मैं वापस जाने को हुआ। हमीर और कमा ने वहीं रात रुकने का बड़ा आग्रह किया, पर मैंने जाने की ज़िद की तो उन्होंने अच्छे मित्रों की तरह जाने दिया। मेरा यूँ अचानक दोस्तों के घर जा धमकाना और अचानक वहाँ से चले जाना सामान्य है। ऐसे कई अनुभवों से गुज़र चुकने के बाद अब मेरे ज़्यादातर मित्र न आश्चर्य जताते हैं और न मुझे रोकने का व्यर्थ प्रयास करते हैं। उन्हें पता होता है कि मैं मनमौजी, तुनकमिज़ाज और मुक्त व्यक्ति हूँ जो किसी के रोके रुकने वाला नहीं हूँ और न किसी के कहे जाने वाला हूँ।

खब्बड़सिंघ चाँद की रौशनी के आग़ोश में सोई हुई धरती को हल्के-हल्के पैरों के स्पर्श से सहलाता धीर-गंभीर चाल में चला आ रहा था। कहीं-कहीं झाड़ियों में डरे हुए पंछी पंखों को फड़फड़ाते हुए सुजाक हो जा रहे थे। दूर कहीं एक टिटहरी चीख़ रही थी जिसकी आवाज़ हवा और फ़ासले से छनकर बहुत मद्धम होकर कानों तक पहुँच रही थी। ऊँट पर सवार मैं अपने आपको इस वक़्त आवाज़हीन, आत्महीन और बिल्कुल अकेला महसूस कर रहा था। इस तरह की भावनाओं के पीछे कोई वजह या घटना हो यह भी ज़रूरी नहीं। कई बार बेवजह ही ऐसी भावनाएँ महसूस करता हूँ और अपने आपको अंतहीन, गहरी और अँधेरी खाई में गिरता हुआ पाता हूँ। पर अब तक मेरे लिए गिरना कभी डूबना नहीं हुआ, ग़ोता लगाना ही हुआ है।

मैं अपने डेरे न जाकर रामा के बाड़े चला गया। रामा के ‘ताज़ी’ नस्ल के चीतेनुमा कुत्तों ने आधा मील दूर तक लेने आकर हमारा अपने स्वभावगत अंदाज़ में स्वागत किया। अंततः मुझे और मेरे ऊँट को पहचानकर वह शांत हो गए। रामा अपने मोबाइल पर वीडियो देखते-देखते सो गया था और खटिया पर बेसुध होकर उल्टा लेटा पड़ा था। उसे देखकर एकबारगी लगा कि कहीं मरा हुआ तो नहीं पड़ा है। मोबाइल में पोर्न वीडियो चलकर अटक गया हुआ था। मैंने सोए हुए रामा के पिछवाड़े पर ज़ोर की एक लात जमाई। वह तुंरत हड़बड़ाकर उठा और चिल्लाकर मुझे माँ की गाली दी। चाँदनी के धुँधले उजियारे में मेरी और ऊँट की परछाइयाँ देखकर उसने हमें पहचाना और कहा कि यार तुमने मुझे डरा दिया, मैंने सोचा कोई भूत-प्रेत या शत्रु आ गया। तुमको रात को भी सुख नहीं है?

रामा ने बकरियाँ दोहकर चाय बनाई और फिर अपनी मुझसे नाराज़गी ज़ाहिर की कि तुमने ज्वाहरसिंघ जैसे को दारू दिया पर मुझ जैसे मित्र को नहीं दी। मुझे वह ताने देने लगा कि तुम एक नंबर के स्वार्थी और मूर्ख हो। रामा के साथ यह एक समस्या है कि वह रूठेगा तब बहुत दूर-दूर रहेगा और जब मान जाएगा तो सिर पर आकर बैठ जाएगा। मैंने उसे शांत और राज़ी करने के लिए कहा कि कल-परसों तक तेरे लिए भी कुछ जुटाता हूँ। वह फूलकर कुप्पा हो गया। सोने के लिए रामा ने अपनी खटिया ख़ाली कर दी, पर मैं वहाँ रहना नहीं चाहता था। ऊँट लेकर अपने डेरे चल दिया।

नींद ग़ायब है, अरब सागर के जल से सन्नी शीतल हवा सुख दे रही है और मनोद्वेग को दूर धकेल रही है। तारों से नभ टिमटिमा रहा और कुछ दूर हवा से अठखेलियाँ करता नीम ग़ज़ब का महक रहा है। बाक़ी सब कुछ शांत है, सिर्फ़ हवा और पेड़ों की सरसराहट है। शीतल हवा मचान पर लेटी पड़ी मेरे नग्न देह को हल्के स्पर्श से सहला रही है। नीमोज़र की गँध नस-नस में प्रवेश कर पूरी देह को बहका-बहला रही है। लंबे समय बाद स्पर्श और गंध को महसूस किया था। मैं काम-भावना से भर गया। पर रति-क्रीड़ा किसके साथ खेलता? रात्रि चाँद का पड़खा सेव रही थी, बाक़ी स्त्रियाँ अपने-अपने पुरुषों के अंगों से सटी-लगी हुईं होंगी। मेरी स्त्री कहाँ? मेरी बदनसीबी तो देखिए कि इस मादक रात में भी अकेला हूँ… और इस अफ़सोस के विष को गटक रहा हूँ कि मेरी कोई स्त्री नहीं!


सुनहरा और शोर भरा सौंदर्य

7 अप्रैल 2020

राजूसिंघ आकर मेरी नींद का बेरी बना। दुपहर हो चुकी थी। देर रात तक जागता रहा था, इसलिए बहुत देर तक सोता रहा था। राजूसिंह अपने घर से तसला भर विश्नान लाया था मेरे लिए और उसे जल्द खाकर तालाब में नहाने चलने की हिदायत दे रहा था। मैंने अपने नंगे बदन को धड़की से बाहर लाने से पहले एक अँगोछे से धोतीनुमा लपेटा और कुल्ला करके सीधे विश्नान पर झपट पड़ा।

तुलछासर बहुत पुराना तालाब है, जिसे किसी तुलसीदास सेठ ने बनवाया था। पत्थरों की पाल, घाट और पड़थार तो अब टूट चुके हैं, पर उसकी भव्यता के निशान अब भी मौजूद हैं। मैं और राजूसिंघ मोटरसाइकिल से जब तुलछासर पहुँचे तब तक वहाँ अन्य सखा मंडली मौजूद खड़ी थी। भावला था जो राजूसिंघ के चाचा का लड़का है और पूरे गाँव में लड़के-लड़कियों के बीच संदेशवाहक का काम करने में मशहूर है। उम्र में 15-16 साल का होगा पर हरामीपने के हर तजुर्बे में पूरा बीस है। लंबी-चौड़ी क़द-काठीवाला भोजा था जो कुछ गाँ*** का यार होने और काम करने के मामले में मशीन होने की उपाधि से सम्मानित था। डूँगरा था जो मेरी तरह ही पागलों और बार-बार घर छोड़कर भाग जाने वालों में गिना जाता था। सयाना लड़का प्रवीण भी था कि जिसका पिता उसे बारह साल का छोड़कर मर गया था और घर की सारी ज़िम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई थी और वह उसे बख़ूबी मेहनत करके निभा रहा था। अघाए साँड़ की तरह अल-मस्त हुआ उसका हरामख़ोर चाचा पेथा सिर्फ़ ठाकुरसुहाती, अय्याशी करता पड़ा रहता था और इस भतीजे की कमाई पर मज़े लूटता रहता। जुड़वा भाइयों की जोड़ हरा-वीका भी थे जो दोनों बहुत सीधे-सादे लड़के थे। उनके पिता लछमणिंग से मेरी अच्छी-ख़ासी जमती है।

डुबकी-तैराकी, पकड़म-पकड़ाई, पाल पर के बड़ के पेड़ से कूदम-कूदाई और पत्थरों को पानी की सतह पर फेंककर टप्पा खिलाने जैसे कई खेल करके थक गए। तीन-चार घंटों की मौज-मस्ती ने थका दिया था। सबकी आँखें पानी में डुबकियाँ लगा-लगाकर लाल हो गई थीं और पेट भूख के मारे गुड़गुड़ाने लगे थे। स्नान-नहान की मस्ती से निपटकर सब अपने अपने घरों की ओर भागे-धँसे हुए जा रहे थे। प्रवीण, भावा और मैं राजूसिंघ के साथ चौना-सवारी होकर अपने डेरे आए। सबने चाय-बिस्किट से थकान और क्षुदा मिटाई।

आज माँ, माँसा और कुछ दोस्तों से बातचीत भी हुई। माँ और माँसा से रोज़, दो-रोज़ बात होती ही रहती है। उन दोनों द्वारा प्रतिदिन डाँट-डपट, सलाह-सूचन, हिदायत-हेत और चिंता-प्रेम की ख़ुराक मिलती रहती है। उन्हें लगता है कि जैसे सारी दुनिया की आफ़तें मुझ अकेले पर ही उतरने वाली हैं। मैं उन दोनों की सारी बातें सुन लेता हूँ। उनसे अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा मुँह चढ़ाए हुए चुप्पी ओढ़ लेता हूँ या वात करते हुए ज़रा-सा अकड़ा हुआ रहता हूँ। वे दोनों तुरंत मेरी नाराज़गी भाँप लेती हैं और मनाने के लिए लाड़-दुलार करती हैं। माँ से कल ही किसी बात पर रूठा था, आज उसने “मुँजो सिंह पुत्तर, मुँजो डाह्यो डिकरो, मुँजो मीठड़ो बच्चो (मेरा शेर बेटा, मेरा अच्छा पुत्र, मेरा मीठा मीठा बच्चा)” कहकर लाड़-प्रेम से मना लिया। माँसा को मेरे लिए बहुत कम समय मिलता है। उसकी और भी संतानें हैं तो सबमें प्रेम बँट जाता है। मुझ तक उसके स्नेह-निवाले बहुत कम पहुँचते हैं। पर माँ की मैं अकेली औलाद हूँ, उसका नेह-स्नेह सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे लिए होता है, किसी से बँटता नहीं। उसका प्रेम सदा और सारा मेरे पर ही बरसता रहता है।

माँ साल में कुछ दिन मेरे पास-साथ रहने आती है। अक्सर जनवरी-फ़रवरी की सर्दियों में वह देश आती है, पर इस साल वह मेरे पास नहीं आ पाई। पहले नानी की बीमारी की चिंता, फिर नानी के पासपोर्ट-वीज़ा का झंझट और फिर कोरोना महामारी के चलते वह न आ पाई। इन दिनों सारी दुनिया की आवाजाही रुक-सी गई हैं। कई लोग अपने प्रियजनों से दूर दुनिया के किसी कोने फँसे रह गए हैं। कई लोग अपने लोगों से मिल नहीं पा रहे हैं। जो भूमंडलीकरण पूरी दुनिया को एक-दूसरे से जोड़ता है और उसी भूमंडलीकरण की बदौलत कोरोना महामारी तुरंत विश्व भर में फैल जाती हैं और लोगों के बीच एक अलगाव-रेखा खींच देती हैं। यह किसने सोचा होगा कि इस तरह का अलगाव भी एक दिन झेलना होगा!

आज एक अहमदाबादी स्त्री-मित्र से बातचीत हुई थी। उसने ताना मारने के लहजे में मुझे छेड़ा कि ‘लव-लाइफ़’ और ‘सेक्स-लाइफ़’ कैसी चल रही तुम्हारी? ‘तुम्हारी तरह मज़े नहीं हैं’ के अलावा और क्या ही जवाब देता? पर सच्च यह है कि मेरी ‘लव-लाइफ़’ कभी पनपी ही नहीं और ‘सेक्स-लाइफ़’ में कभी सुस्ती आई ही नहीं। हालाँकि इन दिनों ‘सेक्स-लाइफ़’ पूरी तरह गड़बड़ा चुकी है। लॉकडाउन की वजह से सभी संभोगी-भोगी-संगी स्त्री-मित्रों के पुरुष घरों में ही पैर जमाए पड़े थे, इसलिए हमें चोरी-छिपे रास-लीला करने का मौक़ा ही नहीं मिल रहा था। सखियों से दूर रस से भरा हुआ भी मैं सूखा जा रहा था। असल में मैं एक विशुद्ध प्रेमी हूँ—स्पर्श, चुंबन और गंध का रसिया। कोई वासनाभोगी लंपट नहीं हूँ, पर जिन्हें प्रेम किया उन्हें कभी पा न सका तो जो मुझसे दिल्लगी करना या देह-सुख पाना चाहती हैं—उन पर ख़र्च हो रहा हूँ। अब यूँ ख़र्च होना भी अच्छा लगता है कि कम से कम किसी के काम तो आ रहा हूँ। कल को यह देह, जीवन सब नष्ट हो जाना है तो क्यों न किसी को मस्त करूँ और मस्त रहूँ!

8 अप्रैल 2020

रात को जल्दी सो जाने का फ़ायदा है कि आप सुबह जल्दी जाग जाते हैं और परोढ़ का सुनहरा और शोर भरा सौंदर्य देख पाते हैं। पंछियों का शोर-कलशोरनुमा प्रातःगान, सीम को चरने जा रहे गाय-भैंस, भेड़-बकरियों के टोलों के धरती पर सामूहिक खुर रगड़न से उठती गो-धुली, लोटों-डिब्बों में जल भरकर ‘वन-भ्रमण’ की क्रिया निपटाने हेतु झाड़ियों की आड़ ढूँढ़ते नर-नारी और मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे के लाउड-स्पीकरों से आती घंटी-आरती, इबादत-अज़ान, कीर्तन-गुरुबानी की आवाज़ें मचान पर बैठे-बैठे देख-सुन रहा था। धर्मस्थलों से उठती ये आवाज़ें कभी-कभी सुरीली लगती हैं तो कभी-कभी सिर-फोड़ू शोर। उनका भाना और सताना तत्काल मनोस्थिति और परिस्थिति पर निर्भर करता है। आज सब कुछ भा रहा था, क्योंकि अच्छी नींद ने मनोस्थितियाँ और परिस्थितियाँ बहुत अनुकूल और ख़ुशनुमा बना दी थी।

एक हाथ में डिब्बा और दूसरे हाथ में अपनी धोती पकड़े भेरजी भोपा भागा-भागा-सा मेरे खेत-डेरे की तरफ़ निपटने आ रहा था जिसे मैंने मचान की ऊँचाई पर बैठे-बैठे दूर से ही देख लिया। मैंने अपनी मूँड़ी झुका ली और मचान पर लेटकर छिप गया। वह सीधा मेरे खेत की बाड़ के पास आकर उकड़ूँ बैठ गया। मैंने तुरंत गोफन अपने हाथ की और उस पर पत्थर चढ़ाकर तान दी। गोफन से निकला पत्थर भेरजी से कुछ दस फ़िट दूर कँटीली बाड़ में फटाक-सी आवाज़ करता धँस गया। भेरजी डरकर चीख़ा, “बचाए पाबू भालालो (बचाना, पाबूजी)।” मैं मचान पर गोफन थामे खड़ा ग़ुर्राया, “भोपा, ताज़ी कुत्ती इत्थ कित्थ ती माँज़ी कंधी मीं कँटा थी खाए (भोपा, तुम्हारी कुतिया यहाँ कहाँ आकर मेरी बाड़ के काँटे खा रही है?)?” भेरजी मुझ पर गालियाँ और अभिशाप बरसाता हुआ अपना गू से लिथड़ा पिछवाड़ा उठाए झाड़ियों की ओर भागा जा रहा था। सुबह सुबह किसी कमीने इंसान को सताकर मनोरंजन लेने से तन-मन तंदुरुस्त हो गया।

चाय-पानी और बाक़ी सारी प्रातःकालीन क्रियाएँ निपटाकर खब्बड़सिंघ की खोज में निकला। परसों रात कमा-हमीर और रामा के डेरों से लौटकर उसे चरने छोड़ दिया था, तबसे उसकी कोई खोज-ख़बर नहीं ली थी। वह उत्तर दिशा की ओर चरने गया था, अंदाज़ है कि समंदर के किनारे या फ़ौज की चौकियों के आसपास कहीं होगा। एक चौकी पर जाकर जवानों से टोह ली तो उन्होंने बताया की कल शाम को वह यहाँ उनके पौधों से भरे बाग़ को नष्ट करके पश्चिम की पोस्टों की ओर गया है। समदंर के किनारे पैरों के निशान, लाणा और चेर के पौधों को दाँतों से ख़रोंच-तोड़कर खाने के चिह्न और हग्गे गए मींगणो के ज़रिए उसका पीछा किया। कुछ ही दूरी पर वह समंदर के किनारे मुलायम रेत में लोटता हुआ मिल गया।

ऊँट लेकर में अपने डेरे को लौटा कि दो लौंडे मेरी राह देखते हुए खड़े थे। एक था पास के गाँव का शराब का बूटलेगर और दूसरा था एक पुलिसवाले का लौंडा। एक अवैध शराब के धंधे से मालदार हुआ था तो दूसरा अपने बाप की हराम की काली कमाई से। उनके हाथों की उँगलियाँ अँगूठियों से और गले चेन से सुनहले हो रखे थे। वे दोनों मुझसे मेरा ऊँट कुछ दिन के लिए चाहते थे जिसके बदले में मुझे प्रति रात एक हज़ार रुपए देने का प्रस्ताव भी लाए थे। बात यह थी कि लॉकडाउन के चलते वाहन-व्यवहार पर सख़्त पाबंदी हो रखी थी और सड़कों व चौराहों पर जगह-जगह पुलिस ने कड़ी पहरेदारी कर रखी थी, इसलिए नव ईजाद हुए तंबाकू, गुटका, बीड़ी-सिगरेट के अवैध व्यापार की आपूर्ति में इन लोगों को दिक़्क़त आ रही थी। उनको इस समस्या के समाधान हेतु वन, सीम, झाड़ियों और पगडंडियों के रास्ते खेप करने के लिए मेरा ऊँट बहुत उपयुक्त युक्ति मालूम हुआ था। मैंने इस प्रस्ताव के बदले दोनों भड़वों को अपनी महत्तम शिष्ट ज़बान से खींकारकर वलामणा किया। वे चमकते, मुस्कुराते उजले चेहरे लेकर आए थे और अपनी काली स्कार्पियो गाड़ी से मुँह बनाकर चले गए।

आज मेरे पास फिर से चाय-पत्ती ख़त्म हो चुकी थी। दुकानदार तो चार-पाँच-गुना मूल्य बढ़ोतरी की वही क़ैंची लिए बैठे थे, पर मैं अपनी जेब कटवाने को राज़ी नहीं था। गुरुद्वारे के व्यवस्थापक और मित्र फ़तहसिंघ से चाय-पत्ती जुटाने का प्रयास किया पर फ़तहसिंघ ने बताया कि गुरुद्वारे का लंगर भी चाय-पत्ती, आटे की कमी से जूझ रहा है। कुछ देर बाद फ़तहसिंघ ने कॉल करके बताया कि ज़रूरी माल-सामान का जुगाड़ हो गया है पर जुटाने में ज़रा-सी मुश्किल हो सकती है। मुश्किल यह थी कि जिस बावाजी दोस्त की चाय की रेहड़ी में चार-पाँच किलो चाय-पत्ती पड़ी थी, वह लॉकडाउन के चलते बंद पड़ी थी और लखपत क़िले के उसी द्वार पर पुलिस का सख़्त पहरा लगा रहता था जहाँ वह रेहड़ी थी। और यहाँ पर ही बहुत सारे लोगों को क्वारंटीन किया जा रहा था जिसके चलते पुलिस, मेडिकल विभाग की टीमों और आला अफ़सरों की दिन भर चहल-पहल लगी रहती थी। बेचारे बाबा जी की हालत यह थी अपनी रेहड़ी चाय-पत्ती से भरी पड़ी थी और उनके घर में चाय-पत्ती न थी। तो तय यह हुआ की देर रात को जब सारी चहल-पहल मंद पड़ जाएगी, तब चोरी-छिपे रेहड़ी खोलकर चाय-पत्ती चुरा ली जाएगी और रातों-रात मेरे ऊँट पर धान लादकर चक्की पर आटा पीसवा लिया जाएगा। बाक़ी सारी सुविधाएँ देख लेना फ़तहसिंघ के ज़िम्मे था।

रात को बड़ी आसानी से हमने अपने मिशन को अंजाम दिया। फ़तहसिंघ ने चक्कीवाले से और पुलिस से बात कर रखी थी, जिन्होंने देर रात के हमारे इस मिशन में सहयोग भी किया। मैंने और बाबा जी ने आधा आधा किलो चाय-पत्ती ली, बाक़ी सब फ़तहसिंघ के हवाले की क्योंकि गुरुद्वारे की रोज़ की खपत बहुत थी। मैंने अपने लिए गुरुद्वारे से कुछ आटा और तेल भी जुटाया। अब कम से कम महीने भर के लिए तो चाय-पत्ती की चिंता से मुक्ति पा ही ली थी।


अव्यवस्था और अराजकता

9 अप्रैल 2020

सुबह सुबह मेरे डेरे पर अपनी घोड़ी लेकर विंज़ोजी आए। उनकी घोड़ी के खुर बढ़ गए थे जिसे उतरवाने वह आए थे। यह कितना सुखद आश्चर्य है कि बुढ़ापे में भी उनका घुड़सवारी का, घोड़ों का शौक़ वैसा ही बना हुआ है। मैंने उनकी घोड़ी के खुर उतार दिए। जाते हुए वह किसी दिन फ़ुरसत से अपने घर पर खाने का न्योता देकर चले गए।

सोचा कि आज कमा-हमीर के डेरे चला जाऊँ पर वहाँ चिलमबाज़ों की दुकान लगी रहती है। ख़ामख़ाँ किसी मनहूस का मुँह देखने और कमा का धंधा ख़राब करने में मेरी कोई रुचि नहीं थी। रामा के पास जाने में कम व्याधि न थी। वह कमीना पहले तो वादे के मुताबिक़ दारू माँगता और फिर अब तक न जुटा पाने पर बहुत ताने मारता। बहुत सारी खरी-खोटी भी सुनाता। सोचा, ऊँट लेकर आज कुछ दूर निकल जाता हूँ, गुनेरी जाकर राधोजी से मिल आऊँगा। ऊँट पर सवार होकर चल पड़ा।

पूरब सीम में गाएँ चराता गोधा मिला। गोधा रामा का छोटा भाई है और कभी-कभार रामा की बहुत ही सलीक़े से चंपी कर देता है। पिछले साल रामा के दो दाँत इसी तरह गोधा की चंपी में ही जवाब दे गए थे, तब से रामा खिब्बा है। गोधा भी मुँहफट है पर उसमें एक तमीज़, सरोकार की गुंजाइश रहती है। एक तो वह सिरफिरा और ऊपर से पहलवानी देहवाला है, इसलिए लोग उससे उचित दूरी बनाए रखते हैं। और गोधा किसीको भी मुँह पर कुछ भी सुना देता है जिसके चलते बहुत सारे लोग उससे क़तराकर भी चलते हैं। मेरी और उसकी बहुत अच्छी बनती है।

सीम में यूँ मिल जाने पर गोधा और मैं चाय चढ़ाकर बैठे बतिया रहे थे कि पास के कच्चे रास्ते से साइकिलों का टोला निकला। प्रौढ़ आंबा, युवा पाबूसिंघ, मनुभा तथा अन्य चार-पाँच लड़के थे जो सरकारी अनाज लेने लखपत गए हुए थे और बिना अनाज लिए रुआँसी शक्ल बनाकर लौट रहे थे। गोधा ने उन्हें चाय की हाँक दी तो सब रुके और वहीं कच्चे रास्ते पर साइकिलें खड़ी कर हमारे पास चाय पीने चले आए। गोधा ने उनसे यूँ शक्लें रुआँसी करने का कारण पूछा, तब लड़कों में से एक लड़के महावीर ने सारा वृत्तांत सुनाया।

हुआ कुछ यूँ था कि लॉकडाउन में सरकार ने ग्रामीणों और ग़रीबों को कुछ राशन सामग्री मुफ़्त में बाँटने की घोषणा की थी। सस्ता अनाज की सरकारी दुकानों द्वारा यह मुफ़्त अनाज ग़रीबों तक वितरण होने वाला था। पर सरकार की घोषणाओं में सौ में से बीस प्रतिशत ही सच होता है, इस गणित को यह जनता अब तक भी नहीं समझ पाई है! यही समझ-फेर उसके लिए अपमान, अन्याय, असमानता का सबब बनता रहता है। किसी जगह सरकार द्वारा जितना राशन प्रति कुटुंब घोषित हुआ था, उसका आधा तक नहीं मिल रहा था, किसी जगह बहुत ख़राब और सड़ा हुआ राशन मिल रहा था, किसी जगह लोगों को मिले बिना ही राशन ख़त्म हो चुका था और कहीं-कहीं राशन पहुँचा नहीं था। राशन वितरण अव्यवस्था के चलते शारीरिक दूरी के नियमों का पालन नहीं हो रहा था और शारीरिक दूरी के नियम की अमलवारी कराने पुलिस लोगों पर लाठियाँ चला रही थी। यूँ अनाज-वितरण लाठी-वितरण का प्रसंग भी बन गया था। एक तरह से अव्यवस्था और अराजकता फैली हुई थी।

इसी अव्यवस्था और अराजकता की शिकार आज ये साइकिल टोली हुई थी। पुलिस ने लोगों को लाइन में खड़ा करने और ‘सोशल डिस्टेंस’ बनाए रखने के लिए लाठियाँ भाँजी थीं, जिसमें आंबा और मनुभा की अच्छी-ख़ासी लठ्ठ-मसाज हुई थी। दोनों को अपनी स्याह पीठ और पिछवाड़ों के चलते बैठ सकने में भी बहुत कष्ट हो रहा था।

गोधा पूरे वाक़ए की मालूमात पाकर अब मज़े लेने के मुड़ में आ गया था। उसने आंबा और मनुभा से पीठ और पिछवाड़ा दिखाने की माँग की। वे दोनों शर्म, अपमान, बेचारगी से ना-ना करते हुए सिकुड़ते जा रहे थे और गोधा ठिठोली-ठहाके लगाते हुए ज़िद करने लगा। आख़िरकार गोधा ने ख़ुद ही उनका कुर्ता, धोती खींचकर उनकी पीठ-पिछवाड़ा देखने का प्रयास किया तो वे दोनों उठ-भाग खड़े हुए और चाय पीए बिना ही चल पड़े। आख़िर बाक़ी सबके लिए यह हँसी-ठिठोली का एक मौक़ा था! वे क्यों चूकते?

आंबा, मनुभा ने साथ आई और अब गोधा की चाय सुड़कती अपनी साइकिल टोली से चाय छोड़कर साथ चलने का आदेश फ़रमाया, पर किसी ने भी उनके आदेश को तवज्जोह नहीं दी। सब ढीठ बने हँसते रहे और चाय सुड़कते रहे। गोधा मुफ़्तख़ोर, हरामख़ोर, भिखमंगे जैसे विशेषणों से उन भागते हुए बेचारों को नवाज़ता रहा और कहता रहा कि सही हुआ इनके साथ, जहाँ कहीं भी कुछ मुफ़्त में बँटता है तो ये भिखारी पहुँच जाते हैं। कमीने गाँव का नाम डुबाते हैं। ऐसे डंडे पड़ेंगे तो जाना बंद कर देंगे। आंबा और मनुभा कुछ न बोले, सोचा होगा कि कौन इस साँड़ से उलझे।

मैंने सोचा कि गोधा से कहूँ कि यह मुफ़्त का नहीं हमारे ख़ून-पसीने की कमाई से पाए गए टैक्स से दिया जा रहा। सरकार कोई हम पर उपकार नहीं कर रही, हमारी ही कमाई आफ़त के समय में हमें यूँ लौटा रही है और यह सरकार दायित्व है। कोई दान-पुण्य नहीं कर रही हमें। पर गोधा को समझाना मेरे बस का नहीं था सो रहने ही दिया।

आंबा और मनुभा सबको बड़बड़ाकर गालियाँ देते चले गए। बाक़ी लड़के चाय-वाय पीकर कुछ देर गोधा की ठिठोलीयों-ठेठियों का मज़ा लेकर निकले। मैं भी चाय पीकर आगे चला।

हर व्यक्ति अपने से कमज़ोर व्यक्ति पर अपना रोब, घमंड, ताक़त दिखाकर अपने शक्तिशाली होने के भ्रम-अहं को संतुष्ट करता है। अपने से कमज़ोर के मुक़ाबले अपनी श्रेष्ठता साबित करना, सशक्तता दिखाना न मात्र मानवीय चरित्र है, अपितु प्राणी मात्र का यही चरित्र है। बॉस, मालिक या ऊपरी अफ़सर के आगे दुम हिलाता मुलाज़िम अपना सारा रोब अपने से निचले मुलाज़िमों पर निकालेगा, वह निचले तबके का मुलाज़िम घर आकर अपनी पत्नी पर ताक़त दिखाएगा और प्रताड़ित, पीड़ित पत्नी बच्चों पर या बर्तनों पर अपना ज़ोर आज़माएगी। यूँ हर किसी को कहीं न कहीं अपनी श्रेष्ठता, ज़ोर दिखाना ही है। एक मंत्री या राजनेता अपनी पॉवर का मुज़ाहिरा आला अफ़सरों को लताड़कर करेगा, अब मंत्री या नेता द्वारा लताड़ खाया तमतमाया कोई कमिश्नर, आईजी जैसा अफ़सर अपने से निचली कक्षा के अधिकारी एसपी, इंस्पेक्टर वग़ैरह पर आकर गरमाएगा, ये एसपी, इंस्पेक्टर जैसे अफ़सर कॉन्स्टेबल या सामान्य पुलिस जवान पर आकर बिफरेंगे, बिफरा हुआ सामान्य पुलिसकर्मी सामान्य जनता पर अपनी ताब दिखाएगा और ले लाठी टूट पड़ेगा। अब हर तरह से लुटी-पिटी ग़रीब जनता फिर अपना रोष बिचारी बेजान बसों, दुकानों, सरकारी संपत्ति पर न निकाले तब फिर कहाँ जाकर अपना ज़ोर साबित करे?

मैं भी यही करता हूँ, सत्ता मेरे मज़े लेती है और मैं अपने से कमज़ोर लोगों के मज़े लेता हूँ। अब कोई मानवीय मूल्यों, नैतिकता जैसी भारी-भरकम बातें करता है तो कह देता हूँ कि यह तो क़ुदरत का नियम है। डार्विन बाबा भी यही कह गए हैं न? सर्वाइवल ऑफ़ फ़िटेस्ट!

लखपत क़िले से लगकर पश्चिम-दक्षिण में नदी का चौड़ा पाट है। नदी के सूखे पाट में कुछ खेत हैं और छोटा-सा जंगल है। मीठ्ठी आम्मरी (गोरस इमली, जंगली जलेबी), गांडा बावर(पागल बबूल), झाल, और नीम जैसी वनस्पतियों की घनी झाड़ियों से यह जंगल हरियाली से छाया रहता हैं। मीठ्ठी आम्मरियों और गांडा बावर की फलियों से सारी ज़मीन लाल-पीली होकर अटी पड़ी थी। पंछियों, सुअरों, हिरनों, नीलगायों और घोड़ों के छोटे-छोटे टोले इन जंगली फलों का मज़ा ले रहे थे।

पंछियों में ख़ासकर यहाँ मोर बहुत हैं और गला फाड़-फाड़कर पूरा दिन शोर मचाते रहते हैं। इन दिनों कोरोना और लॉकडाउन के चलते इंसान की किसी भी तरह की दख़ल-अंदाज़ी, ख़लल नहीं थी, इसलिए वे बिल्कुल आश्वस्त और निर्भीक होकर मस्ती करते हुए इस वन में महफ़िल जमाए हुए थे। अक्सर इस मौसम में जब ये सारे जंगली फल पक आते हैं, तब ग्रामीण लोग अपने लिए और अपने पालतू पशुओं के लिए इन्हें बीनने जंगल आते हैं। दिन भर इस वन में लोगों का शोर रहता है, इसलिए जंगली पशु-पंखी डर के मारे यहाँ से दूर रहते हैं। पर इस-बार जंगल का माहौल अलग है। क़ुदरत ने इंसान को क़ैद कर दिया है और जंगलों के खरे बाशिंदों ने जंगल पर फिर से अपना क़ब्ज़ा कर लिया है। मुझे अचानक ही यूँ वहाँ जंगल आया देखकर वे ज़रा से झेंपे, पर फिर कुछ दूर खिसककर अपनी मस्ती फिर से डूब गए। नरों ने बहुत उत्पात मचा रखा था, वे मादाओं को चैन से मीठे वनफल भी खाने नहीं दे रहे थे। उन्हें भूलकर मैं और खब्बड़सिंघ (मेरा ऊँट) भी वन में अपना हिस्सा झपटने में जुट गए।
मिठास, रस, लावण्य, ललास, और जंगली स्वाद से भरी मीठ्ठी आम्मरियों को भर-पेट खाया। खब्बड़सिंघ ज़रा देर गांडा बावर की पीली फलियों पर टूट पड़ता फिर ज़रा देर मीठ्ठी आम्मरियों पर। मानो वह तय नहीं कर पा रहा हो कि अधिक मिठास और रसास्वादन किस में हैं? जहाँ इतनी मिठास, रस, स्वाद और सुगंध हो वहाँ भला मधुमक्खियों के छत्ते न हों यह कैसे संभव होता! लगभग हर पेड़ पर मधुमक्खियों ने बड़े बड़े मान्ने (छत्ते) बाँधे थे। हर एक मान्ने में एक से दो किलो तक मध (शहद) रहा होगा। यह मौसम ही मध के उत्पादन समय है पर इस-बार मधुख़ोर कहीं नहीं थे। मध इकट्ठा करने वाले इसी मौसम का साल भर इंतज़ार करते हैं। मधुमक्खियाँ इसी मौसम में छत्ते बुनती हैं और उन छत्तों के जालीदार छेदों में अपने बच्चों का सेवन-उछेर करती हैं। चैत-वैशाख और ज़्यादा से ज़्यादा ज्येष्ठ माह तक इनके छत्ते रहते हैं, फिर इनके बच्चे बड़े हो जाते हैं और मधुमक्खियाँ स्थानांतरण कर दूर देस चली जाती है। मीठ्ठी आम्मरियों का धराकर भोग चढ़ाकर हम दक्षिणी सीम के तालाबों की ओर चल पड़े।
वन की छाँव की आड़ से बाहर निकलते ही सूरज को सिर पर तपता पाया। उनाला की मौसम में आज पहली बार चैत की धूप के क़हर का अनुभव हो रहा था। धूप खुले अंगों को भुन दे रही थी। आग से नहाते हम दोनों जल्द से जल्द कहीं जल तक पहुँचना चाहते थे। आधे घंटे तक दुपहर की दाह झेलकर आख़िरकार हम हाँफते हुए पसीने से सन्ने ‘दक्खण तालाब’ जा पहुँचे। गोमाजी और इशु भी अपने अपने पशुधन के साथ यहीं पर बैठे दुपहर में आराम फ़रमा रहे थे। गोमाजी की भैंसे तालाब में नहा रही थी, इशु की बकरियाँ तालाब किनारे पेड़ो की छाँव तले सुस्ता रही थी और वे दोनों झाल की छाँव लेटे पड़े गप्प लड़ा रहे थे।

खब्बड़सिंघ काठी उतरते ही सीधे तालाब में कूद पड़ा और तालाब के बीचोंबीच जाकर डुबकियाँ खाने लगा। खब्बड़सिंघ के ख़ौफ़ से डरकर गोमाजी की भैंसे खिसककर कुछ दूर तालाब के किनारों पर कीचड़ में चली गई। हम तीनों ने मिलकर पेड़ की छाँव तले रेयाण जमाई और चाय चढ़ाई।

गोमाजी मेरे अज़ीज़ मित्र ख़ानजी के भाई हैं। साठ साल के क़रीब की उम्र को ओढ़े हुए बैठा यह बाँका बूढ़ा क़रीब-क़रीब साढ़े छह फ़ीट लंबा है। उम्र और श्रम के चलते लंबी काया ज़रा झुक-सी गई है। दस साल की मासूम उम्र से परिवार द्वारा गोमाजी को भैंसों के पीछे लगा दिया गया, तब से आज तक यह बंदा यूँ ही अपनी भैंसों की पीछे भटकता रहता है और लगभग इन पचास सालों से सीम में खुले आसमान के नीचे पड़ा रहता है। धूप हो, सर्दी हो या बारिश हो इसका बसेरा अपनी भैंसों के साथ रहता है। इतनी कठिन तपस्या फिर भी मुँह पर फ़क़ीरों-सी मुस्कान और आँखों में संतपुरुषों-सी करुणा और अपने कर्म में दार्शनिकों-सा गांभीर्य! मुझे गोमाजी किसी ऋषि-से लगते हैं।

चाय और गप्प कुछ देर चलती रही, फिर मैं तालाब में नहाने उतर गया। दोनों बुढ्ढे बाहर किनारे पर बैठे-बैठे मुझे ताल खेलता देखते रहे। शायद, उन्हें अपना यौवन याद आया हो।


ज़िंदगी के दिन देकर ज़िंदा रहने का मोह

10 अप्रैल 2020

शाम हो चुकी है और अपने डेरे पर लौटा हूँ। कुछ थका-सा, कुछ भूखा-सा। तत्काल तौर पर मैगी ने थोड़ी राहत दी। कल तालाब नहान के पश्चात वहाँ से निकला और संध्या-काल होते-होते राधोजी के खेत पर जा धमका था। फिर दोनों मित्रों की रात बड़ी रसरंजनयुक्त रही। देर रात तक जगराता करते हुए हम दोनों मित्रों ने क्रमशः मद्यपान, भोजन, पुनःमद्यपान, वार्तालाप और अंततः निद्राधीनता का सफ़र साथ-साथ तय किया था। सुबह जब नींद से जागे तब पता चला कि खब्बड़सिंघ (मेरा ऊँट) खेल कर गया है। रात को हम जब नींद में थे तब यह लंपट लौंडा किसी ऊँटनी के साथ भाग निकला था। पाँच मील दूर कोयला खदान के पास वह किसी ऊँटनी के साथ मस्ती करता हुआ खदान में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते राधोजी के भतीजे हेमराज को दिख गया था। हेमराज ने तत्काल राधोजी के सेल-फ़ोन पर कॉल करके यह सूचना मुझ तक पहुँचाई थी। मैं चाय पीकर फ़ौरन भागेड़ू प्रेमी-जोड़े के पीछे पड़ा।

ढाई-तीन घंटे की भागा-दौड़ी और सख़्त शोध-खोल के बाद खदान से कुछ दूर उत्तर दिशा-स्थित एक तालाब में उष्ट-युगल सहस्नान करता मिला। दोनों रति-क्रीड़ा का सुख भोगकर जल-क्रीड़ा का आनंद ले रहे थे। युवा ऊँटनी का सहवास करके खब्बड़सिंघ अधिक सुंदर और पाकट दिखने लगा था। दोनों को पानी से बाहर निकालने में मुझे कुछ मशक़्क़त करनी पड़ी, किंतु अधिक मुश्किल आई दोनों को अलग करने में। दोनों को जुदा करने में मुझे काफ़ी श्रम करना पड़ा और सख़्त होना पड़ा।
ऊँटनी के साथ रोमांस करने के चक्कर में खब्बड़सिंघ ख़ुद भी खाए-पीए बिना था और मेरा भी खाना-पीना आज मुहाल कर दिया था। संभोग के दरमियान काफ़ी उत्तेजना, आक्रामकता रही होगी। खब्बड़सिंघ के शरीर पर जगह-जगह ऊँटनी द्वारा काटे जाने के निशान पड़ गए थे। युवा ऊँटनी ने काफ़ी कसकर दाँत गड़ाए थे, कई जगह पर ख़ून फूट आया था। डेरे की और लौटते हुए वह बार-बार रुककर पीछे देखता रहा। कल रात के बाद मेरे पेट में कुछ ठोस खाना नहीं गया था। भूख, थकान और ऊर्जा की कमी के चलते मेरी हालत ख़राब हो गई थी।

मुझमें रात का खाना बनाने की न ऊर्जा थी और न मूड था, इसलिए रात के खाने के लिए राजूसिंघ को उसके घर से लाने के लिए सूचित कर दिया। खब्बड़सिंघ को भी खुला चरने न छोड़कर नीम के पेड़ से ही बाँधकर चारा नीर दिया। खुला छोड़ने पर वह फिर से उस युवा ऊँटनी के पीछे भाग जाता।

डायरी में जब ये ऊलजुलूल रेखाएँ खींच रहा हूँ, तब खाना लेकर राजूसिंघ अपनी मोटरसाइकिल लिए आ पहुँचा है।

12 अप्रैल 2020

कल पूरा दिन लेटे पड़े-पड़े सोता-सुस्ताता रहा। यूँ पड़े रहकर कुछ न करना ‘कुछ भी न करना’ नहीं होता। यूँ सोते-सुस्ताते हुए मैं अपने आप को पुनरोर्जित, पुनरोत्साहित और पुनर्गठित करता हूँ। यूँ ख़ुद को ‘रिचार्ज’ करके, मैं अपने आपको पुनर्जीवन देता हूँ। मौसमों की तरह बदलता, बँटा हुआ जीवन मुझे बहुत पसंद हैं। यूँ ही मैं अपने जीवन में वैविध्य, रस-रंग, उत्साह और आस्था बनाए रखता हूँ। मौसमों की तरह जिया जाता परिवर्तनशील जीवन ऊब, इकहरेपन और सड़न का ढेर जमा होने नहीं देता। जीवन में तरलता, गतिशीलता, तंदुरुस्ती, ताज़गी, रोमांच, लालसा और तारुण्य बना रहता है। इसी मौसमी जीवन रीति से ही मैं अपने जीवन को बचाए हुए हूँ और अपने जीवन के प्रति श्रद्धाशील बना हुआ हूँ। मन प्रफुल्लित और तन नव-ऊर्जा से संचित हो तो पखेरुओं की उड़ान-सी अनुभूति मिलती है। सब कुछ कितना हल्का, साफ़, सुरीला, मीठा है! पहले पहल जीवनानुभव जैसा…

खाना बनाना मेरे लिए सिरदर्द का काम है। हफ़्ते में मुश्किल से एक-दो बार ही यह खाना बनाने का पकाऊ उद्यम करता हूँ। मैं फल-सब्ज़ियों, दूध-दही और भीगे-फणगे हुए कठोल के सहारे ही रहता हूँ। ये सब सरलता से उपलब्ध हैं, सुपाच्य हैं और सबसे ज़रूरी कि इसमें बनाने-पकाने की बहुत सारी मेहनत से बचा जा सकता है। लंबे प्रवासों में कठोल मेरे लिए बहुत ही उपयोगी बने रहते है। चन्ने, मटर, मूँग या सोयाबीन को पानी में भीगे दो और ज़रा-सा मिर्च-मसाला-नमक छिड़ककर खा लो। सस्ती, सुलभ, सरल और ‘सॉलिड’ ख़ुराक!

गुटका, तंबाकू और बीड़ी-सिगरेट अब सोना-चाँदी बन चुके हैं। दस रुपए की विमल की पुड़िया अब दो सौ रूपए की मिलती है, पाँच रुपए में मिलती खैनी की पुड़िया के सौ रूपए लिए जा रहे हैं और बीड़ी-सिगरेट की तो और भी महँगी हालत है। जिन्हें गुटका, तंबाकू मिल नहीं रही या जो ख़रीद न पा रहे हैं; उनकी हालत तो बहुत ख़राब हो गई है। मोहन प्रतिदिन एक जुड़ी (बंडल) बीड़ी की लालच में पीरजी के घर पूरा दिन लकड़ियाँ चीरता रहता है। करशन जी ने प्रतिदिन दो विमल पुड़िया के हिसाब से भूरा और लाला से हफ़्ते भर में अपने घर के आँगन की पूरी चहारदीवारी चुनवा ली। बादल सेठ ने दस दिन में बुध्धा और पिग्गा से खैनी और खाने के बदले में पूरे पड़तर खेत की झाड़ियाँ कटवाकर साफ़ करवा लीं। गुटका-तंबाकूख़ोर लौंडे दिन भर मरियल कुत्ते की तरह पेट पकड़कर खटिया पर पड़े रहते हैं। बहुतों को दस्त लग गए थे और बहुतों को क़ब्ज़ हो गया था। बदहाल हुलिया और रोनी शक्लें देखकर उन पर करुणा उपजती थी। कुछ लोग रुआँसी शक्लें लेकर दुकानों, दलालों के चक्कर काटते रहते थे कि कहीं माल आ जाए और वह उनके हाथ लगे बिना निकल न जाए। दस गुना दाम देने पर भी माल नहीं मिल रहा था। जो कुछ माल आता वह बहुत कम मात्रा में और देर-रात को ही चोरी-छिपे आता था, क्योंकि अब पुलिस ने इस धंधे में धन देख लिया था। कुछ पुलिसवालों ने तो व्यापारियों से ज़ब्त किया हुआ माल कुछ दलालों के द्वारा बेचने का धंधा शुरू कर दिया था।

आज दुपहर एक मनोरंजक घटना घटी। मैं गाँव में टहलते हुए पीरजी के दुकान चला गया था। अमरसिंघ पीरजी को गालियाँ दे रहा था और वहाँ तमाशा देखने बहुत सारे लोग जुड़ गए थे। हुआ यूँ था कि रात को कुछ माल आया होगा जिसे पीरजी ने अन्य लोगों को दिया, पर अमरसिंघ को किसी कारण बीड़ी नहीं दी। बस, उसी बात को लेकर अमरसिंघ बिदक गया था। अमरसिंघ का कहना था कि वह इस लालची पीरजी की दुकान से पिछले पैंतीस साल से सारा राशन और माल-सामान ख़रीदता है, फिर भी इसने पैसे लेकर भी उन्हें बीड़ी नहीं दी और उनकी ‘एडवांस बुक्ड’ वह बीड़ी की जुड़ी किसी और को पीरजी ने निर्धारित भाव से दुगने दाम पर बेच दी। यूँ पीरजी ने अमरसिंघ से ठग्गी करके दुगने पैसे कमाने का गुनाह किया था, जिस पर अमरसिंघ का नाराज़ होना वाजिब था ही।

तमाशा देखनेवाले घटना का भरपूर मज़ा ले रहे थे। कोई ठकुरसुहाती करता, कोई मिर्च-मसाला मिलाता, कोई आग को हवा देता, कोई पानी डालने का प्रयास करता, कोई सिर्फ़ मज़े के लिए उँगली करता और कोई सुरक्षित दूरी पर दर्शक बना खड़ा पूरी फ़िल्म देखता रहता। इसी दौरान अमरसिंघ के किशोर भतीजे को अपना संघी शाखा संचालित, सोशल मीडिया माध्यम द्वारा अर्जित ज्ञान झाड़ने का मन किया। उसने किसी विद्वान की छटा से कहा कि पूरा देश कोरोना से लड़ रहा है, पुलिस और डॉक्टर सब जी-जान से लगे पड़े हैं और आप लोग हैं कि इस बीड़ी के लिए लड़े जा रहे हैं? शर्म आनी चाहिए आप लोगों को। आप लोग हमारे कर्मठ प्रधानमंत्री के भव्य पुरुषार्थ को मिट्टी में मिला रहे हैं? और कोरोना वॉरियर्स का हौसला पस्त कर रहे हैं? इस भाषणनुमा ज्ञान पर तालियाँ और वाहवाही की उम्मीद करता हुआ वह नव-संघी लौंडा ज़रा अपनी आभा और प्रतिभा पर मोहित होकर लोगों से अभिवादन के इंतज़ार में था कि अमरसिंघ का फटा, गंदा जूता दस फ़िट का फ़ासला नापकर सीधे सिर पर आन पड़ा। उस मनहूस व्यक्ति का नाम मत लो मेरे आगे—अमरसिंघ चीख़ा। जूता क्या चला कि सब में भगदड़ मच गई। वह नव-संघी लौंडा तो एक जूता खाकर ही पता नहीं कहाँ रफ़ूचक्कर हो गया था।

प्रधानमंत्री को मनहूस कहने के पीछे कहानी यह थी कि कभी अमरसिंघ बॉर्डर विंग में सिपाही हुआ करते थे। अब रिटायर होकर मज़दूरी और किसानी से अपना गुज़ारा कर रहे हैं। तत्कालीन गुजरात सरकार ने उन्हें सरकारी मुलाज़िम नहीं माना और न ही उन्हें कोई सरकारी मुलाज़िमत के तहत दिए जाने वाले लाभ दिए गए। बतौर अमरसिंघ वल्द सरदारसिंघ के मौखिक बयान के मुताबिक़ उन्हें सरकारी मुलाज़िमत के तहत दिए जाने वाले लाभ तो नहीं दिए गए, पर सरकारी मुलाज़िमत के तहत और बतौर एक नागरिक दिए जाने वाले सारे नुक़सान ज़रूर मिले। महज़ दिए जाने के इस आदर्श उपक्रम की परंपरा निभाने की भल-नियत के लिए भी उन्होंने सरकार का शुक्रिया अदा किया।

रात रामे के वहाँ बकरियों के बाड़े पर गुज़री। गुनेरी जाकर राधोजी से हथियाई ठरहे की बोतल रामे के हवाले कर अपने द्वारा किए गए वादे से छुटकारा पाया। ठरहे पर रामे ने पहले ज़रा अपनी नाक सिकोड़ी, पर अंततः उसका नरम दिल किसी तरह ठरहे पर पसीज ही गया! खारी-भात और ठरहे से रात कुछ देर तक रंगीन बनी रही। फिर हमारी बत्तियाँ बुझ गईं और अँधेरा छा गया।

13 अप्रैल 2020

निष्पक्षता में मेरा यक़ीन नहीं है। मैं सदैव अपने आपको किसी के पक्ष में खड़ा देखना चाहता हूँ। मैं अपना पक्ष न्याय-अन्याय, नैतिकता-अनैतिकता, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, भले-बुरे, बड़े-छोटे, कम-ज़्यादा, दोस्ती-दुश्मनी, प्रिय-अप्रिय, अपराधी-निरपराधी के पैमानों पर नहीं चुनता। मैं अपने लोग चुनता हूँ और उनके साथ खड़ा रहना पसंद करता हूँ। मैं अपना सच चुनता हूँ फिर उसके लिए भिड़ जाना पसंद करता हूँ। मैं अपने लोगों का और अपने सच का पक्ष लेता हूँ। (मेरा सच किसी जड़तावादी की मूर्ख ज़िद भी नहीं है। मैं उसे बार-बार जाँचता-परखता रहता हूँ और उपयुक्त समझने पर बदलता भी रहता हूँ।) मैं शक्तिशाली के मुक़ाबले कमज़ोर के पक्ष में हूँ, फिर चाहे वह ग़लत क्यों न हो। मैं सत्ता के मुक़ाबले जन का पक्षधर हूँ, फिर चाहे वह अराजक क्यों न हो। समूह के सामने मैं अकेले का साथी हूँ, फिर चाहे वह हत्यारा ही क्यों न हो। धन के बनिस्बत धान का, शहर के बनिस्बत गाँव का, आग के आगे पानी का, तूफ़ान के आगे तने-डटे खड़े पेड़ का और महल के बरअक्स जंगल के साथ मेरी पक्षधरता है। मेरी आवाज़ भीड़ के शोर के साथ नहीं किसी अकेले की चीख़ के साथ है, मेरी वाणी सत्ता की प्रशस्तियाँ गाने के लिए नहीं उसे गालियाँ देने के लिए है। मैं निष्पक्षता की ढाल तले अपनी खाल बचाने से अधिक किसी पक्ष-विपक्ष में रहकर अपनी खाल उधड़वाना पसंद करूँगा; क्योंकि निष्पक्षता का ढोंग कायर, तमाशाई, स्वार्थी और शठ लोग अपने बचाव के लिए करते हैं और मुझे अपने को इनमें गिनवाना क़तई पसंद नहीं होगा। मैं पक्ष-विपक्ष-त्रिपक्ष में रह सकता हूँ, पर निष्पक्ष नहीं रह सकता।

सत्ता की बोटियों पर पलने वाले गुजराती के चापलूस और नकली कवि-लेखकों, मैं सड़क पर पैदल चल रहे, लाठियाँ खा रहे और भूख से मर रहे उन ग़रीब मज़दूरों, मजबूरों के पक्ष में हूँ। तुम्हारे सत्ताधीश आक़ाओं और तुम जैसे हरामख़ोरों के विरुद्ध हूँ, इसे ज़रा ठीक से याद कर लो। मैं हर बार, हर जगह तुम्हारे विरुद्ध हूँ, तुम्हारी सत्ता के विरुद्ध हूँ।

मैं सरल से सरल भाषा में अपनी बात कहना-लिखना चाहता हूँ। क्लिष्ट भाषा का प्रयोग करके मुझे अपना पांडित्य सिद्ध नहीं करना और न ही अपने आपको विद्वान ठहराना है। सामान्य से भी सामान्य आदमी उसे पढ़-समझ सके, उसे वह अपनी ही भाषा लगे और उस भाषा से उसे डर, संकोच न हो यही मेरा प्रयास रहता है। उसे मेरी भाषा पढ़-सुन-बोलकर यह महसूस न हो कि वह एक भोट या मूढ़ व्यक्ति है। वह ऐसी भाषा हो कि किसान उसे धान की बालियाँ समझकर छू ले और ज़रा-सा तोड़कर मुँह से चख ले और कोई चरवाहा उसे अपने ढोर की हूँगार-फूँगार समझे और उसे अपने कंठ से सहज होकर गा सके। मेरी भाषा चिड़ियों की चहचहाहट से निकली हो, पशुओं के गलो की घंटियों की रणकार से निकली हो; किसानों, चरवाहों और मज़दूरों के गीतों-बातों से निकली हो। जिसमें हवा की सरसराहट, बारिश की गड़गड़ाहट, पेड़ों की फड़फड़ाहट और मिट्टी की चरचराहट हो। जिसमें स्पर्श और गंध की तरह विशुद्धता हो। वह हवा, धूप, जल की तरह सरल, सहज और सुलभ हो।

24 अप्रैल 2020

डोशल (कच्छ कवि माधव जोशी) की मृत्यु को आज तेरह दिन हो चुके हैं। कोरोना समय में उनकी न कोई लौकिक क्रिया रखी गई, न बारहवीं-तेरहवीं की गई। यूँ क्रियाओं-प्रक्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का ऋणी हुए बिना ही चले जाना, चले जाने की क्रिया के महत्त्व को सही रूप में स्थापित करता है।

मैं मृत्यु के पश्चात भी कुछ दिन अपने में उन चले गए व्यक्तियों को ज़िंदा रखने का प्रयास करता हूँ। अपने भीतर उनकी स्मृतियाँ टटोलता हूँ, उनका चेहरा उकेरता हूँ, उनके बोले-लिखे गए वाक्य बुदबुदाता हूँ; उन्हें कहने से मुझसे बचे रह गए कुछ ज़रूरी बोल फुसफुसाता हूँ, उनके कल्पनीय-अकल्पनीय, वास्तविक-अवास्तविक संसार में प्रवेश करता हूँ। एक तरह से यह आत्मश्लाघा या बड़ाई मानी समझी-जाएगी, पर फिर भी कहूँगा कि मैं इस तरह ज़िंदगी के कुछ दिन देकर ज़िंदा रहने का मोह पालता रहता हूँ। लेकिन मैं बहुत स्वार्थी हूँ, दस-बारह दिनों से अधिक अपना जीवन किसी को नहीं दे पाता।

डोशल, मेरे बुड्ढे मित्र, अब अलविदा…

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