प्रार्थना पर उद्धरण
प्रार्थना प्रायः ईश्वर
के प्रति व्यक्त स्तुति या उससे याचना का उपक्रम है। इस चयन में प्रस्तुत है—प्रार्थना के भाव में रचित कविताओं का एक अनूठा संकलन।
हर किसी के अंदर एक गहरी लालसा होती है। हम हमेशा किसी न किसी चीज़ के लिए लालायित रहते हैं और हम मानते हैं कि हम जिस चीज़ के लिए लालायित रहते हैं वह यह या वह है, यह व्यक्ति या वह व्यक्ति, यह चीज़ या वह चीज़ है; लेकिन वास्तव में हम ईश्वर के लिए लालायित रहते हैं, क्योंकि मनुष्य सतत प्रार्थना है। व्यक्ति अपनी लालसा के माध्यम से एक प्रार्थना है।
प्यार कोई विजय जुलूस नहीं है। यह बेपरवाह है और टूटी हुई प्रार्थना है।
करुणा, करुणा, करुणा। मैं नए साल के लिए प्रार्थना करना चाहती हूँ, संकल्प नहीं। मैं साहस के लिए प्रार्थना कर रही हूँ।
आसान जीवन के लिए प्रार्थना न करें, कठिन जीवन को सहने की शक्ति के लिए प्रार्थना करें।
प्रतिदिन प्रातःकाल हम जो यह उपासना कर रहे हैं, यदि उसमें थोड़ी भी सत्यता हो, तो हम उसकी सहायता से प्रतिदिन धीरे-धीरे त्याग के लिए प्रस्तुत होते रहते हैं।
हर जाति की सभ्यता की आंतरिक प्रार्थना यही होती है कि उसमें श्रेष्ठ महापुरुषों का आविर्भाव हो।
जगत में ईश्वर से हमें अपना कोई विशेष संबंध बना लेना होगा। कोई एक विशेष सुर बजाते रहना होगा।
हमारी प्रतिदिन की उपासना, मानो हमारे प्रतिदिन की निःशेष सामग्री होती है।
मंत्र का सहारा लेकर हम चिंतन के विषय को मन के साथ बाँधे रहते हैं।
मैंने कभी कुछ ज़्यादा तो नहीं, पर भगवान से एक प्रार्थना तो की है : हे भगवान, मेरे दुश्मनों को हास्यास्पद बना दो। और भगवान ने इसे मंज़ूर कर लिया।
मंत्र नामक वस्तु जीवन को बाँधने का एक उपाय है।
इच्छा और इच्छा के बीच, दूत का काम करती है प्रार्थना।
ईश्वर की वाणी को बाँधने के अनेक संबंध हैं, उनमें से अपने मन के मुताबिक किसी एक संबंध को स्थिर कर लेना होगा।
हम अपने बारे में इतना कम और इतना अधिक जानते हैं कि प्रेम ही बचता है प्रार्थना की राख में।
निरंतर उपासना का तात्पर्य है— निरंतर भजन। अर्थात् नामजप, चिंतन, ध्यान, सेवा-पूजा, भगवदाज्ञा-पालन यहाँ तक कि संपूर्ण क्रिया मात्र ही भगवान की उपासना है।
आदमी ऐसा मानकर कि ईश्वर एक है, अपनी भाषा में प्रार्थना करें तो वह एक बहुत बुलंद बात हो जाती है।
मनुष्य की पूजा करना हमारा काम नहीं है। पूजा आदर्श और सिद्धांत की हो सकती है।
प्रार्थना उपवास बिना नहीं होती, और उपवास यदि प्रार्थना का अभिन्न अंग न हो तो वह शरीर की मात्र यंत्रणा है, जिससे किसी का कुछ लाभ नहीं होता। ऐसा उपवास तीव्र आध्यात्मिक प्रयास है, एक आध्यात्मिक संघर्ष है। वह प्रायश्चित और शुद्धिकरण की प्रक्रिया है।
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भगवान् की पूजा के लिए सबसे अच्छे पुष्प हैं—श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, दया, मैत्री, सरलता, साधुता, समता, सत्य, क्षमा आदि दैवी गुण। स्वच्छ और पवित्र मन मंदिर में मनमोहन की स्थापना करके इन पुष्पों से उनकी पूजा करो। जो इन पुष्पों को फेंक देता है और केवल बाहरी फूलों से भगवान् को पूजना चाहता है, उसके हृदय में भगवान आते ही नहीं, फिर वह पूजा किसकी करेगा?
दीन-दुखियों की सेवा ही प्रभु की पूजा है।
पूजा या प्रार्थना वाणी से नहीं, हृदय से करने की चीज़ है।
स्वामी का कार्य, गुरु भक्ति, पिता के आदेश का पालन, यही विष्णु की महापूजा है।
यदि आपको झगड़ा करके ईश्वर का नाम लेना है; तो वह नाम तो ईश्वरका होगा, पर काम शैतान का होगा।
अहिंसा केवल बुद्धि का विषय नहीं है, यह श्रद्धा और भक्ति का विषय है। यदि आपका विश्वास अपनी आत्मा पर नहीं है, ईश्वर और प्रार्थना पर नहीं है, तो अहिंसा आपके काम आने वाली चीज़ नहीं है।
ईश्वर जब आपके हृदय में आ जायेगा, तो आप वही करेंगे जो वह करायेगा। इसलिए हमें विचारशील प्राणी रहना चाहिए।
वेदों में प्राकृतिक उपकरणों को ही को ‘देव’ माना गया है और उनकी स्तुति की गई है।
आप ईश्वर और धन दोनों की एक साथ पूजा नहीं कर सकते।
जो अपने भीतर दिव्य ज्योति जगाने को तड़प रहा हो उसे प्रार्थना का आसरा लेना चाहिए। परंतु प्रार्थना शब्दों या कानों का व्यायाम मात्र नहीं है, ख़ाली मंत्र जाप नहीं है। आप कितना ही राम नाम जपिए, अगर उससे आत्मा में भावसंचार नहीं होता तो वह व्यर्थ है। प्रार्थना में शब्दहीन, हृदय, हृदयहीन शब्दों से अच्छा होता है। प्रार्थना स्पष्ट रूप से आत्मा की व्याकुलता की प्रतिक्रिया होनी चाहिए।
क्रोध-भरे दिल से प्रार्थना करने में दिल की स्वच्छता नहीं हो सकती, इसलिए शांति को ही प्रार्थना समझें।
हमने आध्यात्मिकता को व्यक्तिगत भक्ति-साधना के बीच आबद्ध कर दिया है, उसके आह्वान से हम मानव-मात्र में ऐक्य स्थापित नहीं कर सके।
त्याग के अतिरिक्त और कहीं वास्तविक आनंद नहीं मिल सकता, त्याग के बिना न ईश्वर-प्रेरणा हो सकती है, न प्रार्थना।
हे प्रभो! तुम्हारे नाम को ही स्मरण करके मैं सारे कामों को आरंभ करता हूँ। तुम दया के सागर हो। तुम कृपामय हो, तुम अखिल विश्व के स्रष्टा हो, तुम ही मालिक हो। मैं तुम्हारी ही मदद माँगता हूँ। आख़िरी न्याय देने वाले तुम्हीं हो। तुम मुझे सीधा रास्ता दिखाओ; उन्हीं का चलने का रास्ता दिखाओ जो तुम्हारी कृपादृष्टि पाने के क़ाबिल हो गए हैं; जो तुम्हारी अप्रसन्नता के योग्य ठहरे, जो ग़लत रास्ते से चले हैं—उनका रास्ता मुझे मत दिखाओ।
हे प्रभु! कब ऐसा होगा कि आपका नाम लेने में मेरे मुख पर अश्रुधारा बहने लगे, वाणी गद्गद होकर रुँध जाए और सारा शरीर पुलकित होकर रोमांचित हो जाए?
मंदिर तथा मस्जिद दोनों ही ईश्वर-पूजा के स्थान हैं। शंख बजाना उसी की उपासना का गीत है। मस्जिद की महराब, गिरजाघर, माला व सलीब- यह सब उसी ईश्वर की पूजा के चिह्न हैं।
वही अच्छी प्रार्थना करता है जो महान् और क्षुद्र सभी जीवों से सर्वोत्तम प्रेम करता है, क्योंकि हमसे प्रेम करने वाले ईश्वर ने ही उन सब को बनाया है और वह उनसे प्रेम करता है।
प्रार्थना प्रातःकाल का आरंभ है और संध्या का अंत है।
हमारी प्रार्थना सदा सत्य नहीं होती है, कई बार तो सिर्फ़ मुँह की बात होकर रह जाती है, क्योंकि चारों ओर असत्य से घिरे रहने के कारण हमारी वाणी में सत्य का तेज़ नहीं पहुँच पाता है।
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हे नारायण! तुम नित्य और निरंजन (पवित्र) हो। मैं भी तुम्हारा अंश हूँ।
ईश्वर यदि केवल सत्य-स्वरूप होते, यदि अचूक नियमों के द्वारा ही उनका प्रकाश होता, तो फिर उनके प्रति प्रार्थना की बात हमारी कल्पना में उदित न हो पाती।
मैं ईश्वर की पूजा सत्य के रूप में ही करता हूँ।
मेरी प्रार्थना जगत को दिखाने के लिए नहीं है। मेरी प्रार्थना मन की शांति के लिए है, दिल की सफाई के लिए है।
आडंबर से पूजा करने पर मन में अहंकार पैदा होता है। धातु, पत्थर, मिट्टी की मूरत से तुझे क्या काम? तू छिपकर पूजा कर कि किसी को कानों-कान ख़बर न हो और मनोमय प्रतिमा बनाकर हृदय के पद्मासन में स्थापित कर।
मनुष्य-पूजा ही सच्ची ईश्वर-पूजा है।
अगर कोई विरोध करे तो आप अपनी प्रार्थना जारी रखें और साथ-ही-साथ विरोध करनेवाले की ओर उदार रहें, रोष न करें।
पूजा से तात्पर्य पूज्य जैसे बनने की क्रिया से है।
प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है। इसी से गूँगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं।
गुणी से याचना कर विफल मनोरथ होना अच्छा है, अधम से याचना कर सफल मनोरथ होना नहीं।
प्रार्थना तो मेरे जीवन का एक अंग है।
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