अहंकार पर दोहे
यहाँ प्रस्तुत चयन में
अहंकार विषयक कविताओं को संकलित किया गया है। रूढ़ अर्थ में यह स्वयं को अन्य से अधिक योग्य और समर्थ समझने का भाव है जो व्यक्ति का नकारात्मक गुण माना जाता है। वेदांत में इसे अंतःकरण की पाँच वृत्तियों में से एक माना गया है और सांख्य दर्शन में यह महत्त्व से उत्पन्न एक द्रव्य है। योगशास्त्र इसे अस्मिता के रूप में देखता है।
धन्नो कहै ते धिग नरां, धन देख्यां गरबाहिं।
धन तरवर का पानड़ा, लागै अर उड़ि जाहिं॥
जाके चलते रौंदे परा, धरती होय बेहाल।
सो सावत घामें जरे, पण्डित करहू विचार॥
हे पंडितों! विचार करो, जिनके चलने के कारण पद-मर्दन से जमीन रगड़ जाती थी और धरती के जीव परेशान हो जाते थे, वे राजे-महाराजे एवं योद्धागण युद्धस्थल में अधमरे पड़े धूप में जलते हैं।
औघट घाट पखेरुवा, पीवत निरमल नीर।
गज गरुवाई तैं फिरै, प्यासे सागर तीर॥
उथले या कम गहरे घाटों पर भी पक्षी तो निर्मल पानी पी लेते हैं, पर हाथी बड़प्पन के कारण समुद्र के तट पर भी (जहाँ पानी गहरा न हो) प्यासा ही मरता है।
प्यास सहत पी सकत नहिं, औघट घाटनि पान।
गज की गरुवाई परी, गज ही के गर आन॥
हाथी प्यास सह लेता है पर औघट अर्थात कम गहरे घाट में पानी नहीं पी सकता। इस प्रकार हाथी के बड़प्पन का दोष हाथी के गले ही पड़ा कि कम गहरे पानी से पानी नहीं पी सकता और प्यासा ही रहता है।
सुन्दर गर्व कहा करै, देह महा दुर्गंध।
ता महिं तूं फूल्यौ फिरै, संमुझि देखि सठ अंध॥
जब हम होते तू नहीं, अब तू है हम नाहीं।
जल की लहर जल में रहे जल केवल नाहीं॥
सुन्दर ऊँचे पग किये, मन की अहं न जाइ।
कठिन तपस्या करत है, अधो सीस लटकाइ॥
मैं नहिं मान्यौ रोस तैं, पिय बच हित सरसाहिं।
रूठि चल्यौ तब, कहा कहुँ, तुमहु मनायौ नाहिं॥